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अब बाज़ार स्त्री के क़दमों में है

समकालीन हिंदी स्त्री-कविता की परंपरा में अनीता वर्मा सघन संवेदना और ऐन्द्रियबोध की कवि हैं। भाषा, भाव और बिंब के साथ प्रतीकों की अलग आभा उनकी कविताओं को दुर्लभ अर्थ-छवियों से जोड़ती है। परिवार, समाज, राष्ट्र आदि के भीतर दरक रही मनुष्यता को कवि ने अलग-अलग दृश्य-बिंबों में गूँथने की कोशिश की है। कविता उनके लिए बाज़दफ़ा मानवीय करुणा की सहयात्री है। प्रेम, प्रकृति में घुस आई बाज़ारू नुमाइश और पीढ़ी-दर-पीढ़ी विनष्ट होती मानवता की साख हृदय को व्यथित ही नहीं करती वरन भविष्य के प्रति चिंतित भी करती है। झूठे, प्रपंच और प्रच्छन्नचारी विज्ञापन की दुनिया हो या अपराध के नए-नए तरीक़े अथवा मानवीय संबंधों का यांत्रिकीकरण आदि ने सामाजिक जीवन को नीरस, उबाऊ और हिंसक बना दिया है। जीवन की निस्सारता को एक अर्थपूर्ण दिशा देना अनीता वर्मा का मूल लक्ष्य है। ‘एक जन्म में सब’ (2003) और ‘रोशनी के रास्ते पर’ (2008) उनके दो महत्त्वपूर्ण कविता-संग्रह हैं।

‘एक जन्म में सब’ की कविताएँ जीवन के भीतर उतरते हुए जीवन के दुर्निवार पक्षों को एक नई भाषा व शिल्प प्रदान करती है तथा प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से होने वाले बदलावों को, उसके विस्मयकारी प्रारूपों को मानवीय सहानुभूति से संस्पर्श करती है। बतर्ज़ ललित कार्तिकेय : “एक जन्म में सब में हमें दुर्लभ हो चली नैतिक काव्य-संवेदना का स्पर्श निरंतर महसूस होता रहता है और अंत में हम पाते हैं कि उस स्पर्श ने हमारे जीवनबोध को सयाना बना दिया है और हमें भीतर से अपेक्षाकृत निष्कलुष। इस संकलन की कविताओं को पढ़ना एक पवित्र और निष्पाप आलोक में घिरने जैसा अनुभव है। ये कविताएँ हमारे भीतर एक नीरवता रचती हैं और उस नीरवता में अपनी बात कहती हैं।’’ 

‘रोशनी के रास्ते पर’ की कविताएँ यथार्थ को आईना दिखाते हुए जीवन की सहजता, व्याकुलता तथा निष्कलुष भाव को युगीन चुनौतियों के साथ प्रस्तुत करती है। कवि का ज़ोर भावों की शुद्धता पर जितना है उतना ही भाषा की आत्मीय रूपों पर भी। स्त्री की अनुभूतित यथार्थ की प्रतिच्छाया उनकी कविताओं को अति संवेदनशील बनाती है। कविता में आवाजाही करते विश्वप्रसिद्ध कवि, चित्रकार, दार्शनिक, चिंतक आदि उनके काव्य-मानस के स्थायी सदस्य हैं। प्रथमद्रष्ट्या उनकी कविताएँ व्यक्ति की निजता, एकांतता एवं मननशीलता के तत्त्व-मीमांसीय प्रश्नों के सदृश्य प्रतीत होते हैं। लेकिन जल्द ही कविता उस मर्मस्थल तक ले जाती है जहाँ बिंब-वृतांत, स्मृति-स्वप्न, अनुभूति-यथार्थ आदि प्रत्यय अपनी सघनता में सुंदर विन्यास का प्रतिरूप लगते हैं। उनकी ‘बूढ़ानाथ की औरतें’, ‘अपने घर’, ‘भय’, सभागार में’, ‘माँ का हाथ’, ‘अनिंदों दा के साथ’, ‘मंच पर’, ‘वॉन गॉग के अंतिम आत्मचित्र से बातचीत’, ‘यह हँसी बहुत कुछ’, ‘छतरियाँ’, ‘बाईस जनवरी’ आदि कविताएँ मोनोलॉग में लिखी प्रतीत होती है। इन कविताओं में भावों की शुद्धता और गहरे आशावाद के साथ ही संसार को देखने का एक नया दृष्टिकोण भी सन्निहित है। घुप्प अँधेरे में उम्मीद की एक किरण और अंधकार को चीरने के लिए एक रोशनी कवि के अंतर्मन में चल रहे बेचैनी को ही नहीं दिखाती है, बल्कि जीवन के वास्तविक अर्थ को भी बताती है : 

