संपूर्ण
परिचय
दोहा10
गीत4
ई-पुस्तक3
पद17
सबद1
सवैया3
वीडियो1
यात्रा वृत्तांत4
नाटक1
निबंध2
उद्धरण1
मुकरियाँ1
व्यंग्य5
भारतेंदु हरिश्चंद्र के दोहे
प्रेम प्रेम सब ही कहत प्रेम न जान्यौ कोय।
जो पै जानहि प्रेम तो मरै जगत क्यों रोय॥
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लोक-लाज की गांठरी पहिले देइ डुबाय।
प्रेम-सरोवर पंथ में पाछें राखै पाय॥
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प्रेम सकल श्रुति-सार है प्रेम सकल स्मृति-मूल।
प्रेम पुरान-प्रमाण है कोउ न प्रेम के तूल॥
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सब दीननि की दीनता, सब पापिन को पाप।
सिमट आइ मों में रह्यो, यह मन समुझहु आप॥
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बिनु गुन जोबन रूप धन, बिनु स्वारथ हित जानि।
शुद्ध कामना तें रहित, प्रेम सकल रस-खानि॥
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जिन पाँवन सो चलत तुम, लोक वेद की गैल।
सो न पाँव या सर धरी, जल जै है मैल॥
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प्रेम सरोवर नीर है, यह मत कीजो ख्याल।
परे रहें प्यासे मरे, उलटी ह्याँ की चाल॥
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लोक लाज की गाँठरी, पहिले देइ डुबाय।
प्रेम सरोवर पंथ में, पाछें राखे पाय॥
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जामैं रस कछु होत है, पढ़त ताहि सब कोय।
बात अनूठी चाहिए, भाषा कोऊ होय॥
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प्रेम सकल श्रुतिसार है, प्रेम सकल स्मृति-मूल।
प्रेम पुरान प्रमाण है, कोउ न प्रेम के तूल॥
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