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गजानन माधव मुक्तिबोध के उद्धरण

छायावाद और प्रगतिवाद के बाद कोई ऐसी व्यापक मानव-आस्था मैदान में नहीं आई, जो जीवन को विद्युन्मय कर दे—मेरा मतलब साहित्यिक मैदान से है।