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भगवान क्या बोलेगा

bhagvan kya bolega

उपेंद्रनाथ अश्क

उपेंद्रनाथ अश्क

भगवान क्या बोलेगा

उपेंद्रनाथ अश्क

और अधिकउपेंद्रनाथ अश्क

    [असम-प्रवास के दौरान सुरेंद्रपाल को लिखा गया यह पत्र किंचित संक्षिप्त रूप में ‘धर्मयुग’ में छपा था। कभी-कभी जब मैं बाहर जाता हूँ, मैं ऐसे पत्र लिखा करता हूँ। उद्देश्य उतना पत्र लिखना नहीं होता, जितना उस बहाने यात्रा के मनोरंजक विवरणों को पंक्तिबद्ध करना, ताकि बाद में उन पर विस्तार से कोई रचना की जा सके। मुझे याद है, जब मैं 1934 में शिमला गया था, मैंने अपनी पत्नी को बड़े लंबे-लंबे पत्र लिखे थे। जो कुछ मैं देखता था, उन लंबे पत्रों में लिखकर भेजता जाता था। एक साल बाद मैंने उन पत्रों की सहायता से अपना पहला उपन्यास—‘एक रात का नरक’ लिखा था। सुरेंद्रपाल के बहाने यह पत्र भी इसी उद्देश्य से लिखा गया था। इसी रूप में छपेगा, यह नहीं चाहा था। मैं सुरेंद्रपाल का नाम काटकर इसे यात्रा-वर्णन का रूप देने ही जा रहा था कि सहसा 1-9-70 को दिल्ली से तार मिला कि सुरेंद्रपाल ने आत्महत्या कर ली है। उसके साथ ज़िंदगी के कुछ बहुत ही घनिष्ट पल जुड़े हैं। लगभग तीन वर्ष तक मैं उसके साथ नौ-दस बजे रात को सैर करता, बतियाता रहा हूँ। उन दिनों मैंने अपनी ज़िंदगी के कुछ ऐसे ब्यौरे उसे बता दिए थे कि जब वह मुझसे परे हो गया, मुझे कभी-कभी डराया करता था कि वह ही मेरे बारे में सच्ची बातें लिखेगा। मैं हँसकर कहा करता था कि अपने बारे में तो मैं सब कुछ लिख ही जाऊँगा, लेकिन कौन कह सकता है कि तुम मेरे बारे में लिखो, इससे पहले मैं ही तुम्हारे बारे में लिख दूँगा? तब क्या जानता था कि सचमुच मुझे ही उसके बारे में लिखना पड़ेगा। वह काम तो कभी फ़ुर्सत से करूँगा, अभी यह पत्र मैं उसी तरह दे रहा हूँ, जैसे मैंने लिखा था—सुरेंद्रपाल के नाम—जिसे दो वर्ष पहले देखकर कोई कल्पना भी कर सकता था कि इतना क्रियाशील व्यक्ति कभी आत्महत्या भी कर सकता है। लेकिन वह चला गया और ज़िंदगी और मौत और निर्यात के कई प्रश्न अनुत्तरित छोड़ गया।—अश्क]

    पीक होटल, शिलांग

    5 जून, 1961

    प्रिय सुरेंद्रपाल,

    तुम्हारा पत्र मिला। हम आज शाम यहाँ से चलेंगे और दो-एक दिन गौहाटी रुककर सिलीगुड़ी होते हुए, कालिम्पोंग पहुँचेंगे। बन पड़ा तो यहाँ से सिक्किम की राजधानी गैंटोक और दार्जिलिंग भी जाएँगे। कौशल्या का बस चले तो वह मणिपुर में इंफाल और कोहिमा भी देख आए—वहाँ के चीफ़ कमिश्नर श्री रैना हमारे पूर्व-परिचित हैं, कष्ट नहीं होगा—लेकिन मुझे नहीं लगता कि मेरा स्वास्थ्य इम्फाल और कोहिमा तो दूर, गंगटोक अथवा दार्जिलिंग भी जाने की इजाज़त देगा। खाँसी मेरी बढ़ गई है, साँस लेने में ख़ासी तकलीफ़ होती है, हल्की हरारत भी हो जाती है—वही पुरानी इओसिनोफ़ीलिया की शिकायत लगती है। दवा लिए जाता हूँ और घूमे जाता हूँ। किसको विश्वास आएगा कि मैं इतना बीमार हूँ। मेरी यह पुरानी ट्रैजिडी है कि सफ़र से बेहद घबराता हूँ, इस पर भी भारत का तूल-अर्ज़ नापे जाता हूँ।

    मैंने इन तीन दिनों में शिलांग और इसके इर्द-गिर्द ख़ूब घूमकर देखा है। वह सब लिखने लगूँगा तो पूरी किताब ही लिख डालूँगा। तुम्हारे मनोरंजन के लिए चेरापूंजी यात्रा और वहाँ मिश्माई प्रपात और मिश्माई गुफ़ा का संस्मरण भेजता हूँ, जो ख़ासा दिलचस्प है। बाक़ी सब तो जब इलाहाबाद आऊँगा, विस्तार से बताऊँगा।

    हिंदी-साहित्य-सम्मेलन असम के वार्षिक अधिवेशन में, जिसका सभापतित्व करने मैं असम के सीमांत नगर तिनसुकिया गया था, श्री अनंत गोपाल शेवड़े भी गए थे। उन्हें राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा ने उनकी हिंदी सेवाओं के लिए पुरस्कृत किया है। मेरी ही तरह वहाँ से लौटते हुए वे शिलांग आए थे और दो दिन पहले चेरापूंजी की यात्रा कर आए हैं। उनसे मिलने के बाद ही मैंने तय कर लिया था कि चाहे कितना भी अस्वस्थ क्यों होऊँ, मैं कौशल्या को चेरापूंजी ज़रूर दिखा लाऊँगा—चेरापूंजी, जहाँ भारत में सबसे ज़्यादा वर्षा होती है—पाँचवीं-छठी कक्षा से हम लोग भूगोल की पुस्तकों में यह पढ़ते आए हैं, और उस स्थान को देखने को अतिरिक्त मोह था।

