Font by Mehr Nastaliq Web

प्रेम का आईनाख़ाना

सूफ़ी साहित्य का कैनवास इतना विशाल है कि अक्सर तस्वीर का एक हिस्सा देखने में दूसरा हिस्सा छूट जाता है। इस तस्वीर में इतने रंग हैं और रंगों का ऐसा मेल-मिलाप है कि किसी एक रंग को ढूँढ़ना समझना लगभग नामुमकिन है। ऐसे में सूफ़ी-संतों के जीवन और उनके साहित्य पर लिखी जा रही किताबों में अक्सर इस तस्वीर के कई ज़रूरी हिस्से छूट जाते हैं। जब तक इस विचारधारा में गहरी पैठ न हो, इस पर लिखी हुई हर किताब बेमानी हो जाती है। 

‘द सूफ़ी नाइटेंगल’ एक ऐसी किताब है जो तसव्वुफ़ के रंगों में डूबकर लिखी गई है। इसे पढ़कर लगता है कि जैसे लेखक ने पहले इन रंगों से दोस्ती की है और उन्हीं रंगों के सफ़रनामे को किताब में लिख दिया है। रंग जो आगे चलकर रंगरेज़ बन जाते हैं और पाठक को ऐसी दुनिया में लाकर छोड़ देते हैं—जहाँ सब रंग मिलकर एक हो गए हैं। 

हज़रत शाह हुसैन के जीवन चरित्र और माधो लाल से उनके आत्मीय संबंधों पर यह किताब लिखी गई है। हज़रत शाह हुसैन (1538-1599) पंजाब के अलबेले सूफ़ी थे। उनके पिता शेख़ उस्मान ढड्डे जुलाहे का काम करते थे। उन का जन्म लाहौर (पाकिस्तान) में हुआ और उन्हें पंजाबी काफ़ी का जनक भी कहा जाता है। उन के कलाम लोगों में बहुत ही हरमनप्यारे रहे हैं। 

यह किताब हज़रत शाह हुसैन के अपने मुर्शिद हज़रत शाह बहलोल दरियाई से पहली मुलाक़ात के क़िस्से के साथ शुरू होती है। हज़रत शेख़ बहलोल क़ादरी सिलसिले के प्रसिद्ध सूफ़ी बुज़ुर्ग हैं। आगे चलकर इसमें कई किरदार जुड़ते चले जाते हैं जिनसे इस तस्वीर में रंगों का ऐसा रक़्स ज़ारी होता है कि किताब को पढ़ने वाला इन्हीं रंगों के तिलिस्म में खो जाता है। मक़बूल और माधो, इन दो रंगों से हज़रत शाह हुसैन की तस्वीर मुकम्मल होती है। आज हम उन्हें माधोलाल हुसैन के नाम से जानते हैं। 

पर मक़बूल का क्या? मक़बूल, एक ऐसा असाधारण मुरीद जो अपने मुर्शिद के एक इशारे पर उनके कलाम को सुरों में बाँधकर पेश कर देता था। मक़बूल ने हज़रत शाह हुसैन को कभी अकेला नहीं छोड़ा। माधो लाल के घर वालों ने हज़रत शाह हुसैन पर फ़ब्तियाँ कसीं, उन्हें बुरी तरह दुत्कारा, लेकिन मक़बूल साये की तरह अपने मुर्शिद के साथ चलता रहा, गाता रहा। यहाँ पंजाबी सूफ़ी साहित्य, फ़ारसी सूफ़ी साहित्य से एक क़दम आगे प्रतीत होता है। 

ऐसी ही एक कहानी ईरान के प्रसिद्ध सूफ़ी हज़रत शेख़ फ़रीदुद्दीन अत्तार द्वारा रचित ‘मंतिक-उत-तैर’ (परिंदों की महासभा) में शेख़ सनाअ’ की मिलती है। शेख़ सनाअ’ एक प्रसिद्ध सूफ़ी थे। उनकी महानता के विषय में शेख़ अत्तार फ़रमाते हैं :

शैख़ सनआँ पीर अहद-ए-ख़्वेश बूद।
दर कमाल अज़ हर चे गोयम बेश बूद।।
शैख़ बूद ऊ दर हरम पंजाह साल।
बा मुरीदाँ चार सद साहब कमाल।।

