कहानी : लील
किरीट दूधात
09 सितम्बर 2025

‘लील’—एक प्रादेशिक हिंदू रिवाज है, जो अधिकतर गुजरात राज्य के सौराष्ट्र प्रदेश में देखने को मिलता है। इस रिवाज के अनुसार अगर किसी पुरुष का विवाह ना हुआ हो और उसकी मृत्यु हो जाए, तो उसकी वासनापूर्ति और मोक्षप्राप्ति के लिए लील की विधि की जाती है; जिसमें मृतक पुरुष का एक बछिया के साथ काल्पनिक विवाह करवाया जाता है और विवाह की सारी विधि की जाती है। विधि समाप्त होने के बाद मृतक व्यक्ति की आत्मा अपने परिवार के किसी इंसान के शरीर में आकर यह कहती है कि उसकी सारी इच्छाएँ पूर्ण हुई या नहीं? और अगर मृतक व्यक्ति की कोई इच्छा अधूरी होती है, तो उसे पूरा किया जाता है।
सुबह से ऐसे ही कुर्सी में बैठी हूँ। मेरी भाभी और माँ दो-तीन बार आकर कह गए कि ऐसी हालत में इस तरह बैठे रहना ठीक नहीं। मैं आपके घर में चल रही चहल-पहल देख रही हूँ। हर कोई यही बात कर रहा है कि आप भी यहीं-कहीं होंगे। सारी विधि देख रहे होंगे। मेरी ओर किसी का ध्यान नहीं है। हाँ, आपके ताऊजी का लड़का रसिक हर बीस-पच्चीस मिनट में, मैं बैठी हूँ या नहीं ये देख लेता है। आप होते तो सबका ध्यान बटाकर मेरे पास आते। मुझे ग़ुस्सा आए ऐसी कोई ठिठोली करके चल पड़े होते। रसिक आँखों से पूछ लेता, “हो आए?” आप उसे आँखों से ही “हाँ” कहकर मेरी तरफ़ कोई इशारा करते।
आज आपकी लील की विधि होने वाली है। आपके भाई-भाभी वर के माता-पिता बनकर विधि में बैठने वाले हैं। आज आपकी शादी किसी बछिया से करवा देंगे। आप परिवार के किसी सदस्य के शरीर में आकर कहेंगे कि आपको लील पहुँचे या नहीं और यदि आपकी अन्य कोई इच्छा-वासना होगी तो वह भी बताएँगे। उसे पूरा करने का वचन भी दिया जाएगा। फिर आपका पिंडदान किया जाएगा और आपको मोक्ष मिलेगा। आपकी गृहस्थी एक ही दिन में समाप्त होगी।
आपकी माँ दालान में खूँटे से बंधी बछिया के पास आकर बैठ जाती हैं। उनके चेहरे पर नूर नहीं है। उन्होंने बछिया के शरीर पर हाथ फेरा तो वह भड़क गई और दूसरी ओर जाकर खड़ी हो गई। फिर चमड़ी को ज़ोर से झिंझोड़कर अपने शरीर पर हुए स्पर्श को झटक दिया।
मैंने आपको बात नहीं बताई। जब आपकी दादी मोतियाबिंद के ऑपरेशन के लिए गाँव से अहमदाबाद आई थीं, तब एक बार दुपहर के बाद मैं दालान में बैठकर उनकी बातें सुन रही थी। उनका ध्यान नहीं था। अचानक आपकी माँ ने मेरी ओर देखा और आपकी दादी से पूछा, “बा, सामने दालान में बैठी लड़की देखी?”
आपकी दादी ने आँखों पर हाथ से छाद बनाकर ध्यान से मेरी ओर देखा। हालाँकि मेरे शरीर के आकार के अलावा उन्हें कुछ भी दिखाई नहीं दिया होगा, फिर भी उन्होंने हामी भरी... “हंअ”
“आपको पसंद आई?”
“क्यों?”
“हमारे काळु की सगाई की बात करनी हो तो कैसी रहेगी?”
