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अंतहीन संभावना का आकार

हिंदी भाषा की प्रकृति अपने आप में जितनी सरल है, उतनी ही जटिल भी है। बहुत सरल और सामान्य से लगने वाले कई शब्दों की अशुद्ध वर्तनी लेखन के स्तर पर प्रचलित है। अर्थ-प्रयोग के स्तर पर भी ग़लत शब्दों का प्रचलन हिंदी भाषा में आम है। इस तरह की दुविधाओं और मुश्किलों के समाधान के लिए डॉ. सुरेश पंत की पुस्तक ‘शब्दों के साथ-साथ’ बहुत उपयोगी है। 

हालाँकि पुस्तक की भूमिका में ही लेखक ने यह स्पष्ट कर दिया है कि उनसे पहले इस तरह का काम भास्करानंद पांडे, विद्यानिवास मिश्र, रामचंद्र वर्मा, बदरीनाथ कपूर, अरविंद कुमार, श्यामसुंदर दास, अजित वडनेरकर कर चुके हैं; लेकिन साथ ही हिंदी शब्दों की अनंतता का उल्लेख करते हुए स्पष्ट किया है कि इस तरह के काम के लिए हिंदी भाषा में अंतहीन संभावना है।

अजित वडनेरकर की पुस्तकों को यदि छोड़ दिया जाए तो संदर्भित लेखकों की ज़्यादातर पुस्तकें शास्त्रीय होने के कारण हिंदी के एक सामान्य पाठक के लिए बहुत जटिल और उबाऊ हैं, क्योंकि वे तमाम पुस्तकें भाषा-शास्त्र के अनुशासन में लिखी गई हैं। जबकि डॉ. सुरेश पंत की यह पुस्तक ललित गद्य के प्रारूप में लिखी गई है। इसमें हिंदी शब्दों के स्वरूप और शुद्ध-प्रयोग से संबंधित बिल्कुल गद्य कविता जैसे गद्य के 128 छोटे-छोटे टुकड़े हैं। 

यह पुस्तक पाठक को बहुत मनोरंजक ढंग से शब्दों की यात्रा करवाती है। मनोहर चमेली ‘मनु’ के शब्दों में—‘‘ऐसा लगता है मानो लेखक शब्दों के मर्म, अर्थ और विस्तार में जाने के लिए कहीं तो पाठकों के मस्तिष्क पर हौले से थाप देते हैं और कहीं-कहीं धौल भी जमाते हैं।’’

जितनी रोचक और रंजक भाषा में यह पुस्तक लिखी गई है, इसके अध्यायों के शीर्षक भी उतने ही रोचक हैं। इसके गद्य में निहित रोचकता न केवल पाठक को अपनी ओर खींचती है, बल्कि उन्हें शब्दों की यात्रा जानने के लिए प्रेरित करती है। इन अध्यायों में ‘कविराज और वैद्यराज’; ‘चन्दन और अफीम की रिश्तेदारी’; ‘आना क्रिया के कारनामे’; ‘कार्यवाही या कार्रवाई’; ‘न, ना, नहीं और मत’; ‘कुछ व्यंजनों के भाषा स्वाद’ और ‘कथा पूर्णविराम की’ बहुत रोचक बन पड़े हैं।

डॉ. पंत किसी शब्द पर विचार करते हुए उसके मातृकुल से परिचित अवश्य करवाते हैं। यह उनकी शैली है, जो भाषा-विज्ञान जैसे जटिल विषय की प्रस्तुति में भी सामान्य पाठक को अपनी उँगली पकड़ाकर लिए चलते हैं। उनकी शैली उबाऊ नहीं है, बल्कि तथ्यपरक और विश्लेषणात्मक है, जिसमें मीठा व्यंग्य और गुदगुदाने वाली सरलता है।

हिंदी शब्द ‘पव्वे’ को क्रमशः ‘पाद’ और ‘पाव’ से संबद्ध करते हुए, यह ‘पव्वा’ शब्द पर विचार करते हुए लिखते हैं : “ये चले तो संस्कृत से हैं; लेकिन प्राकृत, अपभ्रंश तथा अनेक लोकभाषाओं में ऐसे तराशे गए कि आज सरलता से पता ही नहीं लगता कि इनका मूल क्या था!” 

