दाँते के नगर में

dante ke nagar mein

रामवृक्ष बेनीपुरी

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दाँते के नगर में

रामवृक्ष बेनीपुरी

और अधिकरामवृक्ष बेनीपुरी

     

    फ़्लौरेंस 
    15/06/1952

    जब हम वेनिस से फ्लौरेंस के लिए रवाना हुए, फिर वही हरी-भरी खेतियाँ नज़र आने लगीं। गेहूँ की कटाई ज़ोरों पर चल रही हैं—कहीं पूलियाँ, कहीं बोझे। कहीं-कहीं दवाई भी हो रही है। कटाई ज़्यादातर हाथों से ही, किंतु अपने यहाँ की तरह हँसिया लेकर झुककर या बैठकर नहीं काटते। लाठी ऐसी चीज़ के निचले छोर पर हँसिया लगा है और उसके नीचे चलनी ऐसी चीज़। हँसिया से काटकर डंठल उस चलनी में गिरते जाते हैं और उन्हें जगह-जगह रखते जाते फिर पूलियाँ या बोके बनाते हैं। कहीं-कहीं बैलों से चलने वाली मशीन से भी कटाई की जाती थी। कटनी के समय अपने यहाँ जिस तरह बच्चे खेतों में जाना पसंद करते हैं, वही हालत यहाँ भी देखी। बच्चे खेल-कूद रहे थे या कटनी में मदद दे रहे थे। स्त्रियों को तो कटाई के समय खेतों में रहना ही चाहिए। अन्नपूर्णा के आँचल से अन्नपूर्णा के आँचल में—यही व्यवस्था तो उचित है।

    कटे हुए खेत भी वीरान नहीं लगते, क्योंकि मेड़ों पर शहतूत के पेड़ कतार में लगे रहते हैं। ये हरे-भरे छोटे-छोटे तंबू से पेड़। इन पर रेशम के कीड़े पलते हैं—इटली का रेशम संसार में प्रसिद्ध है। दो पेड़ों के बीच कमानियाँ गाड़कर या कमानियाँ लगाकर, उन पर अंगूर की लताएँ चढ़ा दी जाती हैं। इटली की मशहूर शराबें इन्हीं अंगूरों की बेटियाँ हैं न?

    मकई की खेती लहरा रही है। कमर से लेकर छाती तक ऊँचे इनके ये लहलहाते पौधे! कहीं-कहीं ऊपर बालें फूट रही हैं। इन हरे-हरे खेतों में कहीं-कहीं रंगीन घांघरे दिखाई देते हैं—लड़कियाँ घूम रही हैं इन हरियाली के बाज़ार में! निचले खेतों में धान के पौधे—पानी पीकर कैसे पुष्ट बने हैं वे। इधर बीट की खेती भी ख़ूब होती है—चुकंदर की चीनी के लिए भी इटली मशहूर है। कहीं-कहीं जूट के-से पौधे भी देखे। मैंने एक सज्जन से पूछा—जूट? उन्होंने सिर हिला दिया, किंतु उन्होंने मेरी भाषा समझी या नहीं, भगवान जानें।

    बोलोन में गाड़ी बदली। बोलोन का शहर बहुत सुंदर और हरा-भरा नज़र आया। नए रंगीन मकान, फुलवाड़ियाँ, बग़ीचे, धारियाँ। यहाँ से पहाड़ी ही पहाड़ी। पहाड़ पर भी खेती। इटली के लोग मौजी होते हैं, सुना था। उसके किसान उद्योगी होते हैं, देख रहा हूँ। पहाड़ी से जो छोटी-छोटी नालियाँ नीचे उतर रही हैं, उनमें बच्चे मछली मार रहे हैं। सड़कें, इस घोर देहात में भी बड़ी अच्छी। उन पर मोटरें, साइकिलें, मोटर साइकिलें दौड़ रही हैं। मोटर साइकिलों की पिछली सीट पर प्रायः ही कोई सुंदरी।

