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रवींद्रनाथ टैगोर के उद्धरण

जगत से मन अपनी चीज़ संग्रह कर रहा है, उसी मन से विश्व-मानव-मन फिर अपनी चीज़ चुनकर, अपने लिए गढ़े ले रहा है।

अनुवाद : अमृत राय