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महान् कविताओं के बिंब कैसे होते हैं!

दुपहर हो गई थी। मेरा वह साथी अपनी लंबी कविता का कुछ हिस्सा पढ़ाकर वापस लौट आया था। उसने आते ही मुझे फ़ोन किया और लाइब्रेरी से बाहर बुला लिया। आज वह चहक रहा था। उसके चेहरे पर अतिरिक्त उत्साह के निशान स्पष्ट नज़र आ रहे थे, कुछ ऐसा था जैसे उसके सिर से कुछ बोझ-सा उतर गया हो। शायद वह लाइब्रेरी से मेरे बाहर निकल आने का बेसब्री से इंतज़ार कर रहा था। मुझे तो खटका लगा हुआ था कि अब कहीं वह मुझसे कन्नी ना काटकर चलने लगे। मैंने कहीं पढ़ा था कि एक बार दो साहित्यिकों के बीच बहस हुई और नौबत कुश्ती के अखाड़े में दो-दो हाथ करने तक जा पहुँची, लेकिन फिलहाल तो यहाँ इसका विपरीत प्रतीत होता था। वह मेरा साथी प्रायः मेरे सोचे हुए से उल्टा ही व्यवहार करता था।

वह एकदम नज़दीक आकर बोला, “चलो तुम्हें चाय पिलाता हूँ।”

“ठीक है”—मैंने कहा और उसके साथ हो लिया। कुछ क़दम चलकर उसने बोलना शुरू किया, “देखो आज कक्षा से पहले अजीब-सा डर भीतर बना हुआ था, लेकिन अब अच्छा महसूस कर रहा हूँ।”

मैंने पूछा क्यों, “डर किस बात का था। तुम तो हर रोज़ पढ़ाते हो? और मैंने तो सुना है तुम्हारे पास कविताओं के परीक्षा उपयोगी नोट्स भी हैं। नेट-वेट की तैयारी करने वाले बच्चे दीवाने हैं तुम्हारे।

उसने झिझकते हुए कहा, “देखो इतना मज़ाक़ ना उड़ाओ। यह बात सही है कि मैं हर रोज एक ही ढर्रे पर कविता को पढ़ने-पढ़ाने का आदी था। आज मेरे मन में ख़याल आया कि क्यों ना आज कविता को अपने तजुर्बे से समझकर पढ़ाने की कोशिश करूँ। मैंने आज कक्षा से पहले फलाँ आलोचक की किताब पढ़ने की बजाय कविता का पाठ स्वयं ही किया। मैंने महसूस किया जैसे आज से साठ बरस पहले लिखी हुई इस कविता की बहुत-सी पंक्तियाँ तो मेरे जीवन से ही उद्भूत हैं। मुझे हाल ही में पढ़ी हुई निबंधों और इतिहास की पुस्तकों से कुछ महत्त्वपूर्ण बात याद आने लगी जो मेरे द्वारा समझे गए उस कविता के अर्थ को अधिक पुष्ट करती थी। ज्यों ही मैंने वर्तमान का संदर्भ लेकर उन बातों को मेरे विद्यार्थियों को बताना आरंभ किया, मैंने उनमें से अधिकतर के चेहरे पर जिज्ञासा और ख़ुशी का मिलाजुला भाव महसूस किया।”

“यह तो बड़ी ज़बरदस्त बात है यार!”—मैंने शायद उसके फ़्लो को तोड़ दिया, लेकिन मेरे भीतर भी एक बाल सुलभ रोमांच भर आया था।

मेरे बीच में बोलते ही उसने विक्की भाई की तरफ़ दूर से ही दो चाय का इशारा कर दिया।

“हाँ! है तो ज़बरदस्त। मैंने ऐसे भाव अपने विद्यार्थियों के चेहरे पर कभी महसूस नहीं किए थे।”—उसने उसी धारा प्रवाह में जवाब दिया। “आज मुझे महसूस हुआ कि इस कविता के बिंब इतने बरस बाद भी प्रासंगिक हैं। लेकिन वर्तमान संदर्भों में उसकी प्रासंगिकता का फलाँ आलोचक की किताब में कोई ज़िक्र नहीं। मैंने इस बात पर कभी ध्यान ही नहीं दिया था।”