    लगभग पाँच बजे ही फ्लौरेंस पहुँचे। जिसे हम फ्लौरेंस कहते हैं उसे यहाँ के लोग 'फिरेंज' कहते हैं। इटली भर में नामों की यह गड़बड़ी देखी। हम लोग अँग्रेज़ों की दी हुई नामावली को ही अब तक दुहरा रहे हैं। इटली को उसके निवासी 'इटालिया' कहते हैं, वेनिस को ‘वेनोजिया’, मिलान को 'मिलानो', रोम को 'रोमा!' यही कहते हैं, लिखते भी हैं। अब हम क्यों नहीं, देशों और नगरों के नाम उस देश और निवासियों द्वारा दिए गए नामों से ही पुकारा करें?

    फ्लौरेंस—छोटा-सा शहर है यह, कुल साढ़े तीन लाख की आबादी। किंतु, इस शहर का इतिहास कितना शानदार है! एक दाँते का नगर होने से ही इतिहास इसको गौरव का स्थान देता—दाँते, 'डिवाइन कॉमेडी’ का वह अमर कवि, जिसका जोड़ा यूरोप अभी तक नहीं पैदा कर सका! उसका वह रुमानी जीवन, उसकी उदात्त कल्पना! फिर फ्लौरेंस माइकेल ऐंजेलों की भी जन्मभूमि है और यहीं लियानार्दो द विंची और राफेल ऐसे कलाकारों ने अपनी कला के लिए शिक्षा और प्रेरणा पाई! माइकेल ऐंजेलो— यह कलाकार आज भी संसार में अद्वितीय है! यही नहीं, बांकासियों ऐसे कथाकार, शहीद प्रवर सैबोनारोला, कूटराजनीति का प्राचार्य मैकियावेली और ज्योतिषाचार्य गैलेलियो की जन्मभूमि होने का गौरव भी इस नगर को प्राप्त है। यह तो महान् आचार्यों की नामावली है, सात सौ वर्षों से यह स्थान कला और साहित्य के क्षेत्र में कमाल दिखाने वाले असंख्य महापुरुषों की जन्मभूमि रहा है।

    फ्लौरेंस का नया स्टेशन उसके गौरव के अनुरूप ही है—साफ़-सुथरा ख़ूबसूरत। स्टेशन के बग़ल में ही वह होटल था, जिसमें पहले से हमारी जगह सुरक्षित थी। होटल में सामान रख, स्नान कर, हम तुरंत निकल पड़े शहर देखने। थोड़े समय में ही बहुत देखना आराम या बर्बाद करने के लिए हमारे पास समय कहाँ?

    फ्लौरेंस की 'पथ प्रदर्शिका' बताती है—इस नगरी की ज़िंदगी में ऐसे क्षण आते हैं कि वह वाटिका, प्रदर्शनी, और रंगभूमि और भावभूमि का रूप धारण कर लेती हैं। जहाँ संध्या हुईं कि नागरिक और नागरिकाएँ, सुंदरियाँ और उनके पिछलगुए, माताएँ और पत्नियाँ, बूढ़े दादा और छोटे नाती पोते, विवाहित और कुँआरे तरह-तरह के वस्त्रों से सुसज्जित होकर इसकी सड़कों और गलियों को गुलज़ार बनाते हैं। इसके क्लब, काफे, कला-प्रदर्शनी, संगीत-भवन, सभा-गृह, पुस्तकालय होकर और दूकानें सभी सदा भरी रहती हैं। फ्लौरेंस विश्व संस्कृति का केंद्र है—यहाँ के लोग स्वभावतः ही ख़ुश मिजाज और खुले दिल के होते हैं—तुरंत घुल मिल जाना और बात-बात पर चुटकियाँ लेना इनके स्वभाव में शामिल हो गया है। यहाँ की स्त्रियाँ अपनी ख़ूबसूरती के लिए ही नहीं, अपनी सुरुचि और कलाप्रेम के लिए भी प्रसिद्ध हैं। यहाँ का खाना और पीना, दोनों अपनी विशेषता रखते हैं। यहाँ के उत्सवों की अधिकता और आनंदमग्नता देखकर कोई भी चकित हो जाता है। यदि किसी गाँव के हाट या मेले में जाइए तो मालूम पड़े, यहाँ के साधारण लोगों के जीवन में भी कला किस तरह घुल गई है—संगीत-नृत्य की बहार के साथ रंग-बिरंगी सूरतें और पोशाकें आपकी आँखों में गड़कर रहेंगी।