    परसों शाम पाइन बुड होटल के प्रोप्राइटर श्री ज्योतींद्र दत्त चौधरी तथा मिस मिलियन खरकंगौर के साथ मॉप्लांग और मिल्लीम स्टेट घूमते रहे और खासी लोगों के जीवन को निकट से देखा। (खर का मतलब है ऐसा व्यक्ति, जो बासी (खस्सी) जाति का हो। कंगीर के अर्थ हैं—कुँवर। कोई ऐसा अ-खस्सी कुँवर, जिसने इधर की लड़की से शादी कर ली हो। उसकी संतान खरकंगौर कहलाती है।) शाम को लौटे तो बेहद थक गए थे, लेकिन मैं यही मानता रहा कि नुवह पानी पड़े और में कौशल्या को चेरापूंजी दिखा लाऊँ। वह इसीलिए तो मुझे इतनी दूर ले आई है कि तिनसुकिया सम्मेलन के बहाने असम देख लिया जाए। उसे बिना चेरापूंजी दिखाए लौटना मुझे स्वीकार नहीं हुआ।

    शेवड़ेजी बस से चेरापूंजी देख आए थे। उन्होंने बताया कि बस मिश्माई प्रपात और चेरारोड के अंतिम गाँव मॉब्लांग (ठीक उच्चारण मोब्ला है, पर अँग्रेज़ी में मॉब्लांग लिखा जाता है) तक जाती है। मैंने अड्डे पर जाकर पता किया तो मालूम हुआ कि बस का कोई ठिकाना नहीं। रास्ता तंग और ख़तरनाक है। धुँध हो तो दो गज पर कुछ दिखाई नहीं देता। पानी पड़ने लगे तो कई-कई दिन तक बस नहीं जाती। दुर्भाग्य से दत्त साहब की कार असम-बंगाली फ़साद की चपेट में गई थी और कौशल्या जैसे भी हो, चेरापूंजी देखना चाहती थी। मैंने तय किया कि टैक्सी से जाऊँगा और उसे चेरापूंजी ज़रूर दिखा लाऊँगा। सोचता हूँ कि यदि कठिनाई की बात होती तो शायद हम चेरापूंजी जाने का ख़याल छोड़ देते। लेकिन जितना ही लोग डराते, उतना ही वहाँ जाने का मन होता। दत्त साहब की पत्नी, श्रीमती लावण्य प्रभा देवी, प्रयाग महिला विद्यापीठ की स्नातिका हैं। साहित्य और कला में उनकी विशेष रुचि है। उन्होंने दत्त साहब को हमारे साथ मॉप्लांग भेजा था और वादा किया था कि वे चेरापूंजी भी दिखालाएँगे। लेकिन दिन भर हमें मिल्लीम स्टेट और मॉप्लांग दिखाने के बाद वे बेहद थक गए थे। उनसे कहने की हिम्मत नही हुई। मैंने श्रीमती लावण्य प्रभा से कहा कि दत्त साहब थक गए हैं, यदि आप टैक्सी का प्रबंध कर दें तो सुबह हम चेरापूंजी देख आएँ।

    पीक होटल वापस पहुँचे तो उनका फ़ोन गया कि टैक्सी सुबह हमारे होटल पहुँच जाएगी। उन्होंने यह भी बताया कि राष्ट्रभाषा प्रचार समिति के स्थानीय मंत्री श्री जितेंद्र चौधरी पर ज़ोर देकर उन्होंने इस बात के लिए उन्हें राज़ी कर लिया है कि हमारे साथ जाकर वे हमें चेरापूंजी दिखा लाएँ। कुछ ही देर बाद चौधरी साहब का फ़ोन भी गया कि वे ठीक साढ़े नौ बजे लाइमुखड़ा में हमारा इंतज़ार करेंगे और हम सुबह चलने की पूरी तैयारी करके ही सोएँ।

    हमने होटल के मैनेजर को आदेश दिया कि वे सुबह आठ बजे हमारे लिए दो डबल रोटियों के स्लाइस, दो बड़ी टिकिया मक्खन और छह उबले अंडे पैकेट में बाँध दें। नाश्ता करते ही हम चल पड़ेंगे।

    टैक्सी कल सुबह ठीक नो बजे गई थी। अगली सीट पर एक बंगाली युवक बैठा था। ड्राइवर से पूछने पर मालूम हुआ कि वह चेरापूंजी में कुछ महीने रह चुका है और गाइड का काम सुचारु रूप से सरअंजाम देगा। ‘साहब’ को किसी तरह का कष्ट हो और वह चेरापूंजी पूरी तरह देख ले, इसीलिए उसे साथ ले लिया गया है। मैं अगली सीट पर कौशल्या को बैठाना चाहता था कि उसे रास्ते के दृश्य देखने में सुविधा हो। चौधरी साहब तो जा ही रहे थे, गाइड की क्या ज़रूरत थी? पर कौशल्या ने कहा कि बैठा रहने दीजिए, वहाँ का जानकार साथ होगा तो सुविधा ही रहेगी और पूछने-पुछाने पर समय नष्ट नहीं होगा।

    लाइमुखड़ा में जितेंद्र चौधरी मिल गए—गोरे-चिट्टे, भारी-भरकम और अत्यंत हँसमुख। सौभाग्य से हम दोनों पतले हैं, इसलिए चौधरी साहब के साथ छोटी टैक्सी की पिछली मीट पर हम तीनों के बैठने में कठिनाई नहीं हुई। हममें से कोई मोटा होता या फिर चौधरी साहब की सूरत मुहर्रमी होती तो चेरापूंजी की सैर का सारा मज़ा किरकिरा हो जाता।

    जैसा कि मैंने पहले कहा, चेरापूंजी के बारे में भूगोल की पुस्तक में पढ़ा था कि हमारे देश में सबसे ज़्यादा वर्षां वहीं होती है और हमारी कल्पना में धारा- सार बरसता पानी, दहाड़ते हुए नदी-नाले और घने, अँधेरे जंगल घूम जाते थे। यूँ भी असम के जंगलों के बारे में तरह-तरह की कहानियाँ सुनी थीं और कल्पना कई दिशाओं में बगटुट भाग रही थी। तभी चौधरी साहब ने बताया कि मिश्माई गाँव के पीछे लगभग एक मील के फ़ासले पर एक ऐसी गुफ़ा है, जिसके पत्थरों की बनावट और रंगों को देखने देश-विदेश के इंजीनियर आते हैं। और हम लोग उड़कर चेरापूंजी पहुँच जाना चाहते थे।

