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जुरे दुहुनु के दृग झमकि

jure duhunu drag jhmki

बिहारी

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जुरे दुहुनु के दृग झमकि

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    जुरे दुहुनु के दृग झमकि, रुके झीनैं चीर।

    हलुकी फौज हरौल ज्यौं, परै गोल पर भीर॥

    नायिका अपने परिवार के बीच बैठी हुई है। ठीक उसी समय नायक वहाँ जाता है। लज्जावश वह तुरंत घूँघट निकाल लेती है, किंतु काम भावना के अतिरेक के कारण वह नायक को देखना भी चाहती है और देखती भी है, इसी स्थिति का वर्णन करते हुए कवि कह है कि नायिका के नेत्र झमक कर नायक के नेत्रों से टकरा गए हैं जो नायिका के झीने घूँघट से स्पष्ट दिखाई दे रहे हैं। यह टकराना वैसे ही है जिस प्रकार आक्रमणकारी फौज द्वारा हरावल (सेना का अग्रभाग) फौज पर आक्रमण किए जाने पर उस पक्ष की फौज भी विपक्षी की फौज से टक्कर लेने लगती है। कहने का तात्पर्य यह है कि नायक-नायिका नेत्रों की सांकेतिक भाषा में प्रेम युद्ध करने लगे हैं।

    स्रोत :
    • पुस्तक : बिहारी सतसई (पृष्ठ 286)
    • संपादक : हरिचरण शर्मा
    • रचनाकार : बिहारी
    • प्रकाशन : श्याम प्रकाशन, जयपुर
    • संस्करण : 2007

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