    ज्यों ही होटल से बाहर निकला, फ्लौरेंस का रोब दिल पर क़ब्ज़ा करने लगा। सड़कें साफ़, दुकानें चकमक, ट्राम, बस, मोटरों की भरमार लोगों के चेहरे बड़े साफ़ बड़े सुंदर। पेरिस ऐसी नज़ाकत तो नहीं; किंतु जवानों में मर्दानगी और युवतियों में यौवन के चिह्न स्पष्ट दिखाई देते हैं। थके-माँदे थे, एक रेस्तराँ में बैठ कर अपने में ताज़गी लाए। फिर लगे भटकने। मेरा ख़्याल है, विदेश में पहले दिन अनिश्चित भ्रमण होना चाहिए, तभी उस शहर की ख़ूबी मालूम हो सकती है। किंतु यह क्या? यह सामने कौन-सी अट्टालिका खड़ी हो गई? इसकी बनावट तो मालूम नहीं! लगा, जैसे यह कोई देव मंदिर हो। हाँ, हाँ देव मंदिर ही तो। आगे यह संत जैन का चर्च है और पीछे वह सांता मारियाँ का कैथड्रल!

    संत जैन के चर्च की बनावट कुछ विचित्र है। इस चर्च का इतिहास भी इसी तरह विचित्र है। कहा जाता है, पहले यहाँ प्रकृति-पूजकों का मंदिर था। जब रोमनों के साथ वहाँ इसाई धर्म आ गया, यहाँ यह चर्च बना। इसके आकार-प्रकार पर रोमन कारीगरी की छाप है। किंतु इसे इस रूप में लाने का प्रयास तेरहवीं सदी में शुरू हुआ था। दो सदियों तक इसे सजाया ओर सँवारा गया। फिर इसे संत जैन के नाम पर उत्सर्ग किया गया। यही नहीं, तत्कालीन प्रजातंत्र सरकार ने यह व्यवस्था की कि प्रजातंत्र का कोई सदस्य, गिल्ड का कोई प्रधान,  कचहरी का कोई हाकिम तब तक नियुक्त नहीं हो सकता, जब तक इस चर्च में इसके लिए विशेष उपचार नहीं हो ले। प्रजातंत्र ने ही इसमें तीन दरवाज़े बनाने का निर्णय किया, जिसमें एक दरवाज़ा वेनिस के प्रसिद्ध कलाकार पिसानों ने बनाया। यह दरवाज़ा स्थापत्य कला के सर्वोत्तम नमूनों में समझा जाता है। बाक़ी वो दरवाज़े फ्लौरेंस के युवक कलाकार शिलबी ने बनाए। पच्चीस वर्षो की मेहनत के बाद ये दरवाज़े बन सके। गिलवती ने कुछ ऐसा कमाल दिखलाया कि माइकेल ऐंजलो तक ने इसके तीसरे दरवाज़े को स्वर्ग का द्वार कहकर सराहा। आज तक यह इसी नाम से पुकारा जाता है। दाँत ने बड़े गर्व के साथ उल्लेख किया है कि उसका जात कर्म इसी चर्च में हुआ था। और उसने आशा की थी कि इसी चर्च में कवि-सम्राट के रूप में उसका अभिषेक होगा।

    जब हम चर्च के निकट पहुँचे, वह बंद हो चुका था। हाँ, स्वर्गद्वार के सामने लोगों की भीड़ थी जो उसमें चित्रित 'आदमी की कथा' की चित्रावली को मुग्ध हो कर देख रही थी।

