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गजानन माधव मुक्तिबोध के उद्धरण

जिस प्रकार हम संवेदनात्मक ज्ञान तथा ज्ञानात्मक संवेदन द्वारा; बचपन से ही बाह्य जीवन-जगत् को आत्मसात् कर उसे मनोवैज्ञानिक रूप देते आए हैं, उसी तरह हम इस आत्मसात्कृत, अर्थात् मन द्वारा संशोधित-संपादित-संस्कारित-गणित-पुनर्गठित, जीवन-जगत् को बाह्म रूप भी देते हैं।