आख़िर ऐसे तो न याद करें प्रेमचंद को
अपूर्वा श्रीवास्तव 01 अगस्त 2024
गत 31 जुलाई 2024 को काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में महान् साहित्यकार प्रेमचंद की जयंती के उपलक्ष्य में ‘प्रेमचंद का महत्त्व’ शीर्षक विचार-गोष्ठी का आयोजन विभागाध्यक्ष प्रो. वशिष्ठ द्विवेदी के संरक्षण में किया गया।
औपचारिक रूप से कार्यक्रम का शुभारंभ हुआ। द्वीप-प्रज्वलन, माल्यार्पण, कुलगीत, सम्मान आदि-आदि।
इस अवसर पर प्रो. वशिष्ठ द्विवेदी, प्रो. श्रद्धा सिंह, प्रो. श्रीप्रकाश शुक्ल, प्रो. मनोज सिंह, प्रो. नीरज खरे, डॉ. अशोक कुमार ज्योति और डॉ. देवी प्रसाद तिवारी सहित कुछ शोध छात्रों ने अपना वक्तव्य रखा। मंच का संचालन शोधार्थी विकास तिवारी और धन्यवाद-ज्ञापन अंबुज यादव ने किया।
किसी भी साहित्यिक गोष्ठी की ही तरह अपनी गति से यह गोष्ठी भी धीरे-धीरे आगे बढ़ती गई। पोस्टर से प्रेमचंद का भूरा चेहरा सभागार में बैठे छात्रों को एकटक निहारता रहा, मानो कह रहा हो—मेरे बच्चो, संवेदनशील बनो! प्रतिबद्ध बनो! आदर्शवादी बनो!
बाहर बारिश की छींटे पड़ रही थीं और अंदर विचारों की। इतने में एक जाना-पहचाना, लेकिन अलग शब्द सुनाई पड़ा—जायसी।
डॉ. देवी प्रसाद ने अपने वक्तव्य के अंत में जायसी को कोट करते हुए कहा—“जायसी मुसलमान होते हुए भी हिंदुओं की कथा कहते हैं तो इसमें कौन-सी बड़ी बात है, अरे तीन-चार पीढ़ी पहले ही न तो कन्वर्ट हुए होंगे।” इस पर सभागार तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज उठा।
"केइ न जगत जस बेंचा, केइ न लीन्हि जस मोल।।
जो यह पढ़ें कहानी , हम सँवरे दुइ बोल।।"
‘दो बोलों’ की चाह रखने वाले जायसी का हम आख़िर किस रूप में स्मरण कर रहे हैं? जायसी हिंदी साहित्य का बड़ा नाम हैं, अवधी का बड़ा नाम है और सबसे बढ़कर ‘मनुष्यता’ का पर्याय हैं। आख़िर कब तक हम मनुष्य को धर्म के कटघरे में खड़ा करके देखेंगे?
हम साहित्य के संरक्षक हैं, अध्यक्ष हैं, अध्यापक हैं, अध्येता हैं, सब कुछ हैं, और सब होकर भी सहृदय नहीं हो सके : यह दुखद है। इस सहृदयता की अवधारणा युगों से शास्त्रों में चली आ रही है, लेकिन वास्तविकता में वह कितनी बंजर और खोखली है; यह कहने की ज़रूरत नहीं है।
जायसी जैसे सेक्युलर और सहृदय के लिए ऐसे शब्दों का प्रयोग करना मानवता की आत्मा पर प्रहार करने जैसा है। हम हर बीतते दिन किस तरह सांप्रदायिक होते जा रहे हैं, यह विचारणीय है। ज्ञान-परंपरा और साहित्य पर किसी धर्म या जाति विशेष का एकाधिकार नहीं हो सकता है। साहित्य समाज से है और समाज विविधताओं से।
बाग़ वही ख़ूबसूरत होगा, जिसमें रंग-बिरंगे फूल खिलेंगे फूलने-खिलने देना ही हमें मनुष्य बनाए रखेगा; तब जब मनुष्य होते हुए भी मनुष्य बने रहना सबसे कठिन होगा।
जायसी के विषय में शिव कुमार मिश्र लिखते हैं—“जायसी लोकजीवन के प्राणवान चित्रण के लिए, अपनी उदार और सेक्युलर दृष्टि के लिए अपने निश्छल फ़कीराना अंदाज़ के लिए, अपने बड़े ऊँचे मनुष्यत्व के लिए, हमेशा याद किए जाएँगे।”
बड़े ऊँचे मनुष्यत्व के लिए—अफ़सोस।
प्रेमचंद इंसानियत और मनुष्यता के लेखक हैं। उनका साहित्य संवेदनशील होना सिखाता है, उनकी ही जयंती पर संवेदनाओं और विचारों का ऐसा वीभत्स वर्णन ख़तरनाक है। हिन्दी पट्टी की सबसे बड़ी समस्या यही है कि हम प्रत्येक चीज़ को बाइनरी में देखने के आदि हो चुके हैं।
संवेदना मंचों पर ही उमड़ती है और मंच से उतरते ही हमारी लेदर की टकाटक जूतों (प्रेमचंद की तरह सबके जूते फटे नहीं होते) के तले दबकर दम तोड़ देती है।
यह शुभकामनाओं के विस्फोट का समय है, सो शुभकामनाओं सहित जायसी के ही शब्दों में—
"जब लगि तन पर छार न परै,
तब लगि यह तृष्णा नहिं मरै।"
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