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इलाहाबाद तुम बहुत याद आते हो!

“आप प्रयागराज में रहते हैं?”

“नहीं, इलाहाबाद में।”

प्रयागराज कहते ही मेरी ज़बान लड़खड़ा जाती है, अगर मैं बोलने की कोशिश भी करता हूँ तो दिल रोकने लगता है कि ऐसा क्यों कर रहा है तू भाई! ऐसा नहीं है कि प्रयागराज से मेरा कोई बैर है। मैं गाँव से इलाहाबाद आया था, न कि प्रयागराज। जवानी के सबसे ख़ूबसूरत दिन इलाहाबाद में गुज़रे। यहीं मैंने पढ़ाई, लड़ाई और प्यार किया। सबसे सुंदर दोस्त मुझे यहाँ मिलें। मिलीं सबसे यादगार स्मृतियाँ जिन्हें मैं याद करते ही भीतर से मुस्कुरा पड़ता हूँ। विश्वविद्यालय, छात्रसंघ, छात्रावास, चाची की चाय, यूनिवर्सिटी रोड़, कंपनी बाग़, लल्ला चुंगी, संगम और न जाने कितनी जगहें हैं जो इलाहाबाद के साथ ही आबाद लगती हैं। जैसे ही मैं प्रयागराज कहता हूँ, लगता है कि मैं अपनी स्मृतियों को विस्मृत कर रहा हूँ। प्रयागराज की सर्वव्याप्ति में कहीं इलाहाबाद दिख जाता है तो तृप्तता महसूस होती है। ऐसा लगता है कुंभ मेले में बिछड़ा कोई साथी मिल गया है। यह शहर ताउम्र मेरे लिए इलाहाबाद ही रहेगा। भूले से भी मैं उसे प्रयागराज नहीं कह पाऊँगा। प्रयागराज मुझे माफ़ करना। मैं तुम्हें पुराने नाम से ही पुकारूँगा। मुझे लगता है कि तुम मेरी भावनाओं को ज़रूर समझोगे। बाक़ियों का पता नहीं। 

दिन था, बीते साल के अंतिम पाँच दिनों में से एक। मैं अपनी माँद में सोया हुआ था। भोर का समय था। बाहर अमरूद की पत्तियों पर कुछ गिरने की आवाज़ आ रही थी। कुछ जानी-पहचानी आवाज़ थी। समझ गया कि बारिश हो रही है। मन ख़ुश हो गया इसलिए नहीं कि बारिश हो रही थी; बल्कि इसलिए कि बारिश से पेड़ों पर जमी और आसमान में उड़ती धूल ग़ायब हो जाएगी। यह धूल ही बीते महीनों में इलाहाबाद का जीवन रही है। हर तरफ़ बस धूल-ही-धूल। ख़ुश हुआ कि चलो मास्क लगाने से मुक्ति मिलेगी अब। इस बारिश ने शहर का तापमान इतना तो कर दिया था कि शहर के लोग अलाव जलाकर कह सकते थे कि, “अमा यार ठंड बहुत बढ़ गई है।” नगर निगम वाले अलाव के लिए लकड़ियाँ बाँट सकते थे और दानी लोग ग़रीबों को कंबल। बिस्तर में लेटे हुए सोच रहा था कि काश यह बारिश देर तक होती। तभी वह बंद हो गई। नहीं सोचना था। अपशकुन हो गया।

उन दिनों इलाहाबाद में गलियों, चौराहों, दुकानों और मयख़ानों में बस दो चीज़ों का शोर था। एक महाकुंभ और दूसरा शिक्षक भर्ती। दोनों में सरकार की इज़्ज़त दाँव पर लगी हुई थी। कही कुछ लीक न हो जाए। जिधर जाइए यही शोर सुनाई देता था कि मेला में इतने करोड़ का ख़र्चा हुआ और इतने लोग इतने देशों से यहाँ आएँगे। इलाहाबादी बकैती का वैसे भी कोई तोड़ नहीं है। बातें तो लोग ऐसी-ऐसी करते हैं कि कान से ख़ून आ जाए। अभी कुछ दिन पहले ही चाय की टपरी पर एक अंकल ने ऐलान करते हुए कहा, “जानत हो, ओल्ड मोंक फैक्टरिया क मालिक इलाहाबाद के है अपने बैरहना के।” दूसरी तरफ़ हैं शिक्षक भर्ती के प्रतियोगी छात्र, जिन्हें सालों बाद परीक्षा के संगम में डुबकी लगाने का अवसर मिला है। मैं विश्वविद्यालय के आस-पास घूमने जाता हूँ तो यहाँ की बकैती सुनकर भाग खड़े होने का मन करता है। अपने विषय में हर कोई टाप ही कर रहा है। भले ही अपने विषय में सीटें केवल चार हो। कुछ तो चाय वाले को ‘बस नौकरी मिलने वाली है’ वाला आश्वासन देकर फ़्री में बन-मक्खन और अंडा खाए जा रहे हैं। कुछ बस इसी जुगाड़ में हैं कि किसी तरह जुगाड़ भिड़ जाता तो ज़िंदगी की नैया किनारे लगती। वह खेत बेचकर भी कुछ-न-कुछ जुगाड़ कर लेंगे। सब कुछ जुगाड़ पर चल रहा है। सब अपने-अपने तरीक़े से परीक्षा की वैतरणी पार करने में लगे हुए हैं।