    हम चेरापूंजी देख आए हैं। दो दिन लगातार घूमते हुए बेहद थक गए हैं। कौशल्या श्रीमती लावण्य प्रभा के साथ बाज़ार गई है। मूँगा सिल्क की साड़ी और मेरे लिए कुत्ते का सिल्क देखने! यहाँ घर-घर करघे है और असमी युवतियाँ अपनी शादी पर अपने हाथ की बनी हुई सिल्क की साड़ी पहनती है। कल चेरापूंजी से वापसी पर हमने श्रीमती लावण्य प्रभा के यहाँ खाना खाया था। वहीं एक छोटी- सी गोष्ठी भी हुई। उसी में टी० बी० अस्पताल के सुपरिटेंडेंट की पत्नी श्रीमती हज़ारिका से भेंट हुई। वे वापसी पर अपनी कार में अपने घर करघा दिखाने ले गई और उन्होंने अपने हाथ का बुना मूँगा सिल्क दिखाया। कौशल्या ने तभी तय कर लिया था कि सुबह बाज़ार जाएगी। ख़रीदेगी वह मुझे साथ ले जाकर ही, पर अपनी पसंद की चीज़ें देख आएगी। इस बीच मैंने सोचा कि तुम्हें ही एक लंबा पत्र लिखूँ और चेरापूंजी के संस्मरण को पंक्तिबद्ध कर दूँ। तुम्हारी बड़ी इच्छा रही है कि मैं बाहर जाऊँ तो तुम्हें पत्र ज़रूर लिखूँ। छोटे-मोटे औपचारिक पत्र लेकर तुम क्या करोगे? लो, पत्र के माध्यम से यह एक लंबा संस्मरण तुम्हें भेजता हूँ। नोट तो मैंने विस्तार से लिए हैं, पर जाने मेरी डायरियों में कितनी यात्राओं के विस्तृत नोट लिए पड़े हैं, कभी उन्हें लिखने का मौक़ा नहीं मिला। इस बहाने यह दिलचस्प संस्मरण ही पंक्तिबद्ध हो जाएगा।

    चेरापूंजी के बारे में जो लिखने बैठ गया हूँ तो एक ख़ास बात है। तुम्हें यह जानकर हैरत होगी कि देश भर में सबसे ज़्यादा बरसात होने के बावजूद, वहाँ पीने के पानी की कठिनाई हो जाती है। उस प्रदेश को देखकर एक कविता की पहली पंक्तियाँ मन में कौंध गई हैं :

    यह कैसा प्रदेश है!

    चट्टानें

    वर्षा में रात-दिन नहाती हैं

    पर सृष्टा की अतुल भूति को

    सँजो नहीं पाती हैं

    निर्मल जल की दो बूँदें भी प्यासे को उपलब्ध नहीं हैं—

    और क्या हमारी बाज की सभ्यता अपनी तमाम उपलब्धियों के बावजूद वैसी ही हृदयहीन नहीं हो गई? जाने यह कविता कब लिखी जाएगी? पर मैं उस प्रदेश को परिपार्श्व में रखकर इस भाव को अभिव्यक्त करना चाहूँगा।

    जंगल चेरापूंजी में प्रायः नहीं हैं। हरी-हरी छोटी घास से लदे संगलाख पहाड़ हैं और सर्फ़ेस कोल—माने ऊपर ही सतह पर मिल जाने वाला कोयला।

    हम मिश्माई प्रपात भी देख आए हैं और मिश्माई गुफ़ा भी। उस यात्रा का प्रसंग काफ़ी दिलचस्प है और अपने साथियों के कारण हम ख़ूब बेवकूफ़ बने। वही प्रसंग तुम्हारे मनोरंजन के लिए लिख रहा हूँ। असम के इस प्रवास में मिश्माई गुफ़ा की यात्रा मुझे हमेशा याद रहेगी।

    शिलांग से साढ़े 9 बजे चलकर चौदह मील के अंतर पर उमटिंगा नदी के गेट को पार कर, हम चेरा रोड पर बढ़े तो सड़क के किनारे जो थोड़े-बहुत जंगल थे, वे भी ख़त्म हो गए। सड़क भी एकदम टेढ़ी-बैंगी हो उठी और बाईं ओर गहरी खड्ड साथ-साथ चलने लगी।

    जब हम मीलों चले गए और बीहड़ जंगल तो दूर रहे, कहीं चार-छह पेड़ भी दिखाई दिए तो मैंने चौधरी साहब से पूछा, ‘चौधरी साहब इस इलाक़े में इतना पानी पड़ता है, लेकिन पेड़-पौधे क्यों नहीं हैं?’ चौधरी साहब ने बताया कि ज़मीन पथरीली है। पानी रुकता नहीं। चट्टानी धरती है। मिट्टी हो तो पेड़-पौधे उगें। पंद्रह दिन वर्षा हो तो लोगों को पीने के लिए पानी मिलना मुश्किल हो जाता है...इतने पानी के बावजूद पानी की किल्लत...हम चकित से सड़क की बाईं ओर, दूर तक फैले हुए पहाड़ों को देखने लगे—ऊँचाई बहुत ज़्यादा नहीं, पोटियाँ तीखी नहीं, बड़े-बड़े टीलों-सरीखे, हरी-हरी घास का परिधान ओढ़े, नर्म-नर्म दीखने वाले—लेकिन नीचे धरती कितनी संगलाख़ है, ऊपर से इसका ज़रा भी आभास नहीं मिलता। मैंने पंचगनी से आठ मील आगे महाबलेश्वर से दूर, दृष्टि की सीमा तक, पंक्ति-दर-पंक्ति एक-दूसरे के पीछे खड़ी, रत्नागिरि की रुंड-मुंड लाल पहाड़ियाँ देखी हैं; बंबई से पूना के मार्ग में धान से पटी हरी घाटियाँ और बहते झरनों को गोद में लिए हुए गर्मीले पहाड़ों के दर्शन किए हैं; जम्मू से आगे रूखे, कर्कश मानो रूटे हुए, क्रोधी पहाड़ों को देखा है और बनिहाल के पार चारों ओर से कश्मीर की वादी को घेरे हिममंडित गिरि-शिखरों का नज़ारा किया है; अमरनाथ की यात्रा में बारह-तेरह हज़ार फुट की ऊँचाई पर आकाश को छूने वाले नंगे-भूरे भयावह पहाड़ों का आतंक झेला है और अभी कुछ ही दिन पहले डिबरूगड़ में तूफ़ान पर आए ब्रह्मपुत्र के पार, नीलपर्वत-श्रेणियों को विमुग्ध निहारा है, लेकिन शिलांग और चेरापूंजी के रास्ते में हरी घास से लदे पहाड़ी टीलों की कोमलता कहीं नहीं मिली—अजीब-सी कोमलता-मिथित स्निग्धता का आभास वे अंदर से संगलाख़, पर ऊपर से हरे-भरे पहाड़ देते हैं—विशेषकर शिलांग की तरफ़ वाले—चेरापूंजी गेट के बाद तो नंगे-बुच्चे पहाड़ है और कोयले के अंबार है। कुछ अजीब-सी वीरानी और उदासी है।

    दो घंटे में हम चेरागेट पहुँच गए, जिसके ऊपर पहाड़ी पर चेरापूंजी बसा है और जिस पर अवस्थित रामकृष्ण मिशन मीलों परे से दिखाई देने लगता है।