मुझे लगा कि मैं सिर्फ़ सुनता रहा था तो जल्दी ही यह बातचीत एकालाप में परिवर्तित हो जाएगी। संवाद के बिना फिर यह चाय भी व्यर्थ ही जाएगी। मैंने उसकी बात में बात जोड़ते हुए कहा, “जिक्र कैसे होगा? फलाँ आलोचक ने जो 50 साल पहले उस कविता का पाठ किया था, हम तुम जो उसे अंतिम सत्य माने बैठे थे। यह भी एक किस्म का आतंकवाद है। ख़ैर, यह तो तुम आलोचना को देखने का एक बढ़िया नज़रिया सुझा रहे हो। देखो महान् कविताओं के बिंब देशकालातीत होते हैं और इसे तो अच्छी रचना की एक कसौटी के रूप में हमें देखना चाहिए। बिंब यदि अपने समय को लाँघकर अब तक प्रासंगिक बने हुए हैं, तो जाहिर है कि रचनाकार भविष्य दृष्टा था। वह भावी को पहचानने के क्षमता रखता था। उसकी दृष्टि इतिहास बोध से संपन्न थी।”

“बिल्कुल यही बात मैं कहना चाहता था।”—उसने कहा। मैं अपने आप को मुस्कुराने से रोक नहीं पाया।

उसने अपनी बात कहना जारी रखा—“तुमने जो यह बात कही इतिहासबोध वाली, इससे मैं इत्तेफ़ाक़ रखता हूँ। लेकिन इसकी उपस्थिति सिर्फ़ रचनाकार के लिए ही ज़रूरी नहीं है, पाठक के लिए भी इतिहासबोध का होना ज़रूरी है। बिना अपने इतिहास अपनी परंपरा को जाने हम कभी देशकालातीत बिंबों की पहचान नहीं कर पाएँगे। एक आलोचक अपने समय के संदर्भ में ही कविता के बिंबों की व्याख्या करता है। बिंबों के नज़रिए से देखा जाए तो कई बार आलोचना कुछ समय बाद पुरानी पड़ने लगती है और कविता की प्रासंगिकता को समझने और उसे पुष्ट करने के लिए हमें नई दृष्टि की आवश्यकता होती है। इस नई दृष्टि का विकास तभी संभव है, जब नए पाठकों को पुरानी बातों से सीखकर उनसे आगे बढ़ने का मौक़ा मिले। हम पुराने प्रबुद्ध आलोचकों की पुस्तकों से भाषा सीखें, प्रणाली सीखें, आलोचना का शिष्टाचार सीखें; लेकिन दृष्टि हमेशा नवीन रहे तो बड़ा अच्छा हो।”

विक्की भाई हमारी चाय अलग से बनाता था, उसको हमारे चाय का स्वाद का अंदाज़ा था। उसकी दुकान पर काम करने वाला ‘दुबे’ कम मीठे और तेज़ पत्ती वाली दो कप लाल चाय लेकर आ गया। आज मेरे साथी ने ही चाय के दोनों गिलास उठाए, एक मेरी तरफ़ बढ़ा दिया। मैंने जैसे ही चाय का गिलास पकड़ा उसने प्रश्न किया—“अच्छा तो बिंब भी अर्थ संप्रेषित करते हैं?”

“यह तो ज़ाहिर है!” मैंने चाय की पहली चुस्की लेते हुए कहा।

“अच्छा!” उसने ऐसे लहजे में कहा जैसे उसे ताज्जुब हुआ हो। 

“मैं तो समझता था कि बिंब बस दृश्य मात्र होते हैं। मैं तो इन्हें नाटकीयता पैदा करने का कोई टूल समझता था।”

“हाहाहा...” मुझसे रहा ना गया। मैंने अपना चाय का गिलास सँभाला।

“भाई मेरे, बिंब तो कविता में इतनी काम की चीज़ हैं कि यदि यह पीढ़ी-दर-पीढ़ी प्रासंगिक बने रहें तो एक निश्चित अर्थ का भी संकेत करने लगते हैं और एक ऐसी स्थिति पैदा करते हैं—जहाँ ऐसा प्रतीत होता है कि प्रतीक और बिंब आपस में गुम्फित हो गए हैं और निरंतर कविता की संप्रेषण शक्ति को व्यापक करते जाते हैं।”

उसके फ़ोन की घंटी बजी। उसने फोन निकाला और साइलेंट करके वापिस जेब में डाल लिया। मेरा ध्यान चाय पर गया। मुझे लगा कि अगर जल्दी चाय ख़त्म ना कि तो यह ठंडी हो जाएगी।