दादी माँ ने प्यार से मेरी ओर फिर देखा। फिर अपनी आँखों का पानी पोंछकर बोलीं, “आपके ससुरजी से बात करती हूँ।” आपकी माँ ने भी मुझे प्यार भरी नज़रों से देखा। मैं थोड़ी घबराहट के साथ शर्माकर अंदर चली गई। मुझे ख़ुद भी समझ नहीं आया कि यह बात सुनकर मुझे अच्छा लगा या नहीं!
कुछ दिनों तक मेरे घर में यह बात थोड़ी बहुत चली भी, लेकिन फिर आपकी बीमारी की बात सुनकर इस तरह बंद हुई कि फिर कभी उसका उल्लेख नहीं हुआ।
~
ग्यारहवीं कक्षा में पहले दिन टाइम टेबल तय नहीं हुआ था, इसलिए पढ़ाने के बजाय पहले दो पीरियड तक बिठाने के बाद सबको छोड़ देना, ऐसा तय हुआ था। पहले पीरियड में साहब ने अगर किसी को गाना आता हो, तो गाने के लिए कहा। आपने तुरत खड़े होकर दुहा (आल्हा छंद प्रकार की कविता, जो गुजराती लोक साहित्य में प्रचलित है) गाना शुरू कर दिया था, जिसे सुनकर सबसे पहले मैं हँस पड़ी थी। फिर सभी लड़के, “ऐ काठियावाडी-ऐ आता(ताऊ)!” बोलकर शोर मचाने लगे। आपका चेहरा उतर गया। दुहा गाना बंद करके आप चुपचाप अपनी जगह पर बैठ गऐ थे। थोड़ी देर बाद सारा शोर बंद हुआ और फिर आपने घबराहट भरे भाव से मेरी ओर देखा। मुझे फिर से ज़ोर से हँसी आई। उसके बाद तो हर दिन क्लास में जब भी आपको देखती, अपनी हँसी रोक नहीं पाती थी। बाद में आप भी तीखी नज़र से मेरी तरफ़ देख लिया करते थे। उस वक़्त बाल सेट करवाने का फ़ैशन था और आप आपा (गुजरात में काठी दरबार नाम की कौम का पुरुष) जैसे बाल रखते थे। ऊपर से तेल भी ख़ूब डालते थे। माथे पर तेल उतरता और पूरा दिन चमकता रहता और लाल जूते तो आप ऐसे पहनते थे, मानो नई-नई शादी हुई हो। गोमतीपुर की गलियों में पले-बढ़े लड़कों को आपके दर्शन आपा जैसे लगते थे। सब आपका मज़ाक बनाते और मैं हँसती।
एक बार ब्रेक के वक़्त मैं बेंच पर सिर झुकाए बैठी थी। आप अचानक आए। कुछ देर तक ऐसे ही बैठे रहे, फिर अचानक से पूछा, “क्यों आजकल बहुत हँसी आ रही है?” मैं सवाल सुनकर थोड़ी बौखला गई। फिर बोली, “हर कोई आप पे हँसता है।”
“लेकिन, ये सब करना आपके लिए अच्छा नहीं। वैसे भी इसकी शुरुआत तो आपने ही की थी ना! वो तो आप एक लड़की हो इसलिए। वरना अमरेली (गुजरात का एक ज़िला) में मैंने काठी बोर्डिंग के लड़कों की बेल्ट से पिटाई की थी।” मुझे भी ग़ुस्सा आया, “वैसे तो मेरा भाई भी चार रास्ते का दादा है, तो ज़्यादा शेख़ी मत बघारना!”
“तुम्हारा भाई अगर कहीं का दादा होगा तो उसे भी देख लिया जाएगा।”
तो मैंने भी कहा, “जाओ-जाओ, आए बड़े!”