    लेकिन हम चेरापूंजी देखने को नहीं रुके, आगे निकल गए और मिश्माई गाँव के अकेले, कीचड़-भरे, तंग बाज़ार से होते हुए, जिसके दोनों ओर झोंपड़ियों-सी इकहरी दुकानें हैं, सीधे मिश्माई प्रपात जा पहुँचे।

    मिश्माई प्रपात के बारे में सुना था कि प्रसिद्ध नियागरा। प्रपात-जैसा है। सड़क के किनारे खड़े होकर बाईं ओर निगाह डाली तो निराशा हुई। प्रपात पर धुँध छाई हुई थी और हल्की झींसी पड़ने लगी थी।

    हम छाते ताने सड़क के किनारे दर्शकों के लिए बनी रेलिंग के पास खड़े रहे। कुछ देर बाद धुँध ऊपर उठ गई। सामने बाईं ओर लाल-सा पहाड़ एकदम सीधा कटा, बहुत लंबी डरावनी दीवार की तरह खड़ा था और आयत की लंबी और छोटी दो लकीरें बना रहा था—इधर के कोने पर ज़रा गोलाई लिए हुए! नीचे घाटी गहरी और बड़ी थी। यही मिश्माई प्रपात था। चेरापूंजी में पानी टिकता नहीं और चूँकि तीन-चार दिन से बारिश हो रही थी, इसलिए पानी की चार-पाँच दूधिया लकीरें सामने की उस चट्टानी दीवार पर बनी दिखाई देती थीं। यह मानता हूँ कि भर-वर्षा में उस सारी दीवार पर इतनी ऊँचाई से नीचे घाटी में चादर-सा गिरता पानी भव्य दृश्य उपस्थित करता होगा, लेकिन उस वक़्त हमें प्रपात को सूखे देखकर निराशा ही हुई।

    और वहाँ देखने को कुछ नहीं था। भूख लग आई थी। सड़क के दूसरी ओर एक नाला बह रहा था, उसके किनारे पेड़ भी थे, जिनकी शाखाएँ नाले पर रुटकी थीं, शायद वही नदी थी जिसके किनारे बाद में हमने गुफ़ा देखी। उसके किनारे घास पर हम तीनों बैठ गए, सारे-के-सारे स्लाइस और अंडे खा गए। जितेंद्र तो ख़ैर मोटे तगड़े आदमी हैं, लेकिन हम दोनों तो अल्पाहारी है। साधारणतः तीन से ज़्यादा स्लाइस कौशल्या नहीं लेती और चार से ज़्यादा मैं कभी नहीं लेता, लेकिन भूख कुछ ऐसी लग आई कि छह-छह स्लाइस हम खा गए होंगे।

    पानी हम थर्मस में ले गए थे। हाथ हमने नाले में जाकर धो लिए और टैक्सी में बैठे और चेरा रोड के अंतिम गाँव मॉब्लांग पर जा रुके—छोटा-सा गाँव, दस-बीस लकड़ी के घर, एक छोटी-सी लकड़ी की दुकान। टैक्सी को वहीं छोड़कर हम नीचे को उतरने वाली पथरीली सड़क पर हो लिए।

    कुछ दूर जाकर हम सड़क की एक पुलिया पर बैठ गए। मुड़कर देखा तो पाया कि मॉब्लांग के नीचे पहाड़ो पर केवड़े का जंगल है। चौधरी साहब ने बताया कि जब केवड़े में फूल आते हैं तो यह सारा प्रांतर केवड़े की गंध से महक जाता है।

    फिर मुड़कर नीचे की ओर निगाह दौड़ाई तो सामने बादलों के नीचे तराई में सिलहट के पानी भरे मैदान दिखाई दे रहे थे। चौधरी साहब वहीं के रहने वाले हैं। अपने वतन की सर ज़मीन को देखकर उनकी आँखें तरल हो आईं। उन्होंने बताया कि वहाँ गहरे पानी में धान की खेती होती है। मॉब्लांग से सिलहट के पानी-भरे मैदानों का दृश्य सड़क की ऊँचाई से बड़ा ही सुंदर लगता है। कितनी ही देर तक चौधरी साहब वहाँ आँखें टिकाए रहे। फिर लंबी साँस भरते हुए घुटनों पर हाथ रखकर उठे और बोले, 'चलिए आपको मिश्माई गुफ़ा दिखा लाएँ।’

    और वहीं वह दिलचस्प घटना हुई और हम ख़ासे मूर्ख बने, जिसके सिलसिले में यह पत्र मैंने लिखना शुरू किया था।

    मॉब्लांग से हम टैक्सी में चढ़े तो सीधे मिश्माई गाँव वापस आए। चूँकि आती बेर में धुँध थी, इसलिए मिण्माई गाँव के बाद प्रपात तक का दृश्य साफ़ दिखाई नहीं दिया था। अब हमने देखा कि दाईं ओर घाटी में जहाँ-तहाँ पहाड़ी टीलों में गुफ़ाएँ-सी बनी हैं और बाहर कोयले के छोटे-बड़े अंबार लगे हैं। प्रकट ही कोयला ऊपर ही मिल जाता है, इसीलिए वहाँ से निकलने वाले कोयले को ‘सर्फ़ेस कोल’ कहते हैं। एक-दो जगह, जहाँ पहाड़ सड़क के बराबर गए थे, हमने देखा कि कोयले की धारियाँ पहाड़ के सीने पर सड़क के साथ चली गई हैं। ऊपर पीले पत्थर की लकीरें, फिर कोयले की काली और कहीं-कहीं उसके नीचे सफ़ेद पत्थर की लकीर।...एक जगह तो काफ़ी दूर तक ये तीनों लकीरें हमें पहाड़ के सीने पर दिखाई देती रहीं।

    कोयले के ट्रक यहाँ सारा दिन आते-जाते रहते हैं और इधर के लोग बस के किराए से आधे किराए में शिलांग तक यात्रा कर लेते हैं और ड्राइवर कंडक्टर इस बहाने कुछ चाय-पानी के पैसे जुटा लेते हैं। मिश्माई बाज़ार के बीचों बीच एक ट्रक वाला कुछ ऐसी ही व्यवस्था में तल्लीन, ट्रक पर किसी गाँव वाले का सामान लाद रहा था।

