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प्रेमचंद के उद्धरण

मैं प्रकृति का पुजारी हूँ और मनुष्य को उसके प्राकृतिक रूप में देखना चाहता हूँ, जो प्रसन्न होकर हँसता है, दुखी होकर रोता है और क्रोध में आकर मार डालता है। जो दुःख और भुख दोनों का दमन करते हैं, जो रोने को कमज़ोरी और हँसने को हल्कापन समझते हैं, उनसे मेरा कोई मेल नहीं। जीवन मेरे लिए आनंदमय कीड़ा है। सरल, स्वच्छंद, जहाँ कुत्सा, ईर्ष्या, और जलन के लिए कोई स्थान नहीं।