शाम को छुट्टी हुई और मैं बस से उतरी। पीछे मूड़ी तो देखा कि आप आ रहे थे। मुझे घबराहट हुई, आप पीछा करते हुए घर तक आएँगे ये नहीं पता था।
सोसायटी के गेट पर पहुँचकर पीछे देखा तो आप मेरा पीछा कर रहे थे। मैंने मुँह बिगाड़कर आपको आँखें दिखाई, लेकिन आपको कोई फ़र्क़ ही नहीं पड़ा। मैं जल्दी से घर का दरवाज़ा खोलकर अंदर के कमरे में चली गई। थोड़ी देर बाद फिर से दरवाज़ा खुलने की आवाज़ अंदर तक आई। मुझे लगा कि नीता कहती थी कि तुम्हारे काठियावाडी लोग नॉनसेंस होते है। यह सच ही होगा। वरना इसे घर तक आने की क्या ज़रूरत थी?
आवाज़ सुनकर मेरे पिताजी बाहर आए।
“किसका काम है भाई?”
पूछा तो आप एक क्षण के लिए असमंजस में खड़े रहे। फिर अचानक से आपने पूछा, “यहाँ कहीं पर चक्करगढ वाले लालजी भाई रहते है क्या?”
मेरे पिताजी ने कहा, “इस सोसायटी में तो चक्करगढ वाला कोई नहीं रहता, पड़ोस के इंद्रप्रस्थ में दो-तीन लोग जान-पहचान में हैं।” लेकिन उनका वाक्य ख़त्म होने से पहले आप चल पड़े थे।
~
फिर आपने कभी मेरी ओर तीख़ी नज़र से न देखा और मैं भी हँसना भूल गई। क्लास में एक बार फिर ब्रेक के वक़्त सिर झुकाकर मैं बेंच पर बैठी थी कि आप आए। मैं सीधी होकर बैठ गई। फिर केमिस्ट्री की किताब खोलकर रासायनिक सूत्रों को देखने लगी। आपने गला साफ़ करके पूछा, “क्या आपके सामने वाला घर ख़ाली है?”
मैंने कहा, “यह एरिया अभी डेवलप हो रहा है। सड़क पर बहुत गड्ढे हैं, इसलिए कोई उस तरफ़ ध्यान नहीं देता। हमारी सोसायटी बिल्कुल ख़ाली है। लेकिन आप ये सब क्यों पूछ रहे हैं?”
“वो तो बस यूँ ही।”
आपका यह काठियावाडी लहज़ा सुनकर मेरे मन में बड़ी ठिठोली हुई। मुझे हँसी आते-आते रह गई। आपकी ओर देखा तो आप भी मुस्कुरा रहे थे।
~
एक सप्ताह के बाद जब टेंपो में से आपके घर का सामान उतरने लगा, तब मुझे समझ आया कि आपने हमारे सामने वाले घर के बारे में क्यों पूछा था। “बापूनगर में काठियावाडी पटेल ज़्यादा रहते हैं, इसलिए हमें भी उसी तरफ़ मकान ख़रीदना चाहिए।” ऐसी ज़िद करके आपने अपना अमराईवाडी वाला घर बिकवा दिया और हमारी सोसायटी में, हमारे ही सामने का घर ख़रीदवाया। आपके पिताजी और भाई को ऐसी ज़िद पसंद नहीं थी, लेकिन आप अपने मन की करवाकर ही माने और यह सारी बात बताते वक़्त आपकी माँ का पूरा चेहरा खिल उठा था। फिर उन्होंने वजह बताते हुए कहा था, “अब तक गाँव में उसके मामा के घर रहता था। इस साल ही यहाँ आया है, तो हम सबका लाडला हो गया है!” जब हमारे घर में सभी को पता चला कि सामने वाले के मकान में हमारे काठियावाडी पटेल में से ही कोई रहने आया है, तो सभी ख़ुश हो गए। देखते-ही-देखते दोनों घरों के बीच आना-जाना शुरू हो गया था।
आप इतनी जल्दी और समझदारी से काम करते थे कि एक ही महीने में मेरे माँ-बाप मेरे सगे भाई को छोड़कर आपको सारे काम सौंपने लगे थे। कील लगानी हो या सोमनाथ मेले की टिकट ख़रीदने जाना हो, सबको पहले आप ही याद आते थे। एक बार मैं अंदर कमरे में थी, तब मेरे पिताजी माँ को कह रहे थे, “ज़रा छानबीन करना, वो हमारे सामने वाले काळु का रिश्ता कहीं पर हुआ है या नहीं? लड़का चाल-चलन और बोलचाल में शरीफ़ है। रिश्ते की बात करने लायक़ है।”
~
आपकी भाभी वही साड़ी पहनकर लील की विधि में बैठी हैं जो उन्होंने आपकी शादी में पहनने के लिए ख़रीदी थी और जिसे ख़रीदने मैं भी उनके साथ गई थी। भाभी अपने शरीर पर एक के बाद एक साड़ी लपेटकर मुझे पूछतीं, “कैसी लग रही है ये? मेच हो रही है?” और मैं शर्म से पानी-पानी हो जाती थी। आपकी भाभी को क्या अंदाज़ा भी होगा! वह बार-बार मुझे पूछ रही थीं, “क्यों आज ऐसा विचित्र बर्ताव कर रही हो?”
