हिंदी का नाट्य साहित्य और उसकी गति
hi.ndii ka naaTy saahity aur uskii gati
पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी
Padumlal Punnalal Bakshi

हिंदी का नाट्य साहित्य और उसकी गति
hi.ndii ka naaTy saahity aur uskii gati
Padumlal Punnalal Bakshi
पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी
और अधिकपदुमलाल पुन्नालाल बख्शी
नाटक शब्द नट्−धातु से बना है। ‘नट’ नाच के अर्थ में प्रयुक्त होता है। अंग्रेज़ी में नाटक को ड्रामा कहते हैं। ड्रामा के लिए संस्कृत में नाटक की अपेक्षा ‘रूपक’ शब्द अधिक उपयुक्त है। ड्रामा का मूल शब्द इसी अर्थ का द्योतक है। ड्रामा उन रचनाओं को कहते हैं, जिनमें अन्य लोगों के क्रिया-कलाप का अनुकरण इस प्रकार किया जाता है मानो वही जूलियट सीज़र है। दूसरों का अनुकरण करना मनुष्य मात्र का स्वभाव है। बालक अपने माता-पिता का अनुकरण नहीं होता, मनुष्यों की हृदगत भावनाओं को अपना सुख−दुःख को अपना सुख−दुःख समझ लें। यही सहानुभूति है। यह भाव भी स्वाभाविक है। सच पूछा जाए, तो इसी के आधार पर मानव−समाज स्थिर है। यदि यह न रहे, तो मानव−समाज छिन्न−भिन्न हो जाए। अस्तु। हमारे कहने का तात्पर्य यह है कि नाटकों का मूल रूप मनुष्यों के अंतर्जगत् में विद्यमान है। बाह्य जगत में उसका विकास क्रमशः हुआ है।
नाटक और नाट्यकला में परस्पर संबंध है। नाटक के लिए नाट्य−कला आवश्यक है। परंतु नाटक स्वयं एक कला है, और उसकी उत्पत्ति मनुष्यों के अंतःकरण में होती है। बाह्य जगत में उसको प्रत्यक्ष कर दिखाना नाट्य−कला का काम है। नाटकों की गणना काव्यों में की जाती है। उन्हें दृश्य−काव्य कहते हैं, अर्थात् वे ऐसे काव्य हैं जिनमें एक कवि की कुशलता का हम प्रत्यक्ष अनुभव कर वाणी सुनते हैं। नाट्य−शाला शरीर है, और कवि उसकी आत्मा।
कुछ समय पहले लोगों की यह धारणा हो गई थी कि भारतीय नाटकों में ग्रीस−देश के नाटकों का अनुकरण किया गया है। इसकी पुष्टि के लिए हिंदू−नाटकों में प्रयुक्त यवनिका शब्द का उल्लेख किया जाता था, यद्यपि अभी तक इसी का निश्चय नहीं हुआ कि ग्रीक लोग यवनिका का उपयोग करते भी थे कि नहीं।
लोगों का यह समझना ठीक नहीं कि भारत में ग्रीक नाटकों का अनुकरण किया है। इसमें संदेह नहीं कि ग्रीस और भारत में ग्रीक नाटकों का अनुकरण किया है। इसमें संदेह नहीं कि ग्रीस और भारत ने परस्पर बहुत कुछ कर लिया−दिया है। पर ग्रीस ने भारम का अनुकरण किया है, ओर न भारत ने ग्रीस का। दोनों ने अपनी−अपनी प्रतिभा से अपने−अपने साहित्य की वृद्धि की है। ग्रीक और भारतीय नाटकों की ‘एकताओं’ की उपेक्षा की गई है। ग्रीक भाषा में दुखांत नाटक हैं, परंतु हिंदुओं के साहित्य में एक भी ऐसा नाटक नहीं। इतना हम ज़रूर कहेंगे कि हिंदू नाटकों के विदूशक को इंग्लैंड की रानी एल्जाबेथ के समय के नाटकों में, तथा रोमन नाटकों में भी क्लाउन का रूप प्राप्त हो गया है। क्लाउन कहते हैं भांड़ को। पीशल नाम के विद्वान का भी यही कहना है कि विदूषक के ही आदर्श पर यूरोप के नाटकों में बफून अर्थात् भांड़ की सृष्टि हुर्इ है।
