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आज वर्षांत और कल होने वाले वर्षारंभ के बीच कोई विच्छेद नहीं है

आने-जाने से ही मिलकर यह संसार बना है। इन दोनों के बीच कोई विच्छेद नहीं है। विच्छेद की कल्पना हम अपने मन में ही करते रहते हैं। सृष्टि, स्थिति और प्रलय ये तीनों एकमेव होकर रह रहे हैं। सदा एक साथ बने हुए हैं। इसी एक साथ रहने का नाम है—जगत्-संसार।

आज वर्षांत और कल होने वाले वर्षारंभ के बीच कोई विच्छेद नहीं है—एकदम चुपचाप, बड़े सहज रूप में वर्ष का यह अंत वर्ष के उस आरंभ में प्रवेश कर रहा है।

किंतु इस अंत और आरंभ के बीच में एक बार हमारे लिए रुककर खड़े होने की ज़रूरत है। जाने और आने को एक बार अलग कर जानना होगा, नहीं तो इन दोनों को एक साथ मिलाकर कभी नहीं जान पाओगे।

इसलिए आज वर्षांत के दिन हम केवल जाने की तरफ़ ही मुँह फिराकर खड़े हए हैं, अस्ताचल को सम्मुख रखकर आज हमारी यह पश्चिमाभिमुखी उपासना है। ‘यत् प्रयन्त्यभिसंविशंति—सारी गतियाँ जिसमें प्रवेश कर रही, दिन के अंतिम क्षण में जिसके चरणप्रांत में सभी चुपचाप भूमिष्ठ होकर विनत पड़े हुए हैं, आज सायाह्न में हम उसे नमस्कार करेंगे।’

अवसान को, विदाई को मृत्यु को आज हम भक्ति के साथ गंभीर रूप में जानेंगे—उसके प्रति हम अविचार नहीं करेंगे। उसे उसी की छाया जानेंगे—यस्य छायामृतम् यस्य मृत्युंच। जिसकी छाया अमृत और मृत्यु दोनों है।

मृत्यु बड़ी सुंदर है, बहुत मधुर हैं। मृत्यु ही जीवन को मधुर बनाए हुए है। जीवन बहुत कठोर है, वह सब कुछ चाहता है, सब कुछ चपेटे रहता है। उसकी बज्रोपम मुट्ठी कुछ भी नहीं छोड़ना चाहती है। मृत्यु ही उसकी कठोरता को रसमय बनाए हुए है, उसके खिंचाव को शिथिल किए हुए है; मृत्यु ही उसकी आँखों में आँसू ला देती है, उसकी पाषाण जैसी अचलता को विचलित कर देती है।

आसक्ति जैसी निष्ठुर शत्रु और कुछ नहीं है, वह सिर्फ़ अपने को ही पहचानती है; वह किसी पर दया नहीं करती है, वह किसी के भी लिए रास्ता नहीं छोड़ना चाहती है। एक तरह से यह आसक्ति ही हो गया है—जीवन का धर्म, सब कुछ वह स्वयं लेगा, इसलिए सभी के साथ वह सिर्फ़ लड़ाई करता रहता है।

त्याग बहुत सुंदर और बहुत कोमल होता है। वह द्वार खोल देता है। संचय को वह केवल एक स्थान पर स्तूपाकार रूप में उद्धत नहीं होने देता है। वह उसे बिखेर देता है, सबमें बाँट देता है। मृत्यु में भी वह उदारता होती है। मृत्यु परोसती है। सभी में वितरित कर देती है। जो एक ही जगह रहकर बड़ा होना चाहता है, उसे वह विस्तृत कर देती है।

संसार के ऊपर मृत्यु होने के कारण ही हम क्षमा कर पाते हैं। नहीं तो हमारा मन किसी भी तरह कोमल नहीं होना चाहता है। सभी जाते हैं, चले जा रहे हैं, हम भी एक दिन चले जाएँगे। इस विषाद की यह छाया सर्वत्र करुणा का एक लेपन कर देती है। चारों ओर पूर्वी रागिनी के कोमल सुर बजाती हुई हमारे मन को रुलाती रहती है। विदाई का यह सुर जब हमारे कानों में पड़ता है, तब क्षमा करना अत्यंत सहज हो जाता है, तब वैराग्य चुपचाप आकर हमारी लेने की ज़िद को देने की दिशा में धीरे-धीरे मोड़ देता है।