दुपहर की यह धूप, ऐसा लग रहा है कि शरीर जैसे कोई गाढ़े कपड़ा का बना हो—ऐसी गर्मी हो रही है। पूजा की आग का धुआँ शामियाने के कपड़े में फँसकर, घूमकर आँखों में जा रहा है। सामने रसिक अपने हाथों को बाँधकर, होंठ भींचे हुए खड़ा है। उस दिन हमें टॉकीज़ में से बाहर आते हुए उसने देख लिया था। कैसे ध्यान से मुझे देख रहा था।
“ये कौन है, काळु?” उसने सीधा पूछ लिया।
“मेरी दोस्त है।”
मैं आपके जवाब से चिढ़ गई थी। मुझे लगा अभी सारी बात बता देंगे, नॉनसेंस। मैंने कितनी बार मना किया था कि एक बार घर से इत्मीनान से छुट्टी लेकर, कोई अच्छा-सा बहाना बनाकर नदी के उस पार पिक्चर देखने चलते हैं, लेकिन तू तो ऐसे ज़िद पे अड़ा था कि, “नहीं, आज बुधवार है... यूनिफ़ॉर्म की छुट्टी है। आज तूने बाल भी धोये हैं। वरना और दिनों में तू बापुनगर की सिविल ड्रेस—स्कर्ट और टॉप पहनकर आएगी। तू ‘अंबर’ में फ़िल्म देखने ले गया था। वहाँ अगर मैं अपना हाथ तेरे हाथ में से छुड़ाती थी तो तू ग़ुस्सा करता था और इस वक़्त इसे ये कौन मिल गया? उसके जाने के बाद मैं तुझ पर ग़ुस्सा हो गई, “कौन था वह? और मेरी तरफ़ ऐसे क्यों देख रहा था?”
आपने हँसते हुए कहा, “वह मेरा चचेरा भाई था।”
“वह मुझे इस तरह क्यों देख रहा था?”
आप ग़ुस्सा हो गए, “उसके बारे में ऐसी बात मत करो। वो मेरा भाई है। आई बड़ी... मेरी तरफ़ देख रहा था वाली!”