मुझे अचानक दिखाई दिये कहीं खिले हुए कुछ फूल 
और तभी कोई लालटेन का शीशा साफ़ कर 
उसे जलाकर रख गया था।

ये पंक्तियाँ जीवन में पुनः विश्वास भरने वाली पंक्तियाँ हैं।

अनीता वर्मा की दृष्टि उन नीतियों अथवा कूटनीतिक रवायतों पर भी जाती है, जो स्वतंत्रता और आज़ादी के नाम पर पुनः स्त्री-पुरुष संबंधों को जटिलतम बनाने पर तुली हुई है। बाज़ार और पूँजी ने स्त्री-देह का इस्तेमाल कर उन्हें एक उत्पाद में बदलते हुए उनकी भूमिका को रसोई; बिस्तर और लालन-पालन में सन्नद्ध कर दिया है। टेलीविजन और विज्ञापन की चमकदार प्रस्तुति पूँजीवादी पितृसत्ता की नई खोल है और शोषण की नवीन पद्धति। ‘ख़ुशी के रहस्य’, ‘स्त्री का चेहरा’, ‘निर्णय’, ‘ईर्ष्या’, ‘स्त्रियों से’, ‘विज्ञापन’ और ‘इस्तेमाल’ आदि कविताओं में पूँजीवादी पितृसत्ता में अनुकूलित हो चुकी स्त्री का चेहरा साफ़ दिखता है, जिसमें स्त्री से अधिक पुरुषवादी आग्रहों को दिखाया जाता है। नवउदारवादी नीतियों एवं उद्योग संस्कृति में किसी भी सामग्री को बेचने या ख़रीदने या उसे घर-घर पहुँचाने का माध्यम स्त्री ही बनती है। परदे पर स्त्री की छवि को इस तरह गढ़ा जाता है, जैसे वह उत्पाद के साथ-साथ स्वयं को भी बेच रही हो। सारा ध्यान स्त्री के देह व उसके अंग विशेष अथवा यौवन/रूप सौंदर्य पर ही होता है। ‘विज्ञापन’ और ‘इस्तेमाल’ कविता में कवि उस फूहड़ता और कुंठित मानसिकता को उजागर करती है, जो लगातार परदे के पीछे से इसे परोस रहा होता है। आज ‘विज्ञापन’ ने पूरी सभ्यता-संस्कृति को बाज़ार के अनुकूल व्यवहार करने के लिए बाध्य कर दिया है। आप क्या खाएँगे, कैसे खाएँगे, क्या पसंद करेंगे, क्या ख़रीदना है, कैसे चलना है, क्या बोलना है... आदि सभी व्यक्ति मन के प्रश्नों पर उनका पहरा है और हम उनके अभ्यस्त हो चुके हैं। विज्ञापन हमारी भावनाओं का समुचित व्यापार करता है :

आप दूध पियेंगे तो पहले देखिए उसके तरीके 
... ... ...     ... ... ...     ... ... ...  

वह जो चाय के बारे में बता रही है नई-नई बहू 
उसने आज़माए हैं उम्र कम करने के नुस्ख़े
... ... ...     ... ... ...     ... ... ...

फोड़ देते हैं परदे पर चायदानी यह निषेध का विस्फोट है 
सब कुछ दिखता है कहकर भी परदे के पीछे का
सच नहीं दिखाया जाता।


