रसोई घर का इंक़लाब
हर्ष कुमार
27 फरवरी 2025
रसोई घर की ओर बढ़ती हुई स्त्रियाँ सोचती तो होंगी कि कैसे शाम-सवेरे बिना किसी दबाव के उनके क़दम उस ओर जाने लगते हैं। इसके लिए अधिकतर उन्हें किसी से कहलवाने की आवश्यकता नहीं पड़ती, न समय के दुरुस्त होने की। क़दम उस ओर बढ़ने का मतलब साफ़ है—रसोई बनाने का समय है।
सदियों से यही चला आ रहा है, ऐसे ही होता हुआ। दोनों के बीच एक बिन-कहा समझौता है। इसे ऐसे भी कह सकते हैं कि यह एक तरफ़ा ही है। एक ने अपना शारीरिक बल दिखाकर चुना—बाहर जाना और यह भी कि वह अपने परिवार की सुरक्षा करेगा। दूसरे को घर पर ठहरकर इंतज़ार करना नसीब हुआ।
एक स्त्री का सड़क से गुज़रना कितना बुरा हो सकता है? बाहर जाने पर स्त्री की अस्मिता को क्या हो सकता है? हज़ारों सालों से उन्हें कमरों के भीतर कमरों में रखा जा रहा है। वह घर की प्रगति में साथ-साथ हाथ बढ़ाती है, इसमें कोई शक नहीं, तो बाहर किसी दफ़्तर से काम करने में हर्ज़ क्या है? उन्हें रोकने वाले ये लोग सामने क्यों नहीं आते? और ये लोग—कभी पिता, कभी पति, कभी पुत्र, पड़ोसी आदि की खाल ओढ़कर क्यों आते हैं? क्या स्त्रियों का तेज़ उनकी मोटी चमड़ी जला देगा? या सामना होने से डरते हैं वे! क्या उन्हें रोकने वालों को उनकी आँखों में मर्द के व्यक्तित्व की छवि, अपनी खोखली अस्मिता—जिसे वह बताते और दिखाते हैं, वह नंगी हो जाएगी।
स्त्री अब चाह कर भी बाहर जाना पसंद नहीं करती। बाहर सड़कों पर पैदा हुए हैं एक नए तरह के पुरुष, जो पैदा तो हुए एक जैसी शक्ल-ओ-सूरत लेकर लेकिन अपनी तरुणाई के ठीक पाठ से पढ़ने में चूक गए। ऐसे पुरुष एक नई परिभाषा को जन्म देते हैं—पुरुष होने की, जिससे महिलाएँ कुछ झिझक जाती हैं बाहर जाने के वाक्य से भी। अपने यौवन की गर्म हवाओं के चलते, इस नए पुरुष ने अपने साथ आधे समाज की शान में कितना ज़्यादा इज़ाफा किया, यह बात अगर वह जान ले तो ख़ुद को दफ़न कर ले। मर्द क़ौम का नाम अपनी नज़र में कितना ऊँचा कर आया वह एक आदमी। पूरी क़ौम की अस्मिता एक झटके में मिट्टी कर दी। मगर वह कभी भी अकेला नहीं था, उसके साथ संभावित बलात्कारी होने के सभी गुण थे—जैसे की हम सब में हैं; हिम्मत, गर्म माँस की भूख, और कमज़ोरों की चीख़ें, हर बात पर माँ-बहन के नाम का संबोधन ये किस तरह का गुण हैं?
मर्द होने का मतलब अब एक काले धब्बे जैसा है। जैसे कोई सूर्य ग्रहण हो, जिसकी परछाई से स्त्रियों ख़ुद को बचाती हैं। अकेली स्त्रियों का पुरुषों को देखकर रास्ता बदलना संकेत है कि समाज अपनी हदों से बाहर निकल चुका है, संवेदना मर गई है।
आज ग़ौर करें तो हमारे समाज में फ़्रस्टेशन, ज़ोर-ज़बरदस्ती बढ़ती जा रही है, लेकिन हम इस बात को स्वीकार नहीं कर सकते क्योंकि यह सुनने में अच्छा नहीं लगता। फ़्रस्टेशन निकालने वाले, ज़ोर-ज़बरदस्ती करने वाले, बलात्कार अपराधी बहुत आराम से न्याय व्यवस्था से बच कर निकल जा रहे हैं। ये अपराधी बहुत आराम से ‘सज़ा पूरी कर लेते हैं’। समझ नहीं आता कि यह कैसा समय है, कैसी व्यवस्था है और किस तरह का न्याय है; जहाँ बलात्कार, ज़ोर-ज़बरदस्ती और हत्या की करने वालों की सज़ा पूरी हो रही है और वे अपराधी फिर से अपनी ज़िंदगी ख़ुशी-ख़ुशी शुरू कर ले रहे हैं।
स्त्री की अस्मिता धीरे-धीरे एक वस्तु बन चुकी है। एक स्त्री का आचरण कितना शुद्ध है, इसका निर्धारण ‘सेक्स’ जैसे शब्द से किया जाता है। वहीं दूसरी तरफ़ मर्द-स्टड कहलाने वाले पुरुषों के लिए यहीं शब्द शान के रूप में समझा जाता है। इज़्ज़त का संबंध सेक्स से है, लगता है जैसे यह वाक्य विकासशील भारत के युवाओं की अवधारणा बन चुका है। यह कहना ग़लत नहीं होगा कि स्त्रियों से बदतमीज़ी करने वाले, उन्हें असहज करने वाले हज़ारों-लाखों भारतीय किसी-न-किसी दिन सड़कों पर ‘भारत माता की जय’ चिल्लाते हुए दिख जाएँगे। केवल इसलिए कि शारीरिक रूप से पुरुष ज़्यादा सशक्त हैं, इसका यह मतलब क़तई नहीं होता कि वह पौरुष भी उतना ही रखता हो।
भारतीय स्कूलों में सेक्स एजुकेशन जैसे विषय की क्या हालत है यह किसी से छिपा नहीं है। जितने ज़रूरी बाक़ी विषय हैं, उतना ही ध्यान इस विषय पर भी दिए जाने की ज़रूरत है। देशभर में स्कूलों की हालत ऐसी है कि पाठ्यक्रमों में जोड़े गए प्रजनन जैसे ज़रूरी और संवेदनशील विषयों को टीचर्स द्वारा ऐसे दर किनार कर दिया जाता है, जैसे कि बच्चों को कभी इस विषय की ज़रूरत ही नहीं पड़ेगी। समझा जाता है कि एक दिन कोई दिव्य प्रकाश बच्चों पर गिरेगा और उन्हें सबकुछ का ज्ञान हो जाएगा। एआई की बात करने वाले ये गुरुजन सेक्स एजुकेशन के नाम पर क्यों कोना पकड़ने लगते हैं, समझ नहीं आता? सोचते हुए डर लगता है कि स्त्रियों की सुरक्षा का—“वह एक दिन इंक़लाब की तरह है जो कभी नहीं आएगा”।
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