मैं एक दिन यूँ ही कटरा के पास एनझा छात्रावास गया। सोचा कि चाय पी जाय। तभी तीन प्रतियोगी जो शोधार्थी भी हैं, बात करते हुए वहीं बग़ल में बैठ गए। उनकी बातें सुनकर तो वहाँ से जाने का मन करने लगा। वह जुगाड़ के सिवा कोई बात ही नहीं कर रहे थे। फिर किसी बात को लेकर आपस में ही भिड़ गए। ऐसा लगा कि अभी वह खड़े-खड़े पूरा इतिहास-भूगोल एक कर देंगे। बात बढ़ गई। ऐसा लगा कि पानीपत और प्लासी का युद्ध हो ही जाएगा। मुझे लगा कि यहाँ से निकल जाना चाहिए, नहीं तो बे-फ़ुज़ूल उसमें मैं मारा जाऊँगा। इसलिए कि एक बकैतबाज़ तो मेरे भीतर भी रहता है। ऐसी स्थिति में वह कुलबुलाने लगता है बाहर आने के लिए। बात चाय से शुरू हुई थी और पहुँच गई उसके उद्गम स्त्रोत पर यानी इतिहास पर। इतिहास वाले भाई ने समझाया कि मैं इतिहास में पीएचडी कर रहा हूँ, फिर तुम काहे का इतिहास पर ज्ञान दे रहे हो। अर्थशास्त्र वाला भड़क गया। क्या इतिहास वालों ने ठेका ले रखा है इतिहास का—उसकी बात सही थी।

इतिहासकार बनने के लिए इतिहास में पीएचडी करनी थोड़े ज़रूरी है। वो तो चाय की टपरी और व्हाट्सएप पर भी पढ़ाया जाता है। हर आदमी इतिहासकार है, वह गड्ढे खोदेगा जिसको खुदाई देखनी हो देखे, नहीं तो अपना रास्ता नापे। मैं हक्का-बक्का रह गया। मैं कुछ बोल भी तो नहीं सकता अब। उसने मेरे इतिहास की पीएचडी को फटी हुई ढोल में बदल दिया। मैंने चाय के अर्थशास्त्र पर उसे ज्ञान देने की कोशिश की, लेकिन सीमांत उपयोगिता के सिद्धांत से ज़्यादा मुझे कुछ आता नहीं था। अब अर्थशास्त्र कोई इतिहास तो है नहीं कि राह चलते—रिक्शे, बस या ट्रेन में बैठे, समोसे खाते, शराब पीते या मोबाइल चलाते हुए मिल जाए। आज के समय अगर कोई चीज़ सबसे सस्ती है तो वह है इतिहास। हर कोई इतिहासकार है, इतिहासकारों को छोड़कर। जो इतिहासकार हैं, वह कहीं किसी कोने में गुम अभिलेखागार की फ़ाइलों की धूल फाँक रहे हैं। उन फ़ाइलों को घुन खाते जा रहे हैं। कौन सामने लाएगा इन्हें एक इतिहासकार ही न, लेकिन देश में उसका कोई मूल्य बचा है। फिर वह क्या पाटना चाहते हैं इतिहास के गड्ढे। कितने गड्ढों को पाटोगे। कहीं-न-कहीं से कोई दूसरा गड्ढा खोद ही देगा। मुझे एक ‘हम हिंदुस्तानी’ फ़िल्म का गाना याद आ रहा है, “छोड़ो कल की बातें कल की पुरानी/ नए दौर में लिखेंगे हम मिलकर नई कहानी।” रोज़-ब-रोज़ नित नूतन गड्ढा तो हम खोद ही रहे हैं।

