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रघुराजसिंह

1823 - 1879 | रीवा, मध्य प्रदेश

रीतिकालीन कवि और रीवां नरेश विश्वनाथसिंह के पुत्र।

रीतिकालीन कवि और रीवां नरेश विश्वनाथसिंह के पुत्र।

रघुराजसिंह के दोहे

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यदुपति कटि की चारुता, को करि सकै बखान।

जासु सुछवि लखि सकुचि हरि, रहत दरीन दुरान॥

उर अनुपम उनको लसै, सुखमा को अति ठाट।

मनहु सुछवि हिय भरि भये, काम शृंगार कपाट॥

यदुपति नैन समान हित, ह्वै बिरचै मैन।

मीन कंज खंजन मृगहु, समता तऊ लहै न॥

हरिनासा को सुभगता, अटकि रही दृग माँह।

कामकीर के ठौर की, सुखमा छुवति छाँह॥

सविता दुहिता श्यामता, सुखसरिता नख ज्योति।

सुतल अरुणता भारती, चरण त्रिवेणी होति॥

विलसति यदुपति नखनितति, अनुपम द्युति दरिशाति।

उडुपति युत उडु अवलि लखि, सकुचि-सकुचि दुरिजाति॥

पद्मनाभ के नाभि की, सुखमा सुठि सरसाय।

निरखि भानुजा धार को, भ्रमि-भ्रमि भंवर भुलाय॥

गोल कपोल अतोल है, छाये सुछवि अमान।

मदन आरसी रसपसर, सम शर करत अजान॥

यदुपति मौहन की सुछवि, मदन धनुष की सोभ।

जीति लसतहै तिनहिं लखि, दृग टरत रतलोभ॥

युगल जानु यदुराज की, जोहि सुकवि रसभीन।

कहत भार शृंगार के, सपुट द्वै रचि दीन॥

देवकीनंदन कठ को, रच्यो विधि उपमान।

जे जड़ दरको पटतरहिं, तिन सम जड़ जहान॥

कामकरभ कर उरग वर, रस शृंगार द्रुम डार।

भुजनि जोहि जदुवीर के, देव पराभव पार॥

उरू सलोने श्याम के, निरखत टरत नैन।

जैतखभ शृंगार के, मानहु विरच्यो मैन॥

लली कान्ह रोमावली, भली बनी छवि छाय।

मनहु काम शृंगार की, दीन्ही लीक खचाइ॥

मनमोहन के नैन वर, वरणि कौन विधि जाहि।

कंज खंज मृग मैन शर, मीनहु जेहि सम नाहिं॥

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लाली ये ही लाल की, अति अनुपम दरशाहिं।

काम बाग की नारंगी, सम कहि कवि सकुचाहिं॥

ग्रीवा गिरिधरलाल की, अनुपम रही बिराजि।

निरखि लाज उर दरकि दर, बस्यो उदधि मह भाजि॥

वर दामोदर को उदर, जेहि नहिं समता पाइ।

नवल अमल बल दल सुदल, डोलत रहत लजाइ॥

भालपटलि नगवंत की, भनति भारती नीठि।

वशीकरन जपकरन की, मनमनोज सिधि पीठि॥

भौंह वरुण यदुराज की, रही अपूरुब सोहि।

करहिं लजोहै कामधनु, शरमन लवै पोहि॥

श्री यदुपति के भुज युगल, छाजि रहे छवि भौन।

निरखत जिनहिं भुजंगवर, लजि पताल किय गौन॥

चारु चरण की आँगुरी, मो पै वरणि जाइ।

कमल-कोश की पाँखुरी, पेखत जिनहि लजाइ॥

अति अनुपम कहि जाति नहिं, युगल जांघ की ज्योति।

जिनहि जोहि कलकलभ को, शुंड कुंडलित होति॥

कल किशलय कोमल कमल, पदतल सम नहिं पाय।

यक सोचत पियरात नित, यक सकुचतु झरि जाय॥

गुलुफ-गुलुफ खोलनि हृदय, हो तौ उपमा तूल।

ज्यों इंदीवर तट असित, द्वै गुलाब के फूल॥

बाललाल के भाल में, सुखमा बसी बिशाल।

सुछवि भाल शशि अरघ ह्वै, निरखत होत बिहाल॥

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