मौजूदा दौर में विज्ञापन सबसे मज़बूत माध्यम है। एक सिरे से झूठ की आँधी चलाई जाती है। दिन भर में सैकड़ों बार हमें बताया जाता है कि हम बदसूरत हैं, हममें यह कमी है, हम असफल हैं आदि-आदि और आप यह प्रोडक्ट प्रयोग करें सफलता, सुंदरता व समृद्धि आपके क़दमों में। एक ही विज्ञापन में, एक ही थीम को हज़ारों बार महीनों तक दोहराया जाता है; ताकि मानव-मस्तिष्क उसके लिए अनुकूलित हो जाए। शृंगार, हास्य, व्यंग्य, प्रेम, घृणा, जुगुप्सा आदि रस के जितने भी भाव-अनुभाव हैं; वे सभी एक ही विज्ञापन में समादृत होते हैं। विज्ञापन को और भी आकर्षक बनाने के लिए स्त्री-देह और उसके कामुक रूप-सौंदर्य का इस्तेमाल किया जाता है। परदे पर चल रहा यह धुरखेल परिवार-समाज की कटुता को दूर करने के बजाय उसमें प्रतिस्पर्धा ला देता है। इस कविता की अंतिम पंक्ति उस पराकाष्ठा को उजागर करती है, जहाँ संवेदनाएँ भी बाज़ार की ग़ुलाम हो जाएँगी :

कुछ दिनों बाद शायद बनाए जाएँ विज्ञापन 
ख़रीदिए एक पूरा आदमी
भाव प्रेम और संवेदना से भरपूर।   


इसी तरह ‘इस्तेमाल’ कविता में स्त्री-देह के इस्तेमाल पर कवि का कटाक्ष उस षड्यंत्र को सामने लाता है, जिसकी शिकार स्त्रियाँ भी हो रही है। बाजार ने मनुष्य के भीतर पैठी काम-वासना को बुरी तरह से उत्तप्त किया है :

वह फैली हुई थी समूचे घर में 
... ... ...     ... ... ...     ... ... ... 

अब बाज़ार स्त्री के क़दमों में है 
उसके केश सहलाता उतारता कपड़े 
सामान कोई भी हो बेच जाती है हमेशा 
वह बाज़ार को ले आती है घर में
... ... ...     ... ... ...     ... ... ...  

ख़रीदनी है अगर दवा तो देखो स्त्री को 
दर्द से ज़्यादा असरदार है उसकी कमर 
तेल से ज़्यादा सुंदर हैं केश कपड़ों से ज़्यादा देह।

बाज़ारवाद का यह भयावह चेहरा प्रायः अप्रत्याशित शोरगुल और चकाचौंध में छिप जाता है। इस चकाचौंध में प्रेम-परिवार, परंपरा-संस्कृति, रिश्ते-नाते आदि सब बिकाऊ हैं, सबकी एक क़ीमत है और एक क्षण की ख़ुशी, जिसके पश्चात घोर उदासी और मानसिक यातना के अतिरिक्त कुछ हाथ नहीं लगता। विज्ञापन व जनसंचार माध्यमों ने स्त्रियों के बीच रंगभेद की एक गहरी लकीर खींच दी है, जिससे बहनापा का भाव कुंद पड़ता जा रहा है। कवि की सूक्ष्म दृष्टि घर और संबंधों में घुस आई बाज़ारवादी प्रवृत्तियों को सामाजिक, राजनीतिक व आर्थिक दृष्टि के साथ ही पर्यावरणीय दृष्टि से भी देखती है। विकास की अंधी दौड़ और उद्योग संस्कृति की विनाशकारी नीतियों ने हज़ारों-लाखों लोगों को विस्थापित किया, उनके संसाधनों पर क़ब्ज़ा कर पर्यावरण को गहरी हानि पहुँचाई है। स्त्री-देह का बाज़ारीकरण हो या अमीर-ग़रीब की बढ़ती खाई या बूढ़े-बच्चों-स्त्रियों और दलितों के साथ होने वाले अन्यायों तथा क्रूरताओं आदि पर उनका एक अपना पक्ष है। पितृसत्ता के हिमायती और पुरुष वर्चस्व वाले इस समाज में मनुष्य एक नागरिक न होकर उपभोक्ता भर रह गया है। 