    जब ट्रक सामान लादकर बढ़ गया तो हमारी टैक्सी भी आगे बढ़ी। लेकिन कुछ ही दूर जाकर रुक गई। ड्राइवर ने बताया कि यहाँ से गुफ़ा को रास्ता जाता है। वह तो वहीं पीछे रह गया। लेकिन हमारे वे बंगाली ‘गाइड’ हमारे साथ हो लिए। बाज़ार से निकलने वाली एक छोटी-सी गली को पार कर, हम एक नाले के तट पर गए। उसका नाम डामुम नदी बताया गया। नाले के किनारे खड़े होकर देखा तो चौधरी साहब की बात को सत्य कर पूरा अहसास हुआा। यहाँ पानी कैसे टिकता? तल गहरा नहीं था और यहाँ ज़रा भी मिट्टी नहीं थी...सपाट चट्टान थी, जिस पर जाने कितनी सदियों में पानी ने अपने लिए थोड़ा गहरा रास्ता बना लिया था। नाले का तल उल्टे अजगर के नेट-सा सफ़ेद था; जिस पर पानी एक पारदर्शी चादर-सा सरक रहा था। इस संगलाख़ धरती पर पानी कैसे रुक सकता है? कहाँ रुक सकता है? पेड़-पौधे कहाँ उग सकते हैं? उनकी जड़ों के लिए पहाड़ में संध और मिट्टी पाहिए! और मैं सोचता हूँ, आधुनिक सभ्यता हमारे दिलों की मिट्टी को इसी तरह संगलाख़ नहीं बनाती जा रही क्या? जहाँ कहीं सेंधे हैं, वे पुरती जा रही हैं, और दिल पत्थर होते जा रहे हैं।

    डामुम को पार कर हम झोंपड़ियों के आगे खुली जगह पर पहुँचे, यहाँ खासी लड़के छोटे परों वाले नेज़े हाथों में लिए निशाना साधना सीख रहे थे।

    डामुम के तट पर एक सरकंडा धरती में गाड़कर उन्होंने उसके सिरे पर घास-फूस का गोला बना, उसे केले के पत्ते से बाँधकर निशाना बनाया था और आठ-दस गज के फ़ासले से वे उस पर नेज़े चला रहे थे। उनके नेज़े, जो छोटे-छोटे तीरों जैसे लगते थे, सरकंडों से बने हुए थे। उनके एक सिरे पर लोहे की पतली-सी नोकदार सुम चढ़ी थी और दूसरे पर चार पंख लगे थे। पूरे नहीं, एक पंख को बीच से काटकर, उसके एक-एक अंगुल के टुकड़े, जिन्हें सरकंडे को चीरकर उसमें जड़ दिया था और पीतल के अत्यंत बारीक़ तार से उन्हें गूँथ दिया गया था।... कुछ देर तक हम गुफ़ा की बात भूलकर लड़कों की निशानेबाज़ी देखते रहे। उनमें से एक का हाथ बड़ा सधा हुआ था। उस वक़्त जय दूसरों के नेज़ें निशाने के एक गज इधर-उधर गिरते, उसका नेज़ा ऐन निशाने पर जा गढ़ता।

    तभी चौधरी साहब ने एक बुढ़िया से खासी मिली-जुली असमी भाषा में गुफ़ा को जाने का मार्ग पूछा। उसने एक पगडंडी की ओर संकेत कर दिया, जो दाईं ओर की एक गली को जाती थी।

    हम गली में दाख़िल हुए। गंदी, सँकरी और कीचड़-भरी, जिसकी नालियों में सुअर थूथनियाँ चला रहे थे। एक सुअरी कीचड़ में पसरी पड़ी थी और उसके छोटे-छोटे बच्चे बहुत बड़ी काली, भद्दी जोंकों की तरह उसके मोटे धनों से चिपटे थे।

    यह गली गाँव के पीछे से जानेवाली पगडंडी में जाकर मिल गई। दाईं ओर जाए या बाईं ओर, हमारे वे बंगाली गाइड तय ही कर पाए। चौधरी साहब भी कई वर्ष पहले यहाँ आए थे। उन्होंने बाईं ओर संकेत किया तो उन्होंने भी हामी भरी कि हाँ, गुफ़ा बाईं ओर ही को है और हम उधर ही चल दिए।

    जब हम खेतों की मेड़ों और पगडंडियों पर होते हुए कोई तीन फ़रलाँग निकल आए तो सहसा हमें सामने कुछ ऊँचाई पर दाएँ से बाएँ को जाती हुई अत्यंत घने पेड़ों की पंक्ति दिखाई दी। उस वीरान चट्टानी धरती में हरे-भरे छतनार पेड़ों की वह पंक्ति आँखों को बड़ी सुहानी लगी। तभी हमारे ‘गाइड महोदय’ ने सबसे ऊँची जगह की ओर संकेत करके बताया कि वहीं गुफ़ा है। लेकिन उस ओर कोई मार्ग था, पगडंडी। धरती ऊँची होती हुई पेड़ों की पंक्ति तक जाती थी, घास से ढकी थी और उसमें छोटे-छोटे नाले पहाड़ी से उतरते थे।

    हमें वहीं रुकने को कहकर वह बंगाली युवक बढ़ता चला गया और एक जगह पेड़ों में गुम हो गया। फिर वहाँ से निकलकर उसने सिर को झटका दिया और कुछ आगे बढ़कर एक दूसरी जगह ग़ायब हो गया। कुछ देर बाद फिर प्रकट हुआ और एक तीसरी जगह हरियाली के उस सागर में उसने डुबकी लगाई। अब की उभरा तो हाथ मलते हुए मुँह लटकाए वापस गया।

    उसके इस अनिश्चिय को देखकर मेरा माथा ठनका। स्वयं तकलीफ़ सहते हुए शिलांग से टैक्सी की अगली सीट पर उसे बैठाए इसी मोह में हम लाए थे कि वह हमें आसानी से गुफ़ा दिखा देगा। जब वह हमारे पास पहुँचा तो मैंने पूछा:

    ‘भाई तुम्हें मालूम भी है?’

