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श्रीधर पाठक

1860 - 1928 | फ़िरोज़ाबाद, उत्तर प्रदेश

द्विवेदी युग के कवि-अनुवादक। स्वच्छंद काव्य-धारा के प्रवर्तक।

द्विवेदी युग के कवि-अनुवादक। स्वच्छंद काव्य-धारा के प्रवर्तक।

श्रीधर पाठक के दोहे

चरन-चपल-धरनी-धरनि, फिरनि चारु-दृग-कोर।

सुगढ़ गठनि बैठनि उठनि, त्यों चितवनि चित चोर॥

अनियारे आयत बड़े, कजरारे दोउ नैन।

अचक आय जिय में गड़े, काढ़ैं ढीठ कढ़ैं न॥

  • संबंधित विषय : आँख

सहज बंक-भ्रकुटी-फुरनि, बात करन की बेर।

मृदु निशंक बोलनि हँसनि, बसी आय जिय फेर॥

रसना को रस ना मिलै, अनत अहो रसखान।

कान सुनैं नहिं आन गुन, नैन लखैं नहिं आन॥

निहचै या संसार में, दुर्लभ साँचौ नेह।

नेह जहाँ साँचौ तहाँ, कहाँ प्रान कहाँ देह॥

aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

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