कुछ भी नहीं रह जाता है, इसे जब जान लेते हैं, तब पाप को, दुख को, क्षति को फिर एक मात्र सत्य के रूप में हम नहीं जानते हैं। दुर्गति भयंकर विभीषिका हो उठती अगर यह पता चलता है कि वह जहाँ हैं, वहाँ से जरा भी हिलेगी नहीं। किंतु, हमें पता है, सभी खिसकता रहता है, सभी हटता रहता है और वह भी एक दिन हट जाएगी, सुतराम् उसके संबंध में हमें हताश नहीं होना चाहिए। अनंत गति के बीच में पाप केवल एक स्थान पर ही पाप है, किंतु, वहाँ से वह आगे बढ़ जाता है। हम लोग सदा यह नहीं देख पाते हैं कि किंतु, वह सदा चलता रहता है। वहाँ ही उसके पथ का अंत नहीं है—वह सदा परिवर्तन और संशोधन की ओर उन्मुख रहता है। पापी के भीतर पाप यदि स्थिर होकर ही बना रहता, तो फिर उस स्थिरता पर रुद्र का असीम शासन दंड भयंकर वज़न की तरह उसे एक बार ही विलुप्त कर देता। किंतु विधाता का दंड तो उसे एक स्थान पर चिपककर रहने नहीं देता है, वही डंडा उसे ताड़ित करता हुआ आगे हाँकता जा रहा है। इस तरह आगे चलाते जाना ही उसकी क्षमा है। उसकी मृत्यु सिर्फ़ मार्जना करती है, सिर्फ़ क्षमा की ओर ले जा रही है।

आज वर्ष शेष क्या हमारे जीवन को उसके उसी क्षमा के द्वार पर ले जाकर नहीं खड़ा करेगा? जिसके ऊपर मरण की सील मुहर लगी हुई है, जो जाने वाली चीज़ है, उसे क्या आज भी हम जाने नहीं देंगे? वर्ष भर पाप के जिस कूड़े को इकट्ठा किया है, आज वर्ष को विदाई देने के समय क्या पाप के कुछ अंश को विदा नहीं कर पाएँगे? क्षमा कर, क्षमा लेकर निर्मल हो नए वर्ष में क्या प्रवेश नहीं कर पाएँगे?

आज हमारी मु‌ट्ठी ढीली हो जाए। केवल छीनेंगे, केवल मारेंगे यही करते जाने में कोई सुख, कोई सार्थकता तो मिली नहीं है? जो सब कुछ ग्रहण कर लेता है, आज उसके सम्मुख आकर ‘छोड़ूँगा और मरूँगा’ मेरा मन सिर्फ़ यही बात कहे। आज उसमें संपूर्ण रूप से छोड़ना, पूर्ण रूप से भरना तो एक क्षण में कर नहीं पाऊँगा; फिर भी इसी ओर मेरा मन झुका रहे, अपने को देने की तरफ़ ही, उसकी अंजलि फैली रहे, सूर्यास्त की ओर ही उसकी बाँसुरी बजती रहे, मृत्यु की मोहन रागिनी से ही प्राण क्रंदन कर उठें। 

नव वर्ष का भार ग्रहण करने के पूर्व आज सांध्य-वेला में उसी सर्व भार मोचन रूपी समुद्र-तट पर सारे बोझ को ही उतारकर आत्म-समर्पण में अवगाहन करूँ, निस्तरंग, नील जलराशि में शीतल हो लूँ; वर्ष के अवसान को अपने भीतर पूर्ण रूप से ग्रहण कर स्तब्ध, शांत और पवित्र हो जाऊँ।

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रवींद्रनाथ टैगोर रचनावली [सस्ता साहित्य मंडल, संस्करण : 2014] के 45वें खंड से साभार।

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