(शेख़ सनआँ अपने समय के एक बहुत बड़े सूफ़ी थे। उनकी करामातों के बारे में जितना भी कहा जाए वह कम है। काबे की मस्जिद में 50 वर्षों तक उन्होंने फेरी लगाई। चार सौ पहुँचे हुए सूफ़ी उनके मुरीद थे।)
ऐसे महान् शेख़ एक ईसाई बाला के प्रेम में गिरफ़्तार हो जाते हैं और उसके यहाँ नौकर बनकर काम करने लगते हैं। ईसाई बाला के आदेश पर शराबख़ाने जाकर शराब भी पीते हैं। यह सब देखकर उनके मुरीद बड़े व्यथित हो जाते हैं और सब उन्हें छोड़कर काबा वापस आ जाते हैं। वापस आकर उनकी मुलाक़ात शेख़ के एक दोस्त से होती है जो उन्हें इन कठोर शब्दों में फटकारते हैं :

बा-मुरीदां गुफ़्त ऐ तर-दामनां।
दर वफ़ादारी न मरदां न ज़नाँ।।
यार-ए-कार उफ़्ताद: बायद सद हज़ार।
यार नायद जुज़ चुनीं रोज़े ब-कार।।
चूँ निहाद आँ शेख़ बर ज़ुन्नार दस्त।
जुमल: रा ज़ुन्नार मी बायस्त बस्त।।

(तब उसने शेख़ के मुरीदों से कहा, ‘‘ऐ पापियों! तुम वफ़ादारी में न तो स्त्रियों के ही समान हो और न मर्दों के। लानत है तुम्हारी दोस्ती पर। मतलब के तो सैकड़ों यार होते हैं, लेकिन सच्चा दोस्त वही है जो मुसीबत के समय में काम आवे। जब तुम्हारे शेख़ ने दूसरे धर्म की दीक्षा ली थी, तब तुम्हें भी ऐसा ही करना था।)

हज़रत शाह हुसैन के साथ यह सब नहीं हुआ। मक़बूल ने उन्हें कभी अकेला नहीं छोड़ा और शायद इसीलिए बारहा शेख़ उसे अपनी बुलबुल कहते थे।

यह किताब माधो के प्रेम और उस के मनोभावों की भी साक्षी है। माधो हज़रत शाह हुसैन को जान से भी अधिक प्रिय है। शेख़ माधो में अपनी छवि देखते हैं। शाह हुसैन हज़रत इब्न-अल-अरबी का क़िस्सा सुनाते हैं—हज़रत इब्न-अल-अरबी ने जब पहली दफ़ा मक्के का सफ़र किया तो उनकी मुलाक़ात वहाँ के एक प्रसिद्ध सूफ़ी बुज़ुर्ग हज़रत शेख़ ज़ाहिर बिन रुस्तम से हुई। जब वह उनके घर पहुँचे तो उनकी नज़र शेख़ की बेटी निज़ाम ऐन-अल-शम्स पर पड़ी जो बड़ी ख़ूबसूरत थी। शेख़ इब्न-अल-अरबी पर उसकी सुंदरता और सूझ-बूझकर बड़ा प्रभाव पड़ा। जब वह दूसरी दफ़ा काबा पहुँचे तब तक उसकी शादी हो चुकी थी। कहते हैं कि ‘तर्जुमा-अल-अश्वाक़’ जो शेख़ की प्रसिद्ध किताबों में से एक है, उनकी सुंदर प्रेम-कविताएँ निज़ाम से ही प्रेरित हैं।

हज़रत शाह हुसैन आगे लिखते हैं कि क्या मैं कभी अपने निज़ाम से मिल पाऊँगा?

मेरा और माधो का प्रेम वैसा ही है जैसा शेख़ इब्न-अल-अरबी का निज़ाम से, हज़रत मौलाना रूमी का शम्स-ए-तबरेज़ से और हीर का राँझे से था।

हज़रत शाह हुसैन का समय सूफ़ी और संत आंदोलनों के हिसाब से बड़े महत्त्व का है। इसी समय मियाँ मीर और रसखान जैसे महान् सूफ़ी और भक्त कवि अपनी अपनी भाषाओं में कालजयी कृतियाँ रच रहे थे। यह वही समय था, जब श्री गुरु अर्जुनदेव जी श्री गुरुग्रंथ साहिब को आकार दे रहे थे। यह किताब हज़रत शाह हुसैन और माधो लाल के साथ इन प्रसिद्ध सूफ़ी-संतों के वैचारिक आदान-प्रदान की भी साक्षी है। इस किताब में जहाँ मौलाना रूमी और उनके पहले नृत्य का ज़िक्र है, वहीं हीर और राँझा भी हज़रत शाह हुसैन के कलाम में अपनी पूरी धज के साथ दिखते हैं। पंजाबी ज़बान में लिखे इसी कलाम ने आगे वारिस शाह की हीर के लिए ज़मीन तैयार की है।