अनीता वर्मा की कविताओं का एक दूसरा पक्ष भी है। वह है उनकी आंतरिक संसार की निर्मिति। यहाँ वे दर्शन, रहस्य और उन भावों का अन्वेषण करती हैं, जिससे एक मानव हृदय पल-पल संचालित होता है। यहाँ उनकी संवेदना के घेरे में स्त्रियाँ, बच्चे-बूढ़े, उनका स्थानीय परिवेश आदि के साथ ही हृदयगत भावों का चित्रांकन हुआ है। कई कविताओं में स्वयं की उपस्थिति भी उनके तादात्म्य भाव को ज़ाहिर करती है। ‘प्रार्थना’, ‘प्रेम’, ‘व्यर्थ’, ‘अभी’, ‘भीतर’, ‘पानी के दरवाज़े’, ‘खेल’, ‘वह’, ‘विकलता’, ‘सुंदरता’, ‘अवसान’, ‘पृथ्वी के ऊपर’, ‘जुलाई’, ‘चुंबन’, ‘स्पर्श’, ‘लक्ष्यहीन’, ‘इसी तरह’ और ‘न बोलो’ आदि कविताओं का स्वर समकालीन हिंदी कविता में लीक से हटकर है। इन कविताओं की बिंबधर्मिता हृदयगत भावों को समझने का एक ज़रिया है। इसी तरह की कविताओं पर टिप्पणी करते हुए कवि-आलोचक विष्णु खरे लिखते हैं : “चित्रांकन और बिंबसृष्टि अनीता वर्मा को बहुत आकृष्ट करते लगते हैं और वह कभी-कभी अभिव्यक्तिवादियों-बिंबवादियों-प्रतीकवादियों की तरह उनके तर्कातीत सौंदर्य के लिए एक निजी, स्वायत्त, परिष्कृत भाषा के प्रयोग का ख़तरा उठा लेती हैं और हिंदी की नई उद्रेक-क्षमता को उजागर करती हैं। लेकिन ऐसी कविता में हर्ष-विषाद तथा प्रेम की अनूठी, यथार्थ अभिव्यक्तियाँ भी है।’’ 

एक मननशील आत्माभिव्यक्ति इन कविताओं को ख़ास बनाती है, इस संकल्प के साथ कि दुनिया में तमाम जहालतों के बावजूद दुनिया को सुंदर बनाने की, मनुष्यता को बचाने की ताकीद करनी ही है :

जब कुछ ही समय बाद डूब जाएगी यह पूरी सदी 
बीज और घास की क़िस्में हमें पुख़्ता कर लेनी हैं।

मनुष्यता को बचाने की एकमात्र राह प्रेम ही है। कवि की चेतना में नफ़रती उबार फैलाने वालों तत्त्वों और हिंसक हो चुकी विचार-पद्धति का कोई स्थान नहीं है। वह ‘पृथ्वी’ की विराटता को मातृहृदय के रूप में देखती हैं तो बलात्कृता लड़की की निगाह से हिंसक दुनिया को। मनुष्यता को बचाने के लिए वह बार-बार पुराने संबंध तलाशती है :

नई परिभाषाओं की भीड़ में 
सँभाले जाने चाहिए पुराने संबंध 
नदी और जंगल के 
रेत और आकाश के 
प्यार और प्रकाश के। 

घृणा, पाखंड, अविश्वास, बर्बरता आदि को प्रेम और उदारता के आग्रह से ही बदला जा सकता है। आत्माभिव्यक्ति के ऐसे सैकड़ों उद्गार अनीता वर्मा की सूक्ष्म दृष्टि व भाव-संवेदना का द्योतक है। विषय आत्मगत हो या वस्तुगत अनीता वर्मा का कवि मन प्रत्यक्ष से अधिक परोक्ष को उद्घाटित करता है। सवाल जेंडर संबंधी हो या स्त्रियों की सामाजिक भूमिका अथवा लिंग वर्चस्व आदि मुद्दों को कवि उसे सांस्कृतिक विमर्श का रूप देना चाहती हैं। इसलिए बाहर और भीतर निरंतर एक आत्मसंघर्ष जारी रहता है : 

आईने की तरह है स्त्री का चेहरा 
जिसमें पुरुष अपना चेहरा देखता है 
बाल सँवारता है मुँह बिचकाता है 
अपने ताक़तवर होने की शर्म छिपाता है

‘अपना पेड़’, ‘देखते हुए’, ‘मैं खोजती हूँ’, ‘अपनी तरह’, ‘निर्णय’, ‘बहस’, ‘निर्णायक’, ‘कहीं और’, ‘दोष’, ‘अभी’, ‘तर्पण’, ‘बलात्कार’, ‘पृथ्वी’, ‘एक दुर्घटना और’ आदि कविताएँ स्त्रीत्व-बोध से जनतांत्रिक बोध की यात्रा करती कविताएँ हैं। इनमें स्त्रीत्व के परिसर के विस्तार व सहअस्तित्व के भाव को सहजता से जाना जा सकता है। इन कविताओं की पंक्तियाँ भारतीय समाज के परिवेश को दिखाते हुए आम जनजीवन की बदहाली व चुनौतियों को भी समेटती है। स्त्री-पक्षधरता की परिसीमा को विस्तार देते हुए कवि ने एक अंतरंग रिश्ता क़ायम किया है। जिजीविषा उसका मूल भाव है :