    उसने बताया कि वह रामकृष्ण मिशन में तीन महीने रह गया है और एक बार गुफ़ा देख भी गया है। गुफ़ा यहीं थी।

    ‘क्या इस बीच कहीं दूसरी जगह तो नहीं सरक गई?’ मैंने चिढ़कर कहा।

    युवक ने इसका कोई उत्तर नहीं दिया। पलटकर वह पेड़ों की उसी पंक्ति की ओर देखने लगा।

    ‘क्या ये पेड़ भी यहीं थे?’ मैंने फिर पूछा।

    मेरी चिड़‌चिड़ाहट की ओर ध्यान दिए बिना, सरल भाव से उसने कहा, ‘जी हाँ।’

    मैंने चौधरी साहब से कहा, ‘इससे कहिये, गाँव से जाकर किसी जानकार को ले आए।’

    चौधरी साहब मस्त-मौला आदमी...उन्हें युवक को गाँव भेजकर स्वयं वहाँ प्रतीक्षा करना अखरा, बोले, 'इसी पगडंडी पर चलते हैं, शायद आगे रास्ता जाता हो।

    झुँझलाहट में मैं आगे हो गया और हम जिस पगडंडी से वहाँ तक आए थे, उसी पर आगे बढ़ चले।

    पेड़ों की वह पंक्ति, जो हमें दिखाई दी थी, वास्तव में दोहरी थी और उसने बीच एक नाला बहता था। उसी पगडंडी पर कुछ आगे बढ़कर हमने नाला पार किया। सामने दूर तक घास का मैदान और कच्ची पथरीली धरती भी और वहाँ एक नई-नई कच्ची सड़क खुदी हुई थी। यह सड़क शायद कही मिश्माई के बाहर ही से प्रपात को जाने वाली मुख्य सड़क से काटी गई थी और यह कुछ ही दूर आगे जाकर नाले के इधर की हरी पंक्ति के निकट ख़त्म हो जाती थी। इस बीराने में यह सिरकटी सड़क और उसके पत्थर उस प्रदेश को और भी वीराना बना रहे थे।

    मैंने कहा, ‘देखिए गुफ़ा ज़रूर ही इधर कही है लगता है कि यह सड़क किसी केंद्रीय मिनिस्टर की सुविधा के लिए खुदवाई और उनके दौरे के बाद उसके वायदों की तरह ही भुला दी गई है।’

    नाले के इधर पेड़ बहुत घने थे। सरकंडे उगे हुए थे। सड़क से निकलकर एक पगडंडी उधर को गई थी। सहसा वह बंगाली युवक, जो इस बीच पीछे-पीछे सिर झुकाए रहा था, पीछे से निकलकर आगे गया और उत्साह से पगडंडी पर बढ़ चला। हम तीनों उसके पीछे-पीछे चले।

    कुछ दूर उसी पगडंडी पर चलने के बाद हम नाले के ऊपर बने छोटे-से लकड़ी के पुल पर गए।

    क्षण भर पुल पर रुककर मैंने इर्द-गिर्द निगाह दौड़ाई—पेड़ इतने ऊँचे और घने थे और दोनों ओर से उनकी शाखाएँ ऐसे एक-दूसरी से गुँथ गई थीं कि उन्होंने आकाश को एकदम आच्छादित कर लिया था। तरह-तरह की बेलें उन पर चढ़ी हुई थीं और कालांतर में अजगरों-सी मोटी हो गई थी। उन पर काई जम आई थी और वे बड़े-बड़े कुंडलों की तरह शाखों से लटक रही थीं—शाम के अँधेरे में उन पर किसी लटकते अजगर का संदेह हो जाना स्वाभाविक था। सूरज की एक भी किरण का गुज़र वहाँ नहीं था और मौत का-सा भयावह सन्नाटा छाया हुआ था।

    पुल के पार चढ़ने के लिए पत्थर रखे हुए थे और पगडंडी ऊपर चढ़ती थी। मैंने उत्साहित होकर कहा—‘देखिए गुफ़ा ज़रूर इधर को है, ये पत्थर जैसे रखे हैं और पगडंडी पर जैसे खड़िया के मद्धिम निशान हैं, ज़रूर ही कोई मिनिस्टर इसे देखकर गए हैं।’

    तब वह बंगाली युवक खट-खट पत्थर की उस अस्थायी सीढ़ी पर चढ़ गया। वह उस पगडंडी पर चंद ही क़दम गया होगा कि ऐसे हड़बड़ाकर पलटा जैसे उसने किसी शेर को देख लिया हो। मैंने कहा, ‘क्या बात है?’

    ‘न जाने रास्ता किधर को जाता है’, उसने भयातुर लहज़े में कहा, ‘हम आगे नहीं जाएगा, जंगल का मामला...’

    और वह बराबर से निकलकर सबसे पीछे जा खड़ा हुआा। मैंने कहा—‘यह रास्ता ज़रूर गुफ़ा को जाता है, आप गाइड बने मोटर की अगली सीट पर बैठे आए हैं, चलिए हमें रास्ता दिखाइए!’

    लेकिन उसने क़दम बढ़ाने से इंकार कर दिया। तभी कौशल्या पीछे से निकलकर आगे बढ़ी और बोली, ‘आइए मेरे पीछे।’

    मैंने क़दम बढ़ाया ही होगा कि इस बार चौधरी साहब ने बढ़कर रास्ता रोक लिया कि नहीं बिना गाइड के आपको जंगल में नहीं जाने देंगे।

    हमने लाख कहा कि इतनी दूर से आकर और इतनी मुसीबत झेलकर हम बिना गुफ़ा देखे नहीं आएँगे, वे लोग नहीं जाना चाहते तो वहीं रुकें, हम दोनों जाकर देख आते हैं, लेकिन हमारे आतिथेय के नाते उनको हमें किसी तरह के जोख़िम में डालना स्वीकार नहीं हुआा।

    ‘भगवान करे आपको कुछ हो जाए तो मैं हिंदी संसार को क्या मुँह दिखाऊँगा।’ उन्होंने सिर हिलाते हुए कुछ ऐसे स्वर में यह बात कही, जिसमें हँसी भी थी और गिड़‌गिड़ाहट भी, फिर वे कौशल्या से बोले, ‘न जाने इन्हें अभी संसार को कैसे-कैसे अनमोल रत्न देने हैं।’

    चौधरी साहब की और किसी दलील का असर चाहे कौशल्या पर होता, पर इस दलील के आगे उसने जिद छोड़ दी।

    अपने उन दोनों हितैषियों के पीछे-पीछे घिसटते हुए हम नाला पार कर फिर उसी जगह गए, जहाँ पहले हमारे उस दक्ष बंगाली गाइड ने गुफ़ा खोजने का प्रयास किया था।

    हमको वहाँ बैठाकर उसने फिर एक बार ऊँचाई पर गुफ़ा खोजने का प्रयास किया और फिर असफल होकर मुँह बाएँ आकर हमारे पास खड़ा हो गया।

    तब चौधरी साहब वहीं फसकड़ा मारकर बैठ गए और उन्होंने यह शुभ परामर्श दिया कि उसे गाँव भेज दिया जाए और वह अपने साथ किसी जानकार को लिवा लाए।

    युवक चलने लगा तो मैंने कहा कि अगर पैसे-वैसे देने की बात हो तो संकोच करे, मैं दे दूँगा, लेकिन साथ में गाइड ज़रूर लाए।