इस किताब में सूफ़ी ध्यान और साधना की विभिन्न विधियों का ऐसा जीवंत वर्णन लेखक ने किया है कि मालूम पड़ता है जैसे लेखक स्वयं इन अवस्थाओं से गुज़रा हो। ज़िक्र-ए-ख़फ़ी, ज़िक्र-ए-जली और हब्स-ए-दम जैसी सूफ़ी साधनाओं का वर्णन भी किताब में आया है। 300 से अधिक पृष्ठों की यह किताब प्रेम के एक ऐसे इतिहास-खंड का आईनाख़ाना बन गई है, जिसको पढ़ने के क्रम में कई बार स्वयं का साक्षात्कार होता है।

'बेला' की नई पोस्ट्स पाने के लिए हमें सब्सक्राइब कीजिए

Incorrect email address

कृपया अधिसूचना से संबंधित जानकारी की जाँच करें

आपके सब्सक्राइब के लिए धन्यवाद

हम आपसे शीघ्र ही जुड़ेंगे

28 नवम्बर 2025

पोस्ट-रेज़र सिविलाइज़ेशन : ‘ज़िलेट-मैन’ से ‘उस्तरा बियर्ड-मैन’

28 नवम्बर 2025

पोस्ट-रेज़र सिविलाइज़ेशन : ‘ज़िलेट-मैन’ से ‘उस्तरा बियर्ड-मैन’

ग़ौर कीजिए, जिन चेहरों पर अब तक चमकदार क्रीम का वादा था, वहीं अब ब्लैक सीरम की विज्ञापन-मुस्कान है। कभी शेविंग-किट का ‘ज़िलेट-मैन’ था, अब है ‘उस्तरा बियर्ड-मैन’। यह बदलाव सिर्फ़ फ़ैशन नहीं, फ़ेस की फि

18 नवम्बर 2025

मार्गरेट एटवुड : मर्द डरते हैं कि औरतें उनका मज़ाक़ उड़ाएँगीं

18 नवम्बर 2025

मार्गरेट एटवुड : मर्द डरते हैं कि औरतें उनका मज़ाक़ उड़ाएँगीं

Men are afraid that women will laugh at them. Women are afraid that men will kill them. मार्गरेट एटवुड का मशहूर जुमला—मर्द डरते हैं कि औरतें उनका मज़ाक़ उड़ाएँगीं; औरतें डरती हैं कि मर्द उन्हें क़त्ल

30 नवम्बर 2025

गर्ल्स हॉस्टल, राजकुमारी और बालकांड!

30 नवम्बर 2025

गर्ल्स हॉस्टल, राजकुमारी और बालकांड!

मुझे ऐसा लगता है कि दुनिया में जितने भी... अजी! रुकिए अगर आप लड़के हैं तो यह पढ़ना स्किप कर सकते हैं, हो सकता है आपको इस लेख में कुछ भी ख़ास न लगे और आप इससे बिल्कुल भी जुड़ाव महसूस न करें। इसलिए आपक

23 नवम्बर 2025

सदी की आख़िरी माँएँ

23 नवम्बर 2025

सदी की आख़िरी माँएँ

मैं ख़ुद को ‘मिलेनियल’ या ‘जनरेशन वाई’ कहने का दंभ भर सकता हूँ। इस हिसाब से हम दो सदियों को जोड़ने वाली वे कड़ियाँ हैं—जिन्होंने पैसेंजर ट्रेन में सफ़र किया है, छत के ऐंटीने से फ़्रीक्वेंसी मिलाई है,

04 नवम्बर 2025

जन्मशती विशेष : युक्ति, तर्क और अयांत्रिक ऋत्विक

04 नवम्बर 2025

जन्मशती विशेष : युक्ति, तर्क और अयांत्रिक ऋत्विक

—किराया, साहब... —मेरे पास सिक्कों की खनक नहीं। एक काम करो, सीधे चल पड़ो 1/1 बिशप लेफ़्राॅय रोड की ओर। वहाँ एक लंबा साया दरवाज़ा खोलेगा। उससे कहना कि ऋत्विक घटक टैक्सी करके रास्तों से लौटा... जेबें

बेला लेटेस्ट