    किंतु सांता मारिया का कैथेड्रल अभी तक खुला था। हम उसमें घुसे। यह कैथेड्रल यूरोप के चार बड़े कैथेड्रलों में तीसरा स्थान रखता है। वड़ा ही भव्य, बड़ा ही दिव्य।  जब हम भीतर पहुँचे, वहाँ पूजा हो रही थी। कई पादरी ईसा की मूर्ति के सामने मंत्र पढ़ रहे थे और उनके सामने भक्तों की भीड़ घुटने टेके मंत्रों को दुहरा रही थी। ध्वनि से कैथेड्रल का वातावरण गुंजित था। मंत्रों के साथ श्रुतिमधुर बाजे भी बज रहे थे। अपने देश के मंदिरों की याद आई—वही अपने यहाँ के घंटे, घड़ियाल स्तोत्र, जयजयकार! किंतु अपने यहाँ भक्ति-भावना कम, षोड़शोपचार अधिक। यहाँ देखा, ऊपर से भक्ति की प्रचुरता दिखाई पड़ती थी, अंतर का हाल अन्तर्यामी जानें!

    इस कैथेड्रल के बनाने में बड़े-बड़े स्थापत्य विशारदों का हाथ रहा है। इसका गुंबद ब्रुनेलैशी ने बनवाया था—बिना किसी सहारे का यह गुंबद आकाश छूता था। इसका घंटाघर जिमेत्रो ने बनाना शुरू किया, किंतु उसकी मृत्यु के बाद पिसानों ने इसे पूरा किया। उसकी दिवालों पर जो चित्रावली और भित्ति मूर्तियाँ हैं, तथा जहाँ-तहाँ स्थापित जो मूर्तियाँ हैं, वे भी बड़े-बड़े कलाकारों की कूची और छेनी की करामात हैं। लुका डेला रोविया की अनुपम कलाकृतियाँ और माइकेल ऐंजोलो की बनाई दो अनुपम मूर्तियाँ हैं। माइकेल ऐंजोलो द्वारा बनाई माता मेरी की गोद में शहीद ईसा की मूर्त्ति को देखकर कौन भाव-विभोर नहीं हो रहेगा? कहा जाता है, यह माइकेल ऐंजोलो की अंतिम मूर्ति है, और बहुत अंशों में अधूरी है। शहीद ईशा के चेहरे और माता मेरी की करुण भावना की ऐसी प्रतिकृति यहाँ उतरी है कि हृदय बरबस द्रवित हो जाता है। कहा जाता है, माता मेरी के पीछे जोसेफ की जो मूर्ति है, वह माइकेल ऐंजोलो की अपनी मूर्ति है—अस्सी साल का बूढ़ा, झुर्रियों से भरा चेहरा, सफ़ेद दाढ़ी, किंतु आँखें जैसे आँसुओं में डूबकर भी बिजली-सी जल रही हों! कैथेड्रल में चित्रों की भी भरमार! मुझे वह चित्र बहुत भाया जिसमें दाँते अपनी पुस्तक पढ़ते हुए उसमें वर्णित नरक की ओर अंगुली निर्देश कर रहे हैं।

    कुछ आगे बढ़े तो इसके मुख्य बाज़ार में पहुँच गए। विशाल इमारतें, उनके शानदार बरामदों में दुकानें सजीं। हम उन्हें अतृप्त नयनों से देख रहे थे कि कानों में संगीत की मधुर मोहक ध्वनि पड़ी—उससे खिंच कर हम एक बड़ी अंगनाई में आ गए। एक रेस्तराँ है—उसके सामने भीड़ है, भीड़ के आगे रंगीन छतरियों के नीचे बैठ लोग खा-पी रहे हैं। रेस्तराँ की ओर से ही संगीत का यह आयोजन। मंच पर खड़ी एक लड़की गा रही थी। बाजों में ढोलक ऐसी, खंजड़ी ऐसी, करताल ऐसी, सितार ऐसी और बाँसुरी ऐसी चीज़ें—काठ के दो टुकड़ों को लेकर भी बजा रहे थे मंजीरे की तरह की कोई चीज़। इन बाजों से जो एक अजीब स्वर-लहरी निकलती उस पर तैरती-सी उस लड़की की स्वर माधुरी! वह देखने में सुंदर, छोटे कद की, कमसिन! कंठ का क्या कहना—लगता था, अमृत उँडेल रही है। गाने की तर्ज ही नहीं, शब्दों का उच्चारण भी बहुत कुछ भारतीय ढंग का!