हिंदू नाटकों की उन्नति प्राचीन काल में ही हो गई थी। मध्य एशिया में उपलब्ध एक ताड़पत्र के ग्रंथ से विदित होता है कि कुशान−राजा के काल में ही−जब मध्य एशिया भारतीय साम्राज्य के अंतर्गत था−हिंदू-नाटकों की श्रीवृद्धि हो गई थी। छठी शताब्दी में हिंदू लोग जावा द्वीप में बस गए थे। वहाँ के छाया नाटकों को देखकर हम जान सकते हैं कि हिंदू−नाटकों का कितना प्रभाव उन पर पड़ा है। बर्मा, श्याम और कंबोडिया में भी रंगमंच पर राम और बुद्ध के चरित्रों का अवलंबन करके लिखे गए नाटक खेले गए हैं। रामावतार का अभिनय तो मलायाद्वीप समूह में ही नहीं, चीन तक में किया गया था।
हिंदू नाटकों की श्रीवृद्धि का कारण यह है कि हिंदू-मात्र की दृष्टि में नाटकों का धार्मिक महत्व है। यूरोप में नाट्य-पाठशालाओं के प्रति अनेक बार घृणा प्रदर्शित की गई। उनका प्रचार भी रोका गया। धार्मिक ईसाइयों का यह विश्वास था कि लोगों को पाप-पथ पर ले जाने के लिए शैतान ने आमोद−प्रमोद की सृष्टि की है। रोम में नाटक खेलने वालों का कुछ भी आदर नहीं होता था। चीन में उनकी संतानों को यह अधिकार न था कि वे परीक्षाओं में बैठ सकें। पर हिंदू लोग नाट्यशास्त्रों को पंचम वेद मानते हैं। उनका विश्वास है कि भरत मुनि ने संसार के कल्याण के लिए उसका आविष्कार किया है।
सबसे प्राचीन नाट्यशास्त्र भरत मुनि का ही है। पाणिनी के समय में भी नाट्यशास्त्र प्रचलित थे। उन्होंने दो आचार्यों का उल्लेख किया है−‘शिलालीन’ और ‘कृशाश्च’। पतजंलि के समय में नाटक खेले जाते थे। उनके माहाभाष्य में कंस वध और बलि−बंधन के खेले जाने का साफ़−साफ़ उल्लेख है।
हिंदू-नाट्य-साहित्य का प्राचीनतम रूप देखने के लिए हमें वेदों आलोचना करनी चाहिए। ऋग्वेद के कई सूक्तों में कुछ संवाद हैं−जैसे यम और यमी का संवाद, पुरूरवा और उर्वशी का संवाद इत्यादि। इनकी गणना हम नाटकों में कर सकते हैं। पुरूरवा और उर्वशी का संवाद ही पुराणों में, कथा रूप में विस्तारपूर्वक वर्णित हुआ है और उसे ही कालिदास ने नाटक का रूप दिया है। जान पड़ता है, पहले−पहल नाटकों में सिर्फ़ संगीत ही रहता था। पीछे से उनमें संवाद (अर्थात् भाषण या कथोपकथन) जोड़े गए हैं। फिर इसके अनंतर, कदाचित उनमें कृष्णचरित का समावेश किया गया है। कुछ भी हो, इसमें तो संदेह नहीं कि बहुत प्राचीन काल में ही नाटकों का अभिनय होने लगा था।
हिंदू नाटककार कार्यों और विचारों की एकताओं का ख़ूब ख़याल रखते थे। उनके मर्मवाद ने सभी नाटकों की घटनाओं को कार्यकारिणी की श्रृंखला में बाँध रखा है। प्राचीन भारतीय साहित्य में संयोगांत और वियोगांत नाटक अलग−अलग नहीं थे। उनमें हर्ष और शोक के भाव मिश्रित रहते थे। रंगभूमि में अत्यंत शोकोत्पादक अथवा विचार−वर्द्धक दृश्य नहीं दिखलाए जाते थे, क्योंकि ऐसा करने से मन विकृत हो जाने का डर था। शोक की अपेक्षा नहीं की हाती थी; पर ज़ोर इस बात पर दिया जाता था कि शोक़ का सहन त्याग से किया जाना चाहिए। संसार जिन नियमों से बंधा है, वे हम लोगों के लिए श्रेयस्कर हैं।
प्रत्येक नाटक के आरंभ और अंत में आशीर्वादात्मक श्लोक रहते थे। उनका विषय प्रायः धार्मिक ग्रंथों से लिया जाता था। ग्रीक, जर्मन और अँग्रेज़ नाटककार प्रायः चरित्र−चित्रण में ही अपनी सारी शक्ति लगा देते हैं। उनका विषय है मनुष्य। हिंदू−नाटककारों का विषय है प्रकृति। उनके लिए प्रकृति ही यथार्थ में शिक्षा देने वाली है। यह कारण है कि हिंदू-नाटक प्रकृति संबंधी उत्सवों में खेले जाते थे। अधिकतर वसंत उत्सव में, जब विश्व−प्रकृति का नवजीवन आरंभ होता है। बिना दुःख के, बिना तपस्या के पवित्रता नहीं आती। बिना आत्म−त्याग के आत्मोन्नति नहीं होती। प्राचीन भारतीय नाटकों में यही भाव स्पष्ट करके दिखाया गया है।
(2)
हिंदी में मौलिक नाटकों की संख्या बहुत कम है। भारतेंदु जी के नाटक विद्यार्थियों के पाठ्य−ग्रंथ हो गए हैं। उनके सत्यहरिश्चंद्र और नीलदेवी के अभिनय भी हुए हैं। परंतु अब उनके अभिनय से दर्शकों को कदाचित् संतोष न हो। रणधीर प्रेममोहिनी, सज्जाद-संबुल, चंद्रकला-भानुकुमार आदि नाटक पुस्तकालय की ही शोभा बढ़ा सकते हैं। अभी हाल में जो दो−चार नाटक निकले हैं, वे बिल्कुल निस्सार हैं। प्रेमचंद्र जी का संग्राम अवश्य चित्ताकर्षक है। हिंदी में कुछ अच्छे नाटकों के अनुवाद भी हुए हैं।
बंबई के एक प्रकाशक ने द्विजेंद्रलाल राय के सभी नाटकों के अनुवाद करा डाले। इमनें हमारी समझ में, ‘उस पार’ सबसे अच्छा है और ‘पाषाणी’ सबसे निकृष्ट। पंडित रूपनारायण पाण्डेय ग़ज़ब के अनुवादक हैं। आप गद्य−पद्य दोनों अच्छी तरह लिख सकते हैं। ताराबाई आपकी पद्यात्मक रचना का नमूना है और उसमें आपको सफ़लता भी अच्छी मिली है। पर सभी नाटकों में आप अपना कमाल नहीं दिखा सके। दो−चार नाटकों में तो आपकी शक्ति बिल्कुल ही क्षीण हो गई है। ऐसा जान पड़ता है कि आपको अनुवाद करना था इसिलए किसी तरह उससे अपना पिंड छुड़ा लिया।
भारतवर्ष में अंग्रेज़ी शिक्षा के साथ−साथ शेक्सपियर का भी आगमन हुआ। यहाँ स्कूलों और कॉलेजों में शेक्सपियर के नाटक पढ़ाए जाते हैं। इसलिए शिक्षित लोगों में तो उसके नाटकों का प्रचार है, पर सर्व−साधारण में अभी तक उनका अच्छा प्रचार नहीं। नाटक सर्व−साधारण के लिए ही लिखे जाते हैं। यह खेद की बात है कि अभी भारतवर्ष के अधिकांश लोग शेक्सपियर के नाटकों का आस्वादन नहीं कर सकते। बंगाल में पहले-पहल शेक्सपियर के नाटकों के आधार पर कहानियों ओर