दयानंद सरस्वती के उद्धरण


मनुष्य उसी को कहना कि मननशील होकर स्वात्मवत् अन्यों के सुख-दुःख और हानि-लाभ को समझे, अन्यायकारी बलवान से भी न डरे और धर्मात्मा निर्बल से भी डरता रहे।
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जैसे ईश्वर के गुण, कर्म, स्वभाव पवित्र हैं, वैसे अपने करना, ईश्वर को सर्वव्यापक, अपने को व्याप्त जान के ईश्वर के समीप हम और हमारे समीप ईश्वर है, ऐसा निश्चय योगाभ्यास से साक्षात करना उपासना कहाती है, इसका फल ज्ञान की उन्नति आदि है।
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जो स्वयं धर्म में चलकर सब संसार को चलाते हैं, जिससे आप और सब संसार को इस लोक अर्थात् वर्तमान जन्म में, परलोक अर्थात् दूसरे जन्म में स्वर्ग अर्थात् सुख का भोग करते कराते हैं, वे ही धर्मात्मा जन संन्यासी और महात्मा हैं।
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वस्तुतः जब तीच उत्तम शिक्षक अर्थात् एक माता, दूसरा पिता और तीसरा आचार्य होवे तभी मनुष्य ज्ञानवान् होता है।
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जीव चाहे जैसा साधन कर सिद्ध होवे तो भी ईश्वर की जो स्वयं सनातन अनादि सिद्धि है, जिसमें अनंत सिद्धि हैं, उसके तुल्य कोई भी जीव नहीं हो सकता। क्योंकि जीव का परम अवधि तक ज्ञान बढ़े तो भी परिमित ज्ञान और सामर्थ्यं वाला होता है। अनंत ज्ञान और सामर्थ्य वाला कभी नहीं हो सकता। देखो कोई भी योगी आज तक ईश्वरकृत सृष्टिक्रम को बदलने वाला नहीं हुआ है और न होगा।
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जो बलवान होकर निर्बल की रक्षा करता है, वही मनुष्य कहलाता है और जो स्वार्थवश परहानि मात्र करता है वह जानो पशुओं का भी बड़ा भाई है।
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संबंधित विषय : मनुष्य
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सोने, चाँदी, माणिक, मोती, मूँगा आदि रत्नों से युक्त आभूषणों के धारण कराने से मनुष्य की आत्मा सुभूषित कभी नहीं हो सकती क्योंकि आभूषणों के धारण करने से केवल देहाभिमान, विषयासक्ति और चोर आदि का भय तथा मृत्यु भी संभव है।
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इसका फल यह है कि जैसे परमेश्वर के गुण हैं, वैसे गुण, कर्म, स्वभाव अपने भी करना। जैसे वह न्यायकारी है तो आप भी न्यायकारी होवें। और जो केवल भांड के समान परमेश्वर के गुणकीर्तन करता जाता है और अपना चरित्र नहीं सुधारता, उसका स्तुति करना व्यर्थ है।
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संबंधित विषय : ईश्वर
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