    जब हम गाने सुनने में तल्लीन थे, एक नौजवान मेरे निकट आकर पूछने लगा—क्या आपको यह गाना पसंद आ रहा है? जब मैंने हाँ कहा, वह बड़ा प्रसन्न हुआ। बात ही बात वह कुछ ऐसा घुल-मिल गया कि वह स्वयं हमें अपने घर की चीज़ें दिखलाने चला। अभी विद्यार्थी ही है वह—अट्ठारह-उन्नीस वर्ष का होगा। गोरा, ख़ूबसूरत चेहरा, नाक उठी हुई शरीर भरा-पूरा कपड़े बड़े सलीके के। कॉलेज से ग्रैजुएट होकर गणित की ऊँची पढ़ाई के लिए 'स्कूल' में भरती हुआ है। कल उसकी परीक्षा है, किंतु वाह री भद्रता! हमारे साथ इस संध्या को घूम रहा है। अपने शहर के ज़र्रे-ज़र्रे से जैसे वह परिचित हो—इतिहास की, कला की, साहित्य की कैसी जानकारी है उसकी, विज्ञान का तो वह विद्यार्थी ही है। उस लड़के के शील स्वभाव और ज्ञान को देखकर बार-बार अपने यहाँ के विद्यार्थियों की याद आती रही, जो नाक से आगे देख नहीं पाते और अभद्रता तो जिनकी जवानी की निशानी है।

    यहाँ से हम उस स्थान को आए जिसे आप फ्लौरेंस का खुला म्यूजियम भी कह सकते हैं। इसका नाम है पियाजा सिनोरिया या प्रजातंत्र का मैदान। इस मैदान में साल में दो बार फुटबॉल होता है, जिसमें तरह-तरह की पोशाक पहन कर खिलाड़ी उतरते और हाथ से भी गेंद को उछाल सकते हैं। यह फ्लौरेंस का सुप्रसिद्ध राष्ट्रीय खेल है। मैदान के एक ओर प्रजातंत्र का भवन है, जिसमें अब म्यूनिसिपैलिटी का दफ़्तर रहता है। भवन के सामने खुले प्रकाश के नीचे कुछ मूर्तियाँ हैं, जो कला की उत्तमोत्तम कृत्तियों में गिनी जाती हैं। यहीं माइकेल-ऐंजोलो का 'डेविड' है; माना जाता है, मानव की ऐसी सुंदर स्वाभाविक मूर्ति संसार में दूसरी कोई नहीं। यहीं बृहस्पति का फव्वारा है—बृहस्पति की ऊँची विशाल मूर्ति के सामने यह फव्वारा दिन-रात पानी की बूँदें बरसाता रहता और सब से बढ़कर यहीं एक वह सिंह-मूर्ति है जो फ्लौरेंस का राज-चिह्न जाती है। सिंह-मूर्ति के हृदय-भाग में लीली फूल का चिन्ह है—फ्लौरेंस ‘लीली’ का नगर भी कहा जाता है। लाल पृष्ठभूमि में उजली लीली का यह चिह्न फ्लौरेंस के निवासियों के लिए सबसे प्रिय चिह्न है और उनकी सारी कलाकृतियों पर इसकी छाप रहती है। कहाँ सिंह—कहाँ लीली! वीरता और कोमलता का यह संगम—मैंने मन ही मन इस मूर्ति को प्रणाम किया।

    अब शाम हो रही थी। हम आगे बढ़े और फ्लौरेंस के सुप्रसिद्ध चित्रालय यूफीजी के आँगन में हम आ चुके थे। चित्रालय बंद हो चुका था लेकिन उसकी विशालता तो हमारे सामने खड़ी थी। आँगन के सामने बरामदों के खंभों पर फ्लौंरेस की सभी सपूतों की मूर्तियाँ हैