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मेघदूत में कालिदास का आत्मचरित

meghaduut me.n kaalidaas ka aatmachrit

पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी

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पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी

मेघदूत में कालिदास का आत्मचरित

पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी

और अधिकपदुमलाल पुन्नालाल बख्शी

    काव्य ही कवि का जीवन है। उसी में उसकी आत्मा निवास करती है। यदि हम किसी कवि का वास्तविक रूप देखना चाहते हैं तो हमें उसके काव्यों का अवलोकन करना चाहिए। उनसे हम कवि के जीवन के विषय में कुछ बातें अवश्य जान सकते हैं। कवि का किस पर अनुराग था, किससे घृणा थी, कब-कब उसे सुख-दुख का अनुभव करना पड़ा, ये सब बातें उसके ग्रंथो का अध्ययन ध्यानपूर्वक करने से प्रकट हो जाती हैं। कालिदास के विषय में बड़ी खोज की गई, पर अभी तक निश्चित रूप से कुछ भी ज्ञात नहीं हुआ। उसके स्थिति-काल के विषय में भी विद्वानों का बड़ा मतभेद है। कोई उन्हें ईसा के पहले विक्रमादित्य का समकालीन मानते हैं, तो कोई उन्हें राजा भोज का सभाकवि कहते हैं। उनकी जन्मभूमि का भी पता नहीं। कोई मालवा कहता है, तो कोई काश्मीर बतलाता है। अभी हाल में (प्रवासी) के एक लेखक ने उन्हें बंगाली प्रमाणित करने की चेष्टा की है। अस्तु, नीचे, मेघदूत के आधार पर उनके जीवन की कुछ बातें लिखी जाती हैं।

    कालिदास ने और भी नाटक और काव्य लिखे हैं। पर उनका आत्मचरित जानने के लिए मेघदूत ही का आकलन करना चाहिए। महाकाव्य और नाटक में कवि का कल्पनाक्षेत्र संकुचित रहता है। वह अपने हृदय के उद्गारों को भली भाँति व्यक्त नहीं कर सकता। इसीलिए रघुवंश और अभिज्ञान-शाकुंतन हमारे काम के नहीं। मेघदूत कवि की उपज है। उसमें उसकी कल्पना निर्बाध विचरण करती है। इसलिए उसमें उसके मनोविचार साफ़-साफ़ लक्षित होते हैं।

    कालिदास के स्थितिकाल का निर्णय करने में कुछ विद्वानों ने उनके ग्रंथों से गुप्तवंश के नरेशों के नाम उद्धृत कर के यह सिद्ध करने की चेष्टा की है कि कालिदास गुप्तवंशीय राजाओं के शासन-काल में विद्यमान थे। मेघदूत में भी एक श्लोक ऐसा ही है—

    तत्र स्कन्दं नियतवसतिं पुष्पमेघीकृतात्मा

    पुष्पासारै: स्नपयतु भवान् व्योमगंगाजलार्द्रै:।

    रक्षाहेतोर्नवशशिभृता वासवीनां चमूना—

    मत्यादित्यं हुतवहमुखे सम्भृतं तद्धि तेज:।।

    अनुवाद-

    नित निवास कुमार करे वहां तू उनको अन्हवाईयो जाई के।

    पुष्पमई बदरा बनि के नभगंग मिले फुलवा बरसाई के।

    जन्म दियो हर पावक में जिनको सुरराज-चमू हित लाई कि।

    मंद करें रवि को परतापहु आपने मात पिता गुन पाई के।।

    (राजा लक्ष्मणसिंह)

    कहा जाता है कि इस श्लोक में कवि ने श्लेष से स्कंदगुप्त की प्रशंसा की है। ऐतिहासिक तथ्य यह है कि कुमारगुप्त एक बार हूणों के कारण विपत्ति में पड़ गए थे। तब युवराज स्कंदगुप्त ने ही उनके शत्रुओं का पराभाव कर के वंश-गौरव का उद्धार किया था। उस समय वे मालवे में विद्रोह-दमन करने के लिए गए थे। कालिदास ने उक्त श्लोक में इसी का उल्लेख किया है।

    कालिदास ने किस उद्देश्य से मेघदूत की रचना की है? हमें तो ऐसा जान पड़ता है कि जब कालिदास विपन्नावस्था में थे तब उन्होंने इसे लिखा है। निम्नलिखित अवतरण देखिए—

    तेनार्थित्वै त्वयि विधिवशाद् दूरबन्धुर्गतोऽहं

    याञ्चा मोघा वरमधिगुणे नाधमे लब्धकामा।

    अर्थात् दुर्भाग्य से बंधु-बांधवों को छोड़ कर इतनी दूर तुझसे कुछ याचना करने के लिए आया हूँ।

    फिर आगे चलकर वे कहते हैं—

    क्षुद्रोऽपि प्रथमसुकृतापेक्षया संश्रयाय

    प्राप्ते मित्रे भवति विमुख: किम्पुनर्यस्तथोच्चै:।

    अर्थात् जिसने पहले कुछ उपकार किया हो उसके आने पर नीच भी उसका आदर करते हैं, फिर ऊँचों का तो कहना ही क्या?

    आसारेण त्वमपि शमयेस्तस्य नैदाघमग्निम्।

    सभ्दावार्द्र: फलति चिरेणोपकारो महत्सु।

    अर्थात् तू वारिधारा से उसकी जलन को मिटा देना, क्योंकि सज्जन के साथ जो भलाई की जाए उसका फल तुरंत ही मिलता है।

    मेघदूत से इसी भाव के और भी अवतरण दिए जा सकते हैं। क्या इससे यह प्रतीत नहीं होता कि कालिदास कभी विपत्ति में पड़कर अपने परिचित किसी राजा के आश्रय में गए हों और वहीं रह कर उसकी तुष्टि के लिए इसकी रचना की हो?

    ऊपर हम एक श्लोक उद्धृत कर आए हैं जिसमें स्कंदगुप्त का इशारा किया गया है। स्कंदगुप्त भी विक्रमादित्य के नाम से प्रसिद्ध था। यदि उपर्युक्त अनुमान ठीक हो तो हम कह सकते हैं कि कदाचित् स्कंदगुप्त के लिए ही कालिदास ने मेघदूत की रचना की हो। संभव है, निम्नलिखित चरण में सूर्य के द्वारा भी उन्हीं पर लक्ष्य किया गया हो—

    दृष्टे सूर्य पुनरपि भवान् वाहयेदध्वशेषं

    मन्दायन्ते खलु सुह्रदायमभ्युपेतार्थकृत्या:।

    कालिदास के विषय में कई किंवदंतियाँ प्रसिद्ध हैं। उनसे यह मालूम होता है कि कालिदास पहले बड़े मूर्ख थे; पीछे से देवी की आराधना करके उन्होंने अलौकिक कवित्वशक्ति प्राप्त की। मेघदूत से विदित होता है कि कालिदास बड़े भारी विद्वान थे। भिन्न-भिन्न शास्त्रों में तो उनकी गति थी ही, वे संगीत और चित्रकला भी भली-भाँति जानते थे। वे प्राकृतिक सौंदर्य के बड़े प्रेमी थे। स्वर्णालंकारों की अपेक्षा वे स्त्रियों को पुष्पालंकारों से सज्जित करना अधिक पसंद करते थे—

    हस्ते लीलाकमलमलके बालकुन्दानुविद्धं

    नीता लोध्रप्रसवरजसा पाण्डुतामाननश्री:।

    चूडापाशे नवकुरुबकं चारुकर्णे शिरीषं

    सीमन्तेऽपि त्वदुपगमजं यत्रं नीपं वधूनाम्।।

    अर्थात् यहाँ स्त्रियों के हाथों में खेलने के कमल हैं, अलकों में कुंद की कलियाँ हैं, लोध्र की रज से मुख की कांति पीली देख पड़ती है, कानों पर सिरस के फूल रखे हैं, चोटियों में कुरबक गुँथे हैं और वर्षा ऋतु में फूलने वाले कदंब के फूल माँगों में लगे हैं।

    कालिदास का प्रकृति-निरीक्षण भी विलक्षण था। किन ऋतुओं में कौन-कौन फूल खिलते हैं, कैसे-कैसे पक्षी देख पड़ते हैं, कहाँ-कहाँ घोंसलें बनाते हैं, किस ऋतु में कौन पौधा कितना बढ़ जाता है, ये सभी बातें उन्होंने ठीक-ठीक लिखी हैं। इससे प्रतीत होता है कि उनका बाल्यकाल गाँव में ही व्यतीत हुआ। उन्होंने ग्रामीण स्त्री-पुरुष का बड़ा ही सरल चित्र खींचा है। इससे भी इस अनुमान की पुष्टि होती है। संभव है, उनकी जन्मभूमि मालवा अथवा उसके आसपास कहीं रही हो। अन्य प्रांतों की अपेक्षा मालवे पर उनका प्रेम भी अधिक है।

    कालिदास ने मेघदूत में कितने ही देशों, नगरों और पर्वतों का वर्णन किया है। इससे ज्ञात होता है कि उन्हें भारतवर्ष की भौगोलिक स्थिति का अच्छा ज्ञान था। उनका वर्णन इतना विशद है कि यही मालूम होता है कि उन्होंने अपनी आँखों से सब कुछ देखकर लिखा है। इसके लिए उन्हें देश भर घूमना पड़ा होगा। प्राचीन काल में विद्वानों की यह रीति थी कि विद्याभ्यास कर लेने पर वे कीर्ति-उपार्जन करने के लिए देश-पर्यटन किया करते थे। कुछ आश्चर्य नहीं जो कालिदास ने भी ऐसा किया हो। कालिदास ने अपने जीवन-काल में ही प्रतिष्ठा पा ली थी। उनको अपनी कवित्वशक्ति का ज़रा भी अभिमान था। वे विद्वानों की सम्मतियों का आदर करते थे। उनका तो यह कहना था कि “आपरितोषाद्विदुर्षा साधु मन्ये प्रयोगविज्ञानम्।” अपने जीवन के प्रारंभ में उन्हें यह अवश्य शंका हुई थी कि लोग कदाचित् उनकी कृति को नवीन समझ कर उपेक्षा की दृष्टि से देखें। यह भाव उन्होंने अपने मालविकाग्निमित्र में व्यक्त किया है—