यहाँ मैं आधे घंटे बैठा रहा। सब तरफ़ से एक ही शोर है, ठीक वैसा ही शोर जब इलाहाबाद में दधिकांधों मेले में सैकड़ों लाउडस्पीकर लगाकर एक ही गाना बजता है, “आर यू रेडी नाकाबंदी-नाकाबंदी।” यहाँ भी कुछ ऐसा ही शोर है, “ऊपर वाले जुगाड़ भिड़ा दे।” यह सुनकर तो मैं ऐसे भयभीत हो गया जैसे कि किसी खरहे को शिकारी दौड़ा रहे हों।

मैं भी तो प्रतियोगी हूँ। आख़िर नौकरी तो मुझे भी चाहिए। लेकिन मुझे भरोसा नहीं है कि मैं सरकारी नौकरी पाऊँगा क्योंकि मैं सुबह, दोपहर और शाम, गली और चौराहे नौकरी की माला नहीं जप पाता। बात-बात पर राजनीतिक सिद्धांत नहीं चेप पाता और सबसे ज़रूरी कि मैं यूट्यूबिया शिक्षकों के प्रवचन नहीं सुनता।

वहाँ कुछ लोग पिछली बार की कट ऑफ़ की बातें करते हुए, अपने मौजूदा ज्ञान की नाप-तोल कर रहे थे। मुझे न इसमें मज़ा आता है कि पिछली बार की कट-ऑफ़ कितनी गई थी, न इसमें कि इस बार कट-ऑफ़ कितनी जाएगी। कुछ पिछले लेन-देन का हिसाब लगा रहे थे। एक ने बड़े चाव से बताया कि इस बार सत्यनारायण कथा में दक्षिणा बढ़ने वाला है। ऐसा लग रहा था कि बोली लग रही हो। एक ने कहा, “गुरु इस बार बीस टका भूल जाओ, पूरे चालीस टका लग रहे हैं।” तभी दूसरे उसे डपट दिया, “भक्क भो... के तीस से ज़्यादा नहीं रहेगा। देख लेना।” इन्हें सुनकर मेरे मन में अजीब-सी बेचैनी होने लगी। सोचने लगा कि अपनी नैया बीच मझधार में ही डूब न जाएगी। कुछ पढ़ने वाले भी वहाँ जुटे थे। वह दम ठोककर कह रहे थे कि इस बार कुछ लीक नहीं होगा। सरकार मुस्तैद है। बग़ल में बैठा लड़का बोला, “अरे यह तो पंद्रह-सोलह घंटे पढ़ता ही रहता है। इसको जुगाड़ की क्या ज़रूरत है।” सोलह घंटे पढ़ने की बातें सुनकर मेरे तोते उड़ गए। घुटने लगा मैं कि रट्टे की पतवार को कितना तेज़ चलाऊँ कि नाव मझधार में न डूबे। इस नाउम्मीद होती दुनिया में उम्मीद भी बस यही है कि मैं भी यह सब लिखना छोड़कर रट्टा मारने पर फ़ोकस करूँ। यह सब फ़ालतू लिखकर अपना समय क्यों ख़राब कर रहा हूँ।

आख़िर जीवन की सफलता इसी से आँकी जाएगी कि मैं करता क्या हूँ। नौकरी न होने पर लोग सामने सहानुभूति दिखाएँगे कि इतना पढ़ा-लिखा लेकिन नौकरी नहीं है। पीठ पीछे मुझे गरियायेंगे कि इलाहाबाद में रहकर लौंडियाबाज़ी करता है। कुछ कहेंगे कि इसको कुछ आता-जाता नहीं है। कुछ मेरे माँ-बाप को कोसेंगे कि पढ़ने भेजने की क्या ज़रूरत थी। शहर में जाकर कमाता तो अब तक लाखों रुपए कमा लेता। पड़ोसी ख़ुश होंगे कि साले को नौकरी नहीं मिली, अच्छा हुआ नहीं तो हमसे आगे निकल जाता। कुछ तो इसी बात से ख़ुश होंगे कि देखता हूँ कौन करता है इससे शादी। दोस्त ख़ुश होंगे कि बड़ा विद्वान बनता था। आ गई न अक़्ल ठिकाने।

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अगली बेला में जारी...

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