ग्यारहवीं कक्षा में पढ़ाई करने के लिए, मैं अपनी बुआ के घर वाडज गई थी। मैंने तुम्हें एड्रेस और बस का नंबर दिया था। मुझे यक़ीन था कि तुम आओगे, लेकिन नहीं आए। वह परीक्षा इतनी महत्त्वपूर्ण नहीं थी, लेकिन तुम नहीं आए इसलिए मुझे कहीं चैन नहीं पड़ रहा था। बहुत ग़ुस्सा आया। जैसे-तैसे करके पंद्रह दिन निकाले। परीक्षा से एक दिन पहले घर आई, तभी मैंने फ़ैसला कर लिया था कि तुम्हें ‘बेस्ट लक’ कहने नहीं आऊँगी। घर आने के बाद दो घंटे तक तुम कहीं दिखे नहीं। इसलिए ना-मर्ज़ी सही लेकिन तुम्हारे घर आई। तुम्हारी माँ से पूछा, “काळु कहाँ गया? कल परीक्षा है। कितना पढ़ा है उसने?” तुम्हारी माँ रोने लगी। मैं घबरा गई। तुम्हारी भाभी ने बताया कि तक़रीबन दस दिन पहले सीने में दर्द उठा, जिसके चलते तुम्हें अस्पताल ले गए थे। वहाँ तुम्हारे ह्रदय के वाल्व में ख़राबी है ऐसा बताया और तुम्हें तुरत मुंबई ले जाया गया। शायद वाल्व बदलना भी पड़ सकता है और यह एक भारी और मुश्किल ऑपरेशन है। यह सुनकर मैं घर वापस आ गई। सोच रही थी कि इस वक़्त तू किसी अनजान अस्पताल में अनजान बिस्तर पर पड़ा दर्द से बिलख रहा होगा। मैं रो पड़ी। घर में सब पूछने लगे, “क्यों रो रही हो!” मैंने भारी आवाज़ में बड़ी मुश्किल से भाभी से पूछा, “काळु को कुछ होगा तो नहीं ना?” वजह जानने के बाद मेरा रोना किसी को पसंद नहीं आया। सब लोग उतरे मुँह लेकर बैठ गए। परीक्षा के दौरान भी रोज़ मैं घर आती और रो पड़ती। मैं खुलकर रो सकूँ उतनी जगह भी नहीं मिलती थी। चार-पाँच दिनों तक सबने यह सह लिया, लेकिन एक दिन भाभी ने कड़वाहट भरे लहज़े में कहा, “आपकी कौन-सी मंगनी हो गई थी, जो रोने बैठे हो?”
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विधि के बीच में सब लोग फलाहार करने गए हैं। माँ और भाभी ने आग्रह करके ज़बरदस्ती मुझे थोड़ा खिलाया। आज आपके घर में सबका उपवास है। सब दिन में एक ही वक़्त खाएँगे, लेकिन मुझे तो एक उपवास भी नहीं रखने दे रहे है। मुंबई से आने के बाद आपने पढ़ाई छोड़ दी थी। डॉक्टर ने भारी काम करने से मना किया था। ग्यारहवीं कक्षा में अच्छे प्रतिशत प्राप्त करने पर जब मैं आप के यहाँ शेष (सूखे नारियल के टुकड़े, जिसे ख़ुशी के मौक़े पर बाँटा जाता है) बाँटने आई, उस वक़्त आप मुझे कैसे देख रहे थे? चार रास्ते पर खड़े होकर छिछोरी हरकत करके छेड़ने वाले गुंडे जैसी आपकी आँखें देखकर मैं डर गई थी। आपकी आँखें अंदर घंस गई थी। शरीर भी कमज़ोर हो गया था। मैं घर आकर फिर से रोई थी। आपने कभी मुझे इस तरह नहीं देखा था। आपकी तबीयत में धीरे-धीरे सुधार हो रहा था। ऐसा मानकर कि सब कुछ ठीक है, आपके घर में यह चर्चा भी हुई थी कि अब ऑपरेशन करवाने की ज़रुरत है या नहीं। पढ़ाई छोड़ने के बाद आप कुछ समय तक घर बैठे रहे और फिर हीरा बाज़ार जाने लगे। आपका हाथ तुरंत लेन-देन में बैठ गया। आपके सौदे के पहले मुनाफ़े में से मेरे मना करने के बावजूद आपने मुझे किताबें और नवनीत की गाइड्स लेकर दी थी।
~
बछिया को जबरन खींचकर लाया गया है। वह इतने सारे लोगों को देखकर डरी हुई लग रही है। उसके पैर थोड़ी देर के लिए भी स्थिर नहीं रहते है। वह छटपटा रही है। पंडित ने बड़ी मुश्किल से उसके चारों पैर धुलवाए और पूँछ पर थोड़ा पानी डलवाया। जैसे ही माथे पर तिलक करने गए, उसने अपना सिर घुमा दिया।