    पुराणमित्येव साधु सर्वे

    चापि काव्यं नवमित्यवद्यम्।

    सन्त: परीक्ष्यान्यतरद्भजन्ते

    मूढ़: परप्रत्ययनेयवृत्ति:।।

    अर्थात् प्राचीनता से ही किसी का आदर नहीं होता, और नवीनता से निंदा। विद्वान परीक्षा करके अच्छे को ग्रहण कर लेते हैं। तो भी मेघदूत के पाठ से ऐसा मालूम होता है कि कालिदास के कुछ प्रतिस्पर्धी भी थे। ऐसे लोगों की उन्होंने अच्छी ख़बर ली है—

    ये संरम्भोत्पतनरभसा: स्वागंभंगाय तस्मिन्

    मुक्ताध्वानं सपदि शरभा लंघयेयुर्भवन्तम्।

    तान्कुर्वीथास्तुमुलकरकावृष्टिपातावकीर्णान्

    के वा स्यु: परिभवपदं निष्फलारम्भयत्ना:।।

    अर्थात् तेरा गर्जन सुनकर शरभों को बड़ा कोप होगा। अपने बल का उन्हें बड़ा घमंड है। तुझे लाँघने के लिए ऊपर कूद-कूदकर वे अपने हाथ-पाँव तोड़ेंगे। तू ओलों की वर्षा कर के उन्हें भगा देना। निष्फल यत्न करने से जगत में किसकी हँसी नहीं हुई? दिङ्नाग पर भी उन्होंने ऐसा ही वाक्-प्रहार किया है—

    दिङ्नागानां पथि परिहरन्स्थूलहस्तावलेपान्।

    कालिदास को अपने निंदकों की ज़रा भी परवाह थी। उनको अपनी कवित्वशक्ति पर पूरा विश्वास था। तभी तो उन्होंने लिखा है—

    अन्त:सारं घन तुलयितुं नानिल: शक्ष्यति त्वाम्

    रिक्त: सर्वो भवति हि लघु: पूर्णता गौरवाय।

    हे मेघ, तुझमें सार है। वायु तुझे उड़ा सकेगा। निस्सार ही हीन होता है। पूर्णता से तो गौरव बढ़ता है।

    कुछ तो लोगों की राय है कि कालिदास शैव थे। हम यह तो निश्चयपूर्वक नहीं कह सकते कि वे शैव ही थे, पर मेघदूत से उनकी अगाध शिव-भक्ति अवश्य प्रकट हो जाती है। कालिदास के विषय में यह भी प्रसिद्ध है कि उनका चरित्र अच्छा था। मेघदूत में तत्कालीन समाज का जैसा चित्र अंकित हुआ है उससे यह साफ़ मालूम होता है कि उस समय लोगों में विलासिता ख़ूब फैली हुई थी। शराब और वेश्याओं के अतिरिक्त दुराचारिणी स्त्रियों का भी उस समय अभाव था। पर मेघदूत में यक्ष और यक्षपत्नी का पवित्र प्रेम जिस तरह वर्णित हुआ है उससे यह विश्वास करने को जी नहीं चाहता कि कालिदास दुश्चरित थे—

    सूर्यापाये खलु कमलं पुष्यति स्वामभिख्याम्

    यह किसी दुश्चरित्र कवि के हृदय से निकलेगा।

    कालिदास को आमोद-प्रमोद से रहना अधिक पसंद था। वैसे तो सुख-दुख का चक्र सदा चलता ही रहता है— “नीचैर्गच्छत्युपरि दशा चक्रनेमिक्रमेण”— पर जान पड़ता है कि कालिदास का अधिकांश समय सुख में ही व्यतीत हुआ।

    ये सब अनुमान की बातें हैं। संभव है, इनमें एक भी सच हो। पर मेघदूत के पाठ से हमारे मन में ये भाव अवश्य उदित होते हैं। सच पूछा जाए तो कवि के जीवन में तो कुछ कवित्व रहता नहीं। एक साधारण गृहस्थ की तरह वह भी अपना काल-यापन करता है। अपने कौतूहल की निवृत्ति के लिए हमें उसकी छोटी-छोटी बातें भी जाननी चाहिए। यह भी एक प्रकार से कवि के प्रति अपना पूज्य भाव प्रकट करना है।

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