    युवक चला गया तो हम विवश वहीं बैठ गए। मेरा मूड एकदम ऑफ़ हो गया था। क्रोध आा रहा था कि पहले ही गाँव से किसी को लेकर क्यों नहीं चले, लेकिन कौशल्या बड़े सब्र से चौधरी साहब की बातें सुन रही थी, जो उसे समझा रहे थे कि अश्क जी राष्ट्रभाषा की ‘विभूति’ है और इसीलिए उन पर इतनी ज़िम्मेदारी है और अश्क जी कि साथ रहते वे कोई ख़तरा मोल नहीं ले सकते।

    मैं नहीं जानता, कौशल्या को उनकी बात का कितना यक़ीन आया? लेकिन मुझे लगा कि वे शायद डर गए हैं, लेकिन उस डर को उन्होंने ‘राष्ट्रभाषा की इस विभूति’ को बचाने की आड़ में छिपा लिया है।

    मुझे हँसी भी रही थी और ग़ुस्सा भी। यदि में हिंदी की ‘विभूति’ होने के बदले मामूली आदमी होता तो चौधरी साहब क्या बहाना बनाते?’ मैं यही सोचने लगा। ‘तब क्या मैं गुफ़ा देखकर पलटता?’ मन-ही-मन मैंने चौधरी साहब की इस हिंदी की विभूति को एक भारी-सी ही गाली दे डाली और सुलगता हुआ बैठा रहा, लेकिन कौशल्या बड़े सब्र के साथ 'हिंदी की विभूति' और उसके शुभ-चिंतक का मन बहलाए रही।

    पूरे एक घंटे बाद बंगाली युवक दो खासी देहातियों के साथ नमूदार हुआ। उसने आकर बताया कि गाँव के सारे मर्द किसी मीटिंग में भाग लेने चले गए हैं और ये लोग बड़ी मुश्किल से तीन रुपए पर आने को राज़ी हुए हैं।

    मुझे साफ़ लग रहा था कि तीन रुपए फोकट में जा रहे हैं, लेकिन कोई चारा नहीं था। मैं उठा और उनके पीछे-पीछे उसी रास्ते पर फिर चल दिया।

    उन खासी देहातियों में एक युवक था और दूसरा वृद्ध। युवक मँझोले कद का हृष्ट-पुष्ट और सुंदर था। आम खासी युवकों की तरह उसने पेंट-क़मीज़ पहन रखी थी। बुड्ढा नेकर-क़मीज़ पहने था। उसके चेहरे पर उमर ने गहरी लकीरें खींच दी थीं, जिनसे उसकी कठोरता काफ़ी बढ़ गई थी। दोनों की कमर में दाँव (खुखरियाँ) बुसे थे और वे आपस में कुछ खुसर-फुसर किए जा रहे थे।

    वह बंगाली युवक चौधरी साहब के साथ लगा-लगा चल रहा था। रह-रहकर उसकी निगाहें उनकी खुखरियों पर जातीं और जब वे आपस में खुसफुसाते तो वह चौधरी साहब के कान में कुछ खुसफूस करने लगता।

    जब वह पेड़ों की वह हरी पंक्ति और नाला पार कर फिर उसी सिर-कटी सड़क पर पहुँचे तो मैंने चौधरी साहब से पूछा कि वह बंगाली क्या कहता है?

    ‘इस लड़के का कहना है’, चौधरी साहब ने कहा, ‘कि हमें होशियार रहना चाहिए। यह हमारे कहने के मुताबिक़ इन्हें ले तो आया है, पर कहता है कि आगे सुनसान जंगल है, ऐसे में ये लोग अनजान मुसाफ़िरों को मार-काटकर लूट लेते हैं।’

    खासी युवक मुझे एकदम सरल और भोला लगता था। बह हत्यारा अथवा डाकू हो सकता है, उसकी आकृति से इसका ज़रा भी आभास मिलता था। हाँ, बुड्ढा ज़रूर बर्वर और कठोर दिखाई देता था। उस बंगाली युवक का रंग उड़ा जा रहा था। चौधरी साहब (शायद हिंदी की इस विभूति ही के कारण) घबराए हुए थे।

    मैंने उन्हें तसल्ली दी कि हम चार आदमी हैं, ये दो हैं, हथियारों से लैस ही सही, पर हम चारों को मार डालेंगे, ऐसा नहीं हो सकता। अब हम गुफ़ा देखे बिना तो वापस नहीं जाएँगे। आप फ़िक्र कीजिए में ऐसा प्रबंध कर दूँगा कि ये लोग चाहेंगे तो भी कुछ कर पाएँगे।

    हमारे साथी कुछ नहीं बोले और सिर झुकाए साथ-साथ चलने लगे। जब हम उन घने पेड़ों और आदमकद सरकंडों में से होकर चलने लगे तो मैंने ख़ासी युवक से आगे चलने को कहा, उसके पीछे फौशल्या, फिर चौधरी साहब, फिर यह ‘बंगाली गाइड’, उसके पीछे बुड्ढा और सबसे पीछे उन सब पर नज़र रखता हुआ—मैं। ‘खासियों की ज़रा-सी हरकत का भी पता चल जाएगा’, मैंने चौधरी साहब को तसल्ली दी, ‘आप घबराइए नहीं।’

    हम चंद ही क़दम चले होंगे कि बुड्ढा आगे से निकलकर पीछे को पलटा। बंगाली युवक का रंग फ़क़ हो गया। चौधरी साहब तनिक रुके...

    ‘क्या बात है?’ मैंने बुड्ढे खासी से पूछा।

    बुड्ढे ने हाथ के इशारे से कहा कि आप लोग चलिए।

    लेकिन मेरे साथी आगे बढ़ने में झिझक रहे थे। खासी युवक और कौशल्या आगे निकल गए थे कि मैंने आवाज़ देकर उन्हें रुकने को कहा।

    लेकिन मेरे साथियों का भय निराधार था। वह ग़रीब कुछ परे जाकर सरकंडों में लघुशंका को बैठ गया।

    जी हुआ ज़ोर का एक ठहाका लगाऊँ, लेकिन चौधरी साहब नाराज़ हो जाएँ, इस ख़याल से पूरे संयम के साथ अपने आपको हँसने से रोके रहा।

    बुड्ढा फिर अपनी जगह गया तो हम चल पड़े और जैसा कि मेरा ख़याल था, जहाँ से हम उस बंगाली युवक के भयभीत होने पर मुड़े थे, गुफ़ा उस जगह से केवल तीन-चार गज़ आगे थी। एक बार तो जी हुआ कि अपने आगे खड़े उस बंगाली युवक को उठाकर गुफ़ा में झोंक दूँ उसके ‘पथ-निर्देश’ के लालच में शिलांग से टैक्सी की पिछली सीट पर ठुँसे आए, इतना समय बर्बाद हुआ, बेकार में थके और उन तीन गज़ों के पथ-निर्देश के लिए तीन रुपए को डज़ पड़ गई। लेकिन ग़ुस्से को पीकर, दूसरों के साथ मैं भी गुफ़ा देखने लगा।