जो कहते हैं कि वे ख़ुश हैं 
उन्हें देख उदास हो जाता है मन 
झूठ अपने मुलम्मे में भी दिख जाता है 
जिन सफ़ेद फूलों के सपने देखे थे 
वे अब भी सिरहाने आ बैठते हैं 
दूर बहता पानी और हिम शिखर 
वह सब अच्छा लगता है 
जो उपस्थित नहीं होता। 

समकालीन हिंदी कविता के वैविध्य भरे संसार में अनीता वर्मा की कविताएँ सामाजिक यथार्थ के नए शेड्स को मुखरता से व्यक्त करती हैं। कविता और जीवन को निर्विकार या रहस्य बनाने वाली विचार पद्धति से अलग उसे चिंतन के केंद्र में लाना अनिवार्य है, तभी हम उसके होने के अर्थ को समझ पाएँगे :

रहस्यों को समझने से ज़्यादा ज़रूरी है 
चीज़ों के होने को समझना 
मज़बूती से खड़े हैं पहाड़ 
समुद्र में आता है ज्वार 
पृथ्वी घूमती है लट्टू की तरह 
मनुष्य गिरता जाता है गर्त में

उक्त पंक्तियाँ न सिर्फ़ आलोचनात्मक दृष्टि की परिचायक हैं, बल्कि सभ्यता के बर्बर पहलुओं के क्रम को समझने की एक दृष्टि भी देती हैं। सामाजिक-राजनीतिक वर्चस्व की दुर्नीतियों ने प्रकृति में मनुष्य की सत्ता को कमज़ोर कर उसे हिंसक पशु में परिवर्तित कर दिया है। कवि की चेतना इस हिंसाविह्वल परिवेश के विरुद्ध सामाजिक सौहार्द और मानवीय सहानुभूति का संचार करने को तत्पर है।

काव्य-भाषा एवं शिल्प-प्रयोग के स्तर पर अनीता वर्मा की कविताएँ कला एवं मानवता को वैश्विक संदर्भों से जोड़ती है। वाक्य-विन्यास और शब्द-चयन में अतिरेक या जल्दबाज़ी नहीं दिखती, एक शांत-मंथर भाव-बिंब उनकी कविताओं को विशिष्ट बनाता है। कवि-आलोचक पंकज चतुर्वेदी उनकी काव्य-भाषा की सादगी पर महत्त्वपूर्ण टिप्पणी करते हैं : “ख़ास बात यह है कि उन्होंने अभिव्यक्ति की एक चटक, अलंकृत या दबावदार शैली का मोह संवरण करते हुए भरसक सादा गंभीर और गरिमामय ढंग को अपनाया है। उनकी कविता में एक पारदर्शी और मननशील संवेदना का ताज़गी भरा संस्पर्श है। इसलिए प्रकृति के दुर्लभ दृश्यों की ओर उनकी निगाह जा पाती है और आत्मा के अब तक अदेखे या अनजान रह गए आयामों की ओर भी’’

प्रकृति के दुर्लभ दृश्यों के साथ-साथ हृदय के अंतःस्थलों के भाव-बिंबों को कविता में पिरोती अनीता वर्मा की काव्य-भाषा समसामयिक काव्य-मुहावरों को एक चुनौती देती है। उनकी काव्य-संवेदना का मूल उत्स उनकी पारदर्शी भाषा-शैली है, जो जीवन के रहस्यों को पूरी बेबाकी से खोलती है।

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संदर्भ-पुस्तकें

1. एक जन्म में सब, अनीता वर्मा, संस्करण : 2003, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
2. रोशनी के रास्ते पर, अनीता वर्मा, संस्करण : 2008, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली 
3. बीसवीं सदी का हिंदी महिला-लेखन, संपादक : अनामिका, संस्करण : 2015, साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली

         

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