किसी विषय को स्पष्ट करने के लिए यत्र-तत्र मुहावरों, लोकोक्तियों और छोटे क़िस्सों को दृष्टांत के रूप में प्रस्तुत किया गया है, जिससे न केवल उस शब्द का मूल स्पष्ट हो जाता है, बल्कि उसकी अर्थ-ध्वनियाँ, वर्तनी और शुद्ध प्रयोग का सबक़ भी मिलता है। इसके अतिरिक्त हिंदी-परंपरा के महान् कवियों के शब्द-प्रयोगों को भी जगह-जगह उदाहरण स्वरूप प्रस्तुत किया गया है। 

‘पाहुना’ शब्द की चर्चा करते हुए लेखक नानक, तुलसी और सूर का स्मरण करता है :
1. “जिसनऊँ तूं अस थिर करि मानहि ते पाहुन दो दाहा।” (नानक)
2. “लेहु नयन भरि रूप निहारी, प्रिय पाहुने भूप सुत चारी।” (तुलसी)3.  “पाहुनी करि दै तनक मह्यौ।” (सूर)

इसी प्रकार लेखक ‘दीद’, ‘डीठ’ और ‘दिठौने’ को ‘दृष्टि’ से संबद्ध बताकर मैथिलीशरण गुप्त और कबीर की कविता को उदाहरण स्वरूप प्रस्तुत करता है :
1. सब बचाती हैं सुतों के गात्र, किंतु देती हैं डिठौना मात्र।” (मैथिलीशरण गुप्त)
2. दीद बरदीद परतीत आवै नहीं, दूरि की आस विश्वास भारी।” (कबीर)

किसी शब्द की कितनी अर्थ-छटाएँ हो सकती हैं, इसके लिए पुस्तक का ‘अब और अभी’ शीर्षक अध्याय में देखा जा सकता है। इसका आरंभ ही शोले फ़िल्म के चर्चित वाक्य से होता है “अब तेरा क्या होगा कालिया?”...

सामान्यतः ‘अब’ का प्रयोग हम ‘इसी क्षण’ के अर्थ में करते हैं। लेकिन लेखक के अनुसार ‘अब’ की व्याप्ति इससे आगे भी है। यह शब्द प्रयोग और प्रयोक्ता के मंतव्य के अनुसार ‘इसी क्षण’ से लेकर ‘आगे’, ‘इससे आगे’, ‘फ़िलहाल’, ‘आधुनिक काल में’ आदि अनेक अर्थ दे सकता है। जैसे :

इसी क्षण : अब आशीर्वाद दीजिए, मैं चल रहा हूँ।
आगे : सुनिश्चित कीजिए कि अब आप ऐसा नहीं करेंगे।
आजकल : अब यह चलन नहीं रहा। 
इसके बाद : अब तुम जानो, तुम्हारा काम जाने। 
निकट भविष्य में : अब रोज़गार के लिए कहाँ जाएँ?

भाषा की कम समझ वाले लोग जब भाषा में दख़ल देने लगते हैं तो दुष्परिणाम क्या होता है, यह लेखक ने ‘विकलांग और दिव्यांग’ शीर्षक अध्याय में विस्तार से बताया है। इन्होंने लिखा है “‘दिव्यांग’ शब्द से Handicapped  को इस प्रकार सहानुभूति का पात्र बनाया जाता है, जैसे उनमें बेचारगी हो जिसे नाम-परिवर्तन से दूर कर दिया जाएगा। जैसे गांधीवादी दौर में दलितों और वंचितों को ‘हरिजन’ शब्द की रेशमी चादर में लपेट दिया गया था, और हरिजन कहकर उन्हें आदरणीय विशेषण दे दिया गया और हरि भजने को छोड़ दिया गया।” 

आज वैसी ही स्थिति दिव्यांग शब्द की है। ‘दिव्यांग’ शब्द जैसे प्रयोग हमारे धर्म और भारतीय संस्कृति का बोध तो देते हैं, लेकिन इस शब्द से वह अर्थ ध्वनित नहीं होता जो शारीरिक अक्षमता को दर्शाता हो। जिस दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति से आज Handicapped व्यक्ति गुज़रता है, उसे दैवीय, अलौकिक आदि विशेषणों से विभूषित करना उसका अपमान है। इसका प्रयोग करते हुए लगता है कि हम किसी सक्षम व्यक्ति की हँसी उड़ा रहे हैं। यह किसी दरिद्र व्यक्ति को सेठ जी कहने जैसा है। यह पुस्तक उन कूढ़मग़ज़ों-कूपमंडूकों के लिए बेहद उपयोगी है जिन्हें भाषा को बरतने की तमीज़ नहीं है और जो बिना विचार किए शब्दों का उपयोग करते हैं।

यह पुस्तक हिंदी पढ़ाने वाले उन प्रोफ़सर्स को भी पढ़नी चाहिए जो ‘पुनरवलोकन’ को ‘पुनरावलोकन’ और ‘उपर्युक्त’ को ‘उपरोक्त’ लिखते हैं। उन नेताओं, जो ‘प्यारे भाइयो और बहनो’ की जगह ‘प्यारे भाइयों और बहनों’ से अपने दिन की शुरुआत करते हैं और उन संपादकों, जो नित्य भाषा को भ्रष्ट करते जा रहे हैं; को भी यह पुस्तक ज़रूर पढ़नी चाहिए। इसके अतिरिक्त मीडिया, अनुवाद और प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहे युवाओं को भी यह किताब आद्योपांत पढ़नी ही चाहिए।

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