    वह अजंता एलोरा की गुफ़ाओं-सी ऐतिहासिक थी, शिल्पियों द्वारा काटकर ही बनाई गई थी और वह अमरनाथ की प्राकृतिक गुफ़ा-सी विशाल थी। लगता था, पानी ने अंदर-ही-अंदर रिस-रिसकर गहरी लंबी खोह बना दी है। उसका इधर का मुहाना काफ़ी बड़ा था। पानी ने कदाचित दूसरी ओर छोटा-सा मार्ग निकाल लिया होगा, जिसे उस बंगाली युवक ने उधर से देखा होगा। सूखे नालों में जैसे ऊबड़-खाबड़ पत्थर पड़े रहते हैं, इसी तरह उसमें भी बड़े-बड़े, गोल-नुकीले, चिकने, खुरदरे पत्थर पड़े थे और ऊपर छत से पानी के निरंतर प्रवाह से शताब्दियों में तरशे हुए कई रंगों और आकारों के पत्थर मानो लटके हुए थे। जब मूसलाधार वर्षा होती होगी तो पानी पहाड़ से रिसकर धाराओं का रूप धारण कर लेता होगा। जाने कितनी सदियों में पानी ने यह लंबी, अँधेरी, बीहड़ गुफ़ा बना दी थी। हम तो इंजीनियर थे और पत्थरों की बनावट और रंगों का हमें प्राविधिक ज्ञान था। गुफ़ा में अँधेरा था और हमारे पास टॉर्च नही थी। उस वक़्त ख़याल आया—काश शिलांग ही में चौधरी साहब ने इस बीहड़ गुफ़ा के बारे में बताया होता और हम एक बड़ी टॉर्च साथ लाए होते! तब हम इसकी छत में लटकते पत्थरों के रंगों का लुत्फ़ उठाते और इनके अंदर जाकर दूसरी ओर से निकलने का प्रयास करते। हमारे साथी उस विशाल अजगर के भयानक जबड़े-जैसे गुफ़ा के मुहाने से बाहर निकलने को उतावले थे। सो, हम उसकी प्रशंसा करते हुए लौट पड़े। लगता है हमारे उस बंगाली पथ-प्रदर्शक ने उस तरफ़ वाला गुफ़ा का छोटा मुँह ही देखा होगा और किसी भीमकाय राक्षस के भयानक मुख-जैसा इधर का दहाना देखकर वह मारे भय के पलट पड़ा होगा।

    डामुम के किनारे उस जगह वापस आकर, जहाँ खासी तरुण नेज़ा चलाने का अभ्यास कर रहे थे, मैंने शरारतन उस खासी युवक के हाथ पर एक रुपया टिका दिया।

    उसकी बड़ी-बड़ी आँखें फैल गईं।

    ‘भगवान क्या बोलेगा!’ उसने दोनों हाथ उठाकर बड़े भोलेपन से अस्फुट स्वर में कहा और इशारे से समझाया कि तीन रुपए से कम लेने पर उसका भगवान नाराज़ हो जाएगा।

    यह पहला हिंदी वाक्य था, जो मैंने किसी खासी के मुँह से सुना और मुझे बड़ी ख़ुशी हुई।

    ‘तुम्हारा भगवान कुछ बोले, इसलिए...’

    और मैंने उसके हाथ पर दो और रुपए रख दिए। फिर में अपने बंगाली भगवान की ओर पलटा और उससे प्रार्थना की कि यह अब वापसी पर कृपा कर, हमें रामकृष्ण मिशन तो दिखा दे, जिसमें कि अपने कथनानुसार यह तीन महीने तक रह आया है।

    वह सहर्ष तैयार हो गया, क्योंकि वास्तव में उसे रामकृष्ण मिशन ही जाना था, और यह सब नाटक शायद उसे ड्राइवर के सिखाने पर करना पड़ा था, जो उसे सस्ते में (कदाचित चाय-पानी की व्यवस्था के निमित्त) हमारी ही ट्रैक्सी में ले आया था।

    वापसी पर वह हमारे साथ नहीं आया और कौशल्या अगली सीट पर तथा मैं और चौधरी साहब मज़े से पिछली सीट पर बैठे आए।

    कालिंपोंग 5 जुलाई, 61

    यह पत्र मैंने तुम्हें एक महीना पहले पीक होटल, शिलांग में लिखना शुरू किया था, लेकिन पूरा नहीं कर सका था कि कौशल्या बाज़ार से गई थी। इसे ख़त्म करने का अवसर नहीं मिला। शिलांग से गौहाटी होता हुआा कामाख्या देवी के दर्शन कर, मैं कालिंपोंग गया। दूसरे ही दिन बुख़ार हो आया। सात दिन बुख़ार से पड़ा रहा। कौशल्या ने लाख चाहा कि वापस इलाहाबाद चलूँ, यहाँ आराम करके नैनीताल जाऊँ और ‘पाहर में घूमता आईना’ पूरा करूँ। लेकिन मैं यहीं रह गया हूँ। इस पत्र के पहुँचने के साथ कौशल्या इलाहाबाद पहुँच जाएगी। मैंने यहीं एक बंगला किराए पर ले लिया है। उमेश की बहू को आने के लिए लिख दिया है। अब मैं अपना उपन्यास ख़त्म करके ही लौटूँगा। ईओसिनोफ़ीलिया अब भी है, लेकिन उससे डरकर मैं इलाहाबाद जाऊँगा तो इस वर्ष उपन्यास नहीं लिख पाऊँगा। 1957 में शुरू किया था; 61 होने को आया है; टलता गया तो टल ही जाएगा और मुझे तो अभी इसके तीन खंड और लिखने हैं।

    यहाँ के हाल-चाल कौशल्या देगी, तुम इलाहाबाद के समाचार देना। मित्रों को मेरी याद दिलाना। आशा है, तुम स्वस्थ और सानंद हो और हमेशा की तरह साइकिल से इलाहाबाद की पसलियों को रौंदते हुए दिन-रात घूम रहे हो।

    सस्नेह

    उपेन्द्रनाथ अश्क

    स्रोत :
    • पुस्तक : अश्क 75 द्वितीय भाग (पृष्ठ 101)
    • रचनाकार : उपेन्द्रनाथ अश्क
    • प्रकाशन : राधाकृष्ण प्रकाशन
    • संस्करण : 1986
    हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

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    ‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।

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