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माटी-कंकड़ और धान की बाली

mati kankaD aur dhaan ki bali

जनार्दन

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माटी-कंकड़ और धान की बाली

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    जतरा के बाद

    रायतार नाच के बाद

    गौरा चौरा से रौशनी फूटने लगी

    हवाएँ तेज़ बहने लगीं

    सिवान रहस्यमय होने लगा—

    अड़म, गड़म, अड़म, गड़म

    गोयंदाड़ी बजने लगा...

    हवाएँ रूप धरने लगीं

    सांप, बिच्छू और गोजर

    आकाश से झरने लगे

    बैलों की असंख्य जोड़ियाँ— नाचने लगीं

    विरान सिवान लहलहाने लगा

    सिंहों का झुँड गुर्राने लगा

    जंगल गुलजार हो गया

    सल्लाँ-गाँगरा, सल्लाँ-गाँगरा

    जै सेवा, जै सेवा से

    गूँज उठी धरती और गूँज उठा आकाश....

    एक हाथ में धान की बालियॉ

    एक हाथ में मंदशूल लिए

    हज़ारों फनधारी नागों के आगे-आगे

    बैल पर बिराजे

    पारी कुपार लिंगों चले रहे थे...

    सारे जीवधारी मौन होकर

    लिंगो के स्वागत में खड़े थे

    गौरा की चौरा पर

    माटी-पानी-कंकड़ और धान की बाली चढ़ाने के बाद

    अब तक अवाक खड़े भगत की ओर लिंगों मुड़े

    मुस्कराए और बोले—

    आप मानव हैं— डरें, ना डराएँ

    जै सेवा कल्याण मंत्र सबको बताएँ

    असीम शांति चारो और फैल गई

    मंद-मंद पवन बह रहा था

    पत्ते नाच रहे थे

    भगत ने आँख बंद किया

    हाथ जोड़ दिया

    जब आँख खुला— तो देखा—

    गौरा चौरा पर

    माटी-पानी-कंकड़ और धान की बाली पड़ी थी

    और आस-पास कुछ भी था...

    बस सिवान हँस रहा था...

    स्रोत :
    • रचनाकार : जनार्दन
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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