एक दिन आपसे मिलने के चक्कर में स्कूल से घर लौटने में देर हो गई थी, लेकिन घर पर किसी ने मुझे डाँटा नहीं। बर्तन धोते समय मेरी भाभी ने मुस्कुराते हुए मेरे लिए चल रही रिश्ते की बात मुझे बताई। “मेरी पढ़ाई बीच में ख़राब हो जाएगी” से लेकर मैंने कई सच्ची-झूठी दलीलें देकर “मैं अभी रिश्ता नहीं जोड़ना चाहती” ऐसा बताया, लेकिन सब अपनी बात पे अड़े हुए थे। “शादी अभी कहाँ करनी है? और ससुराल जाकर भी तो पढ़ाई की जा सकती है” ऐसा बोलकर कितनी लड़कियाँ ससुराल जाकर स्नातक हुई, उसके उदाहरण दिए गए।
फिर उनका भी घर आना-जाना शुरू हुआ। कभी-कभी उनके साथ बाहर भी जाना पड़ता था। आप सौ बार समझाने पर भी यह मानने को तैयार नहीं थे। एक बार जब मैं समय लेकर आपको समझाने आई, तब आप मुझे वही लोफ़र जैसी नज़रों से देखने लगे थे, इसलिए मैं जल्दी से बात ख़त्म कर के चल दी।
रिश्ता करते समय दोनों तरफ़ से यह तय हुआ था कि शादी दो साल बाद होगी, लेकिन उनकी दादी बीमार थी और वह अपने पोते की शादी देखकर जाना चाहती है, ऐसी उनकी माँग की वजह से मेरी शादी की तारीख़ जल्दी तय करने का संदेश आया। फिर से मेरी कोई भी दलील काम न आई। उन्हीं दिनों आपकी तबीयत फिर से ख़राब हो गई थी। आपको मेरी शादी का कार्ड देने के लिए आने को मेरे पैर नहीं उठ रहे थे। जब पड़ोस की औरतें पापड़ बेलने आई और गीत गाने लगी तब आपको पता चला कि अब मेरी शादी क़रीब है।
मैं बाहर चौके पर बर्तन धो रही थी, आपकी भाभी आई और बोली, “काळुभैया आपको इसी वक़्त बुला रहे है।” मैं डर गई, क्या हुआ होगा! मैंने जवाब दिया, “उन्हें कहना कि अभी थोड़ी देर में बर्तन धोकर आती हूँ।” लेकिन आपकी भाभी बर्तन धोने बैठ गई और बोली, “आप जाइए, ये बर्तन मैं धो देती हूँ।” शादी के एक कार्ड पर मैंने फटाफट आपका नाम लिखा और आपके घर आई। घर में आपके अलावा कोई भी नहीं था। आपको कार्ड देकर मैं खिड़की से पीठ लगाकर खड़ी रही। “बैठ” आपने कहा, आपका शरीर बहुत कमज़ोर हो चुका था। थोड़ी धँसी हुई आँखों में से आपकी वही नज़र मुझ पर टिकी। आप थोड़ा उठे और मेरा हाथ पकड़ कर मुझे अपने पास खींच लिया। “मेरे पास बैठो”, मैं बैठ गई।
एक हाथ से आपने कार्ड खोला, पढ़ा और हँसे। फिर मेरा हाथ अपने हाथ में लिया। हाथ को धीरे-धीरे सिर पर, फिर बालों में, हर जगह ले जाते हुए मेरे बालों में अपनी मुट्ठी बाँधकर मुझे अपने पास खींच लिया और पहली बार चुंबन किया। फिर...मुझे और कोई डर नहीं था, सिवा इसके कि कहीं इसमें आपके कमज़ोर हृदय को नुक़सान न पहुँचे। मेरे सिर के नीचे शादी के कार्ड का काग़ज़ घिस रहा था। आपकी साँस इतनी तेज़ी से चल रही थी, मानो दम चढ़ा हो। इसलिए मुझे कोई हलचल करने में डर लग रहा था। पिछले चार-पाँच दिनों से मुझे लगाई जा रही हल्दी का रंग फ़र्श पर घिसता रहा।
जैसे ही मैं घर से बाहर निकली, सामने रसिक मिला। उस दिन की तरह मुस्कुराते हुए उसने पूछा, “क्या कर रहा है काळु?” इससे पहले कि वह मेरी ओर देखता, मैं दौड़ती अपने घर में घुस गई। शादी के बाद मेरी पगफेरे की रस्म भी साथ में ही रखी थी। उनकी नौकरी दूर के गाँव में होने की वजह से फिर तुरत मायके आने का कोई सवाल ही नहीं पैदा होता था। एक बार जब मेरे भाई-भाभी मिलने आए तो मैंने भाभी से आपकी तबीयत के बारे में पूछा था। उन्होंने बताया कि आपका ऑपरेशन अच्छे से हो गया था।
उनकी दादी, जो हमारी शादी देखकर मरना चाहती थीं। उन्हें अब हरा-भरा घर देखकर ही मरने की इच्छा जगी और भगवान ने उनकी प्रार्थना शायद पहले ही सुन ली होगी। मेरे मिस्टर ने भी ख़ुश होकर कहा था, “हमने तो पहली रात को ही धमाका किया!”