“अच्छा क्या कह रहे थे तुम? बिंब और प्रतीक गुम्फित हो जाते हैं?” उसने फिर उसी मुद्दे से बात शुरू करने के लहजे में कहा।

मैंने कहा, “पहले तो हमें यह समझ लेना चाहिए कि बिंब अपने समय कि सीमाओं को लाँघकर प्रासंगिक बने कैसे रहते हैं? केवल उसके बाद ही यह संभव है कि बिंब और प्रतीकों के आपसी संबंध को ठीक से समझ पाएँ।”

“हाँ बात तो सही है।”

“महान् कविताओं के बिंब सिर्फ़ नाटकीयता पैदा नहीं करते, बल्कि वे वर्तमान का सहारा लेकर भविष्य का अनुमान लगाते हैं। ये बिंब महज सतही तौर पर दृश्य का निर्माण नहीं करते बल्कि नेपथ्य में सूक्ष्म स्तर पर घटित होने वाली घटनाओं का विवरण भी देते हैं।”

“कैसे?” उसने चाय का ख़ाली गिलास रखते हुए कहा।

चाय का अंतिम घूँट भरकर मैंने कहा, “देखो फलाँ कवि, जिसकी कविता का आजकल तुम पाठ करवा रहे हो, उस कविता में एक प्रोसेशन का बिंब है। साठ बरस बाद आज मोबाइल और इंटरनेट के इस वर्तमान युग में इस क़दर प्रासंगिक हो गया है कि रचनाकार को सहज ही भविष्यदृष्टा माना जा सकता है। मौजूदा समय में अभिव्यक्ति के सारे महत्त्वपूर्ण साधनों पर ज़बरदस्त क़ब्ज़ा है।”

“देखो अब तुम भटकने वाले हो!” उसने मुझे बीच में टोकते हुए कहा।

“नहीं, गंभीर बातचीत में जल्दबाज़ी क्यों करते हो? तुम पहले पूरी बात सुनो फिर किसी निष्कर्ष पर पहुँचना। अभिव्यक्ति के लिए जिन ख़तरों का बिंब फलाँ कवि ने बनाया था, वह आज सच हो रही है। यह कवि की सफलता है और हमारे समाज की विफलता। उसने समाज की विफलता के कारणों का बिंब गढ़ा था। अपना अब तक का सबसे अधिक स्पष्ट अर्थ वह आज साठ बरस बाद संप्रेषित कर रहा है, जब अभिव्यक्ति के साधन सबको सुगमता से उपलब्ध तो हैं—किंतु सेंसरशिप का ख़तरा उससे अधिक है; लेकिन फलाँ आलोचक ने जब पहले-पहल इसकी व्याख्या की, वह अपने समय की साथ जुड़कर की। उसे शायद अंदाज़ा नहीं था कि जब स्वयं को अभिव्यक्त करना सबसे आसान होगा, तब अभिव्यक्ति के सब साधनों पर क़ब्ज़ा जमा लिया जाएगा। जनता पर मीडिया का एकालाप थोप दिया जाएगा और लोकतंत्र को अराजकता की तरफ़ धकेल दिया जाएगा। दरअस्ल यह लंबी कविता एक सफल बिंब भी है जो वर्तमान को भी सही-सही चित्रित करता है। ऐसा इसलिए है, क्योंकि इसमें स्थूल घटनाओं का ब्यौरा भर नहीं है; बल्कि समस्या के प्रच्छन्न सूक्ष्म कारणों को कलात्मक ढंग से बिंबात्मक अभिव्यक्ति दी गई है। और एक बात...”

ज़रा धीरे-धीरे गाड़ी हाँको, मेरे राम गाड़ी वाले... उसके फ़ोन की घंटी दोबारा बज गई। अबकी बार फ़ोन किसी ऐसे शख़्स का था, जिसका ग़ुस्सा वह बड़े प्यार से बर्दाश्त कर रहा था।

मैंने उसके चेहरे के भाव जाँचते हुए कहा, “ठीक है यार। अब मैं चलता हूँ।”

“ठीक है, प्रतीक और बिंब गुम्फित कैसे होते हैं, इस पर बात हम कल करेंगे।” उसने फ़ोन रिसीव करते हुए कहा और चला गया।

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