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काफ़्का, नैयर मसूद और अब्सर्डिटी

कहानी में बंदूक़

नैयर मसूद की कहानियों से मेरा परिचय लगभग साल भर पहले हुआ।

लखनऊ विश्वविद्यालय में फ़ारसी पढ़ाने वाले एक लघुकथा लेखक, जिन्होंने काफ़्का का अनुवाद किया था, जिसके पास अनीस और मर्सियाख़्वानी पर बेशुमार जानकारी थी और लखनऊ में नख़्ख़ास इलाक़े के ‘अदबिस्तान’ में रहते थे।

इस जानकारी के साथ, इस ‘कल्ट’ समय में हम नैयर मसूद के लेखन में अवध की शामें, नष्ट होते समय या संस्कृति पर नौहागरी देखने-सुनने जाते हैं। लेकिन हमारे हाथ इसमें से कुछ भी नहीं लगता। कहानियों को खोलने की वे सारी चाबियाँ जो हमने अभी तक तैयार कर रखी थीं, कहानी को क्या ही खोलतीं बल्कि उसी ताले में अटक कर रह जाती हैं।

पढ़ते हुए आप सोचते रहते हैं कि कहानी में इतनी बंदूक़ें हैं और एक भी नहीं चल रही है। हमेशा लगता है कि कहानी में घटती हर घटना के पीछे कुछ महान या ख़ास घट रहा है, जिसका अर्थ या तो आगे खुलने वाला है या आपसे कहीं चूक हो रही है।

कथा में कथाकार

लेखक को अपनी कृति में कितना उपस्थित रहना चाहिए? दीवान में शायर का ‘दर्दो-ग़म’ और कहानी में लेखक को ढूँढ़ना नया शग़ल नहीं है। आत्मकथात्मक स्वर रचना पर इस क़दर तारी रहते हैं और लेखक का जीवन ही कृति का सबसे बड़ा गारंटर हो जाता है। इसमें लेखकीय दख़ल और अतिक्रमण इस क़दर होता है कि कहानी के सभी अच्छे-बुरे तत्वों का एकमात्र असत्यापित किंतु रहस्यमयी स्रोत, रचनाकार का जीवन हो जाता है। 

कलाकार की महिमा, कृति की महिमा हो जाती है। कथा में व्यक्त संघर्ष, कथाकार का संघर्ष हो जाता है। हालाँकि स्थानीयता कोई दोष नहीं है, न उसका आग्रह ही। नजीब महफ़ूज़ के यहाँ क़ाहिरा है, लेकिन उस क़ाहिरा में नजीब महफ़ूज़ ढूँढना आसान नहीं।

फ़्लॉबेयर ने कहा था—
An author in his book must be like God in the universe, present everywhere and visible nowhere.

नैयर मसूद जीवन भर लखनऊ में रहे लेकिन उनकी कहानियों में लखनऊ-लखनऊ नहीं गूँजता। न ही वह कहानी में लखनऊ के प्रतिनिधि की हैसियत से कहीं दिखते हैं।

उनकी एक कहानी ‘ताउस चमन की मैना’ लंबी, सरलतम और एक गति से चलती हुई कथा है। यह अवध की कथा है। इसमें अतीत है, लेकिन अतीतमोह और अतीतग्रस्तता नहीं है। खोई चीज़ों का शोक नहीं है। अवध पर केंद्रित इतनी लंबी कहानी में भी कोई काव्यात्मक विवरण नहीं है, कोई गुहार-पुकार-हूक नहीं है। अपरिहार्यता और उदासीनता के बीच घटनाएँ हैं, पात्र हैं तथा उनके भी बीच का जो अंतराल है, समय बस उतना ही महत्त्व रखता है इस कहानी में। 

‘मिस्कीनों का अहाता’ नाम की एक कहानी में गुज़र चुके लंबे समय के लिए वो मुश्किल से एक-दो वाक्यों का इस्तेमाल करते हैं और मंज़र बदल जाता है।

मृत्यु

समरसेट मॉम ने एक कहानी लिखी थी : The Appointment in Samarra

‘बग़दाद के एक व्यापारी का नौकर बाज़ार में मृत्यु से टकरा जाता है और उससे बचने के लिए सामर्रा भाग जाता है, लेकिन मृत्यु ने दरअस्ल उसी रात सामर्रा में उससे मिलने का वादा किया था।’

नैयर मसूद के यहाँ मृत्यु के पहलू हैं, लेकिन उतने ही मामूली और ग़ैर-मामूली हैं जितने वे जीवन में हैं। कहीं-कहीं मृत्यु अचानक घटती है और वह उससे अप्रभावित, एक वाक्य में बात लिखकर आगे बढ़ जाते हैं और किसी कहानी में मृत्यु, शुरुआत से अंत तक मौजूद है। 

‘अत्तरे-काफ़ूर’ में मृत्यु पसरी हुई है। मृत्यु के प्रति वह इतने ही संजीदा और न-संजीदा हैं जितने हम। ‘अत्तरे-काफ़ूर’ में मृत्यु का वैभव नहीं है, बस एक अपरिहार्य मौजूदगी है, जिसके लिए संभवतः पाठक चौकन्ना बैठा हुआ है जिसे ग़ालिब ने ‘मर्ग का खटका’ कहा था। इसके अलावा ‘शीशाघाट’ में मृत्यु एक रहस्यमयी घटना की तरह आती है और किरदारों के ठीक पीठ पीछे घट जाती है।