रिवाज के मुताबिक़ मेरी पहली प्रसुति मायके में करनी थी। मुझे लेने आने का मुर्हूत देखने और बाक़ी बातें करने के लिए पिताजी को बुलाया था। नियत दिन के बाद भी तीन दिन बीत गए, लेकिन वे नहीं आए। मेरे ससुराल में सब लोग ग़ुस्सा हुए। मुझे थोड़ी बहुत बातें भी सुनाई, इसलिए मुझे भी बुरा लगा और आप याद आ गए। फिर चौथे दिन पिताजी अकेले आए। उन्हें देखकर मेरे मन के सारे बाँध टूट पड़े “पिताजी, आप सब लोग क्यों नहीं आए? आपको इतनी देर क्यों हुई?” उन्होंने गंभीर स्वर में कहा, “हम समय से ही आ जाते बेटा, लेकिन हमारे सामने वाला काळु एक रात पहले हि—”
लील की विधि समाप्त हो चुकी है। आपका परिवार समूह में खड़ा है। ब्राह्मण श्लोक बोल रहे हैं। बाक़ी लोग पानी की बाल्टियाँ भरकर लाए हैं। सबके ऊपर बाल्टियाँ भरकर पानी डाला जा रहा है। ब्राह्मण आपकी आत्मा का आह्वान कर रहे हैं; आप तक लील पहुँचे या नहीं ये बता जाओ ऐसी आवाज़ें दे रहे हैं। सब एक-दूसरे की ओर देख रहे हैं। अगर कोई थोड़ा भी काँपता है तो हर कोई चौंक जाता है, ज़रूर उसके शरीर में आपकी आत्मा आई है, लेकिन नहीं, यह बस ठंडी हवा का झोंका था। क्या आप तक लील पहुँचे? नहीं पहुँचे? अगर आप तक नहीं भी पहुँचे तो आप किसी के शरीर में प्रवेश करके बता देंगे। अच्छा-ख़ासा पानी डालने के बाद भी आपके आने का कोई संकेत नहीं मिला। फिर से और ज़्यादा पानी डाला गया और ज़ोर-ज़ोर से मंत्रोच्चार किया गया। बुलावे की आवाज़ तेज़ हुई। हर कोई उलझन में था। धीमी-धीमी फुसफुसाहट हुई। क्या करें? अब क्या करें?
आख़िरकार यह तय हुआ कि आप को लील पहुँच ही गए होंगे, लेकिन आपकी माँ को यक़ीन नहीं है। “तब तो वो किसी के शरीर में आकर बोलता ना?” किसी को भी इस पर चर्चा करना ठीक नहीं लगा। बारी-बारी करके सबने अपने शरीर पोंछे। फिर सब दो-चार की टोली में बातें करते हुए, अपने-अपने अपने घर गए। आपकी लील की विधि समाप्त हुई।
मैं उठकर अंदर के कमरे में जाकर लेटती हूँ। पेट में हल्की-सी फड़फड़ाहट हो रही है और मैं अपनी आँखें बंद कर लेती हूँ!
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