Dhruvdas's Photo'

ध्रुवदास

कृष्ण-भक्त कवि। गोस्वामी हितहरिवंश के शिष्य। सरस माधुर्य और प्रेम के आदर्श निरूपण के लिए स्मरणीय।

कृष्ण-भक्त कवि। गोस्वामी हितहरिवंश के शिष्य। सरस माधुर्य और प्रेम के आदर्श निरूपण के लिए स्मरणीय।

ध्रुवदास के दोहे

30
Favorite

श्रेणीबद्ध करें

प्रेम-रसासव छकि दोऊ, करत बिलास विनोद।

चढ़त रहत, उतरत नहीं, गौर स्याम-छबि मोद॥

रसनिधि रसिक किसोरबिबि, सहचरि परम प्रबीन।

महाप्रेम-रस-मोद में, रहति निरंतर लीन॥

कहि सकत रसना कछुक, प्रेम-स्वाद आनंद।

को जानै ‘ध्रुव' प्रेम-रस, बिन बृंदावन-चंद॥

फूलसों फूलनि ऐन रची सुख सैन सुदेश सुरंग सुहाई।

लाड़िलीलाल बिलास की रासि पानिप रूप बढ़ी अधिकाई॥

सखी चहूँओर बिलौकैं झरोखनि जाति नहीं उपमा ध्रुव पाई।

खंजन कोटि जुरे छबि के ऐंकि नैननि की नव कुंज बनाई॥

दोहा-नवल रंगीली कुंज में, नवल रंगीले लाल।

नवल रंगीली खेल रचो, चितवनि नैन बिशाल॥

जिनके जाने जानिए, जुगुलचंद सुकुमार।

तिनकी पद-रज सीस धरि, 'ध्रुव' के यहै अधार॥

कुँवरि छबीली अमित छवि, छिन-छिन औरै और।

रहि गये चितवत चित्र से, परम रसिक शिरमौर॥

प्रेम-तृषा की ताप 'ध्रुव', कैसेहुँ कही जात।

रूप-नीर छिरकत रहैं, तऊँ नैन अघात॥

हरिबंस-चरन 'ध्रुव' चितवन, होत जु हिय हुल्लास।

जो रस दुरलभ सबनि कों, सों पैयतु अनयास॥

जिनके हिय में बसत हैं, राधावल्लभ लाल॥

तिनकी पदरज लेइ 'ध्रुव, पिवत रहौ सब काल॥

बृंदावन रसरीति रहै बिचारत चित्त 'ध्रुव'।

पनि जैहै वय बीति, भजिये नवलकिसोर दोउ॥

सुख में सुमिरे नाहिं जो, राधावल्लभलाल।

तब कैसे सुख कहि सकत, चलत प्रान तिहिं काल॥

जिन नहिं समुझ्यौ प्रेम यह, तिनसों कौन अलाप॥

दादुर हूँ जल में रहैं, जानै मीन-मिलाप॥

या रस सों लाग्यो रहै, निसिदिन जाकौ चित्त।

ताकी पद-रज सीस धरि, बंदत रहु 'ध्रुव' नित्त॥

निसि-बासर मग करतली, लिये काल कर बाहि।

कागद सम भइ आयु तब, छिन-छिन कतरत ताहि॥

और सकल अघ-मुचन कौ, नाम उपायहिं नीक।

भक्त-द्रोह कौ जतन नहिं, होत बज्र की लीक॥

भूलिहुँ मन दीजै नहीं, भक्तन निंदा ओर।

होत अधिक अपराध तिहिं, मति जानहु उर थोर॥

झूलत-झूमत दिन फिरै, घूमत दंपति-रंग।

भाग पाय छिन एक जो, पैहै तिनको संग॥

मन अभिमान कीजिए, भक्तन सो होइ भूलि।

स्वपच आदि हूँ होइँ जो, मिलिए तिनसों फूलि॥

जिहि तन कों सुर आदि सब, बाँछत है दिन आहि।

सो पाये मतिहीन ह्वै, वृथा गँवावत ताहि॥

हौं तो करि विनती दियो, कंचन काँच बताई।

इनमें जाको मन रुचै, सोई लेहु उठाइ॥

ब्रजदेवी के प्रेम की, बँधी धुजा अति दूरि।

ब्रह्मादिक बांछत रहैं, तिनके पद की धूरि॥

निंदा भक्तन की करै, सुनत जौन अघ रासि।

वे तो एकै संग दोउ, बँधत भानु सुत पासि॥

दंपति-छबि सों मत्त जे, रहत दिनहिं इक रंग॥

हित सों चित चाहत रहौं, निसि-दिन तिनको संग॥

सकल बयस सतकर्म में, जो पै बितई होइ।

भक्तन कौ अपराध इन, डारत सबको खोइ॥

रे मन प्रभुता काल की, करहु जतन है ज्यों न।

तू फिरि भजन-कुठार सों, काटत ताहीं क्यों न॥

दुरलभ मानुष-जनम ह्वै पैयतु केहूँ? भाँति।

सोई देखौ कौन बिधि, बादि भजन बिनु जाति॥

वह रस तो अति अमल है, रहै बिचारत नित्त।

कहत-सुनत 'ध्रुव' ‘भजन-सत, दृढ़ता ह्वैहैं चित्त॥

महा मधुर सुकुँवार दोउ, जिनके उर बस आनि।

तिनहूँ ते तिनकी अधिक, निहचै कै 'ध्रुव' जानि॥

विषई जल में मीन ज्यों, करत कलोल अजान।

नहिं जानत ढिंग काल-बस, रह्यौ ताकि धरि ध्यान॥

भक्तन देखे अधिक है, आदर कीजै प्रीति।

यह गति जो मन की करै, जाइ सकल जग जीति॥

ज्यों मृग-मृगियन-जूथ संगफिरत मत्त मन बाँधिरे।

जानत नाहिन पारधी रह्यौ काल सर साधि॥

सेवा करतहिं भक्तजन, होइ प्राप्त जो आइ।

सो सेवा तजि बेगिहीं, अरजहु तिनकों जाइ॥

सेवा अरु तीरथ-भ्रमन, फलतेहि कालहि पाइ।

भक्तन-संग छिन एक में, परमभक्ति उपजाइ॥

पुरुष सोइ जो पुरिष सम, छाँड़ि भजै संसार।

बियन भजन दृढ गहि रहै, तजि कुटुम्ब परिवार॥

aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

Recitation

जश्न-ए-रेख़्ता (2023) उर्दू भाषा का सबसे बड़ा उत्सव।

पास यहाँ से प्राप्त कीजिए