उपन्यासों की रचनाएँ हुईं। विद्यासागर का भ्रांति-विलास, कविवर हेमचंद्र चट्टोपाध्याय का नलिन−वसंतन, दीनबंधु का मित्र का जलधर ओ वकेश्वर, हेमलेट का छायानुवाद हरिराज आदि ग्रंथ इसी कोटे के हैं। गिरीशचंद्र ने ही सबसे पहले मैकबेथ का अनुवाद बंगला में किया। उनका यह अनुवाद हुआ भी अच्छा। हाल में ही उथेलो का एक अच्छा अनुवाद, बंगला में, श्रीयुक्त देवेंदनाथ वसु ने किया है।
हिंदी में अभी तक शेक्सपियर के नाटकों का अच्छा अनुवाद नहीं निकला। बंबई और कलकत्ते की पारसी−नाटक मंडलियों ने शेक्सपिरय के कुछ नाटकों के भ्रष्ट अनुवाद ज़रूर कराए हैं। उनमें शेक्सपियर के नाटकों का बड़ा ही विकृत रूप देखने में आता है। बाबू गदाधर सिंह ने उथेलो को उपन्यास के ढंग पर लिखा है। भारतेंदु बाबू हरिश्चंद्र ने मर्चंट ऑफ़ वेनिस का अनुवाद किया है। उसी का एक अनुवाद बंबई से भी प्रकाशित हुआ है। इस प्रांत के एक लाला साहब ने भी नाटकों को हिंदी में लिख डाला है। काशी में हेमलेट का एक अनुवाद निकला है। उथेलों का भी अनुवाद प्रकाशित हुआ है। पुरोहित गोपीनाथ एम. ए. ने भी दो एक नाटकों का अनुवाद किया है। सिरसा, ज़िला इलाहाबाद के परलोकवासी बाबू काशीनाथ खत्री के लिखे हुए−कहानी के रूप में भी−कई नाटक विद्यमान हैं। इसके सिवा शेक्सपियर के नाटकों का कथा भाग उपन्यास के ढंग पर और भी कई महाशयों ने लिखा है। पर शेक्सपियर की प्रतिभा देखने के लिए ये लेख पर्याप्त नहीं। शेक्सपियर के नाटकों का सफलतापूर्वक अनुवाद कर लेना कठिन है। इसका सबसे बड़ा कारण है, उनके विदेशीय भाव। भारतवर्ष के समाज में और इंग्लैंड के समाज में बड़ी विभिन्नता है। वहाँ जो अनुचित नहीं वह यहाँ सर्वथा अयोग्य प्रतीत होता है। काशी के जिस हेमलेट के अनुवाद का हम ऊपर उल्लेख कर चुके हैं, उसे पढ़ने से यह बात भली−भाँति प्रकट हो जाती है कि लेखक उसमें हेमलेट की माता को विधवा-विवाह के दोष से विमुक्त करना चाहता है। फल उसका यह हुआ कि उसमें एक बहुत बड़ा सामाजिक दोष आ गया है। उससे वह और भी पतित हो गई है।
हिंदी के एकमात्र नाटककार जयशंकर प्रसाद हैं। प्रसाद जी कवि हैं, उपन्यास लेखक हैं, आख्यायिका लेखक हैं और नाट्यकार भी हैं। उनकी सभी रचनाओं में नवीनता है। उनकी भी शैली विशेषता से युक्त है। उनके सभी ऐतिहासिक चरित्रों में सजीवता है। भिन्न−भिन्न पात्रों की सृष्टि में उन्हें यथेष्ट सफ़लता मिली है। उनके अजातशत्रु और स्कंदगुप्त से हिंदी के स्थाई साहित्य की विशेष श्रीवृद्धि हुई।
- पुस्तक : बख्शी ग्रन्थावली खंड−4 (पृष्ठ 70)
- रचनाकार : हरीसाधन मुखोपाध्याय
- प्रकाशन : वाणी प्रकाशन
Additional information available
Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.
About this sher
rare Unpublished content
This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.