ऊलजलूलियत (अब्सर्डिटी)

नैयर मसूद ने काफ़्का की कहानियों का अनुवाद किया था और एडगर एलान पो के साहित्य से भी परिचित थे। शायद इसी वजह से उनकी कहानी का ख़्वाह-मख़्वाह या ज़रूरत से अधिक काफ़्काई पाठ तथा व्याख्याएँ की जाती हैं। शीशाघाट के मुख्य किरदार की आवाज़ में हकलाहट है; और वह यूँ व्यक्त हुई है;

“…आख़िर मेरी ज़बान में गिरहें-सी पड़ जातीं, गर्दन की रगें फूलने लगतीं, गले और सीने पर इतना ज़ोर पड़ता कि दम घुटने लगता और ऐसा मालूम होता कि साँस उखड़ जाएगी। नाचार बात अधूरी छोड़कर हाँपने लगता और साँस ठहरने के बाद नए सिरे से बात शुरू करता। इस पर मुँह बोला बाप मुझे डाँटता, जहाँ तक कह चुके हो, मैंने सुन लिया। अब आगे बढ़ो।”
 

किंतु कहानी का अंत आते-आते किरदार का यह पक्ष बिल्कुल गौण और अर्थहीन होता जाता है। कहानी के बीच और आख़िरी में पैदा हुए कई तत्व कथा के मुख्य वाहक हो जाते हैं। काफ़्का ने तंत्र और जीवन की जिस जटिलता तथा अब्सर्डिटी की ओर इशारा किया था, उन कहानियों में घटनाएँ उसी प्रभाव को पैदा और गहन करने के लिए घटती हैं।

नैयर मसूद, इसके बरक्स, घटनाओं के अर्थ और अर्थहीनता, दोनों के प्रति उदासीन हैं। जहाँ पात्र तथा घटनाएँ संभवतः कथा में कोई बड़ा योगदान न दें किंतु वो घटती और ग़ायब हो जाती हैं। यह सातवें दशक की यूरोपीय उदासी और एब्सर्डिटी से एक अलग कथा विन्यास है, जहाँ एक अजनबियत ज़रूर मौजूद है किंतु उसका निकष एब्सर्डिटी में होना नहीं होना, पूर्वनिर्धारित नहीं है।  

मिस्कीनों का अहाता, किताबदार, अहराम का मीर मुसाहिब आदि कहानियों में नहीं कहा जा सकता कि कहानी के अहम मोड़ में किरदार जीवन के मूलभूत प्रश्नों से अप्रभावित कहाँ चले जाते हैं? न उन जगहों के ख़ुलासे हैं न ही उनके लक्ष्यों के।

कहानियों की भाषा और शिल्प

नैयर मसूद की भाषा में कोई ऐसी जादूगरी और चाबियाँ नहीं है, जहाँ से कहानी के सत्व, तत्व और केंद्र में घुसा जा सके। उनकी भाषा अनुवाद, उद्धरण और कवि की भाषा नहीं है और इस मायने में वह गद्य के अप्रतिम लेखक हैं। उन्होंने कभी उपन्यास नहीं लिखा (मेरी सीमित जानकारी में) वह ज़ुबां की वुसत ढूँढ़ते हुए कहानियों में नहीं आए हैं। 

वह गद्य के अहाते में बैठा कवि नहीं है। लय और र-वानी के परे कुछ वाक्य कहानी में चमकते हैं और उनका इंगित अर्थ अंत तक नहीं पता चलता। यह सोचने पर विवश करता है कि किसी बात का कहानी में आगे कुछ मतलब निकलेगा कि नहीं, मसलन—

“…लेकिन मेरे अत्तर काफ़ूर में काफ़ूर की ख़ुशबू महसूस नहीं होती। इसमें कोई भी ख़ुशबू महसूस नहीं होती। यह सफ़ेद चीनी के नीचे से चौकोर मर्तबान में भरा हुआ एक बेरंग महलूल है। गोल ढक्कन हटाने पर मर्तबान के तंग दहाने से किसी क़िस्म की ख़ुशबू नहीं निकलती और महलूल को सूँघने से ख़ाली वीरानी का एहसास होता है, लेकिन दोबारा पूरी साँस खींचकर सूँघने से उस वीरानी में कुछ दिखाई देता है”
 
नैयर मसूद इस लेख में लेखक की तरह मौजूद हैं, लेकिन उन्होंने अनीस, ग़ालिब पर टीकाएँ लिखी हैं। कई रोचक फ़ारसी-कहानियों का अनुवाद किया है और उम्र भर साहित्य पढ़ाया है। अँग्रेज़ी में उनकी कहानियों के अनुवाद आ चुके हैं और एक संकलन हिंदी में भी लिप्यंतरित हो चुका है। लखनऊ के लेखक से निकले इस ख़ास क़िस्म के जादुई संसार में ग़ैर-यूरोपीय तथा ग़ैर-रिवायती तत्व मौजूद हैं, जिनका हिंदी में विवेचन और उत्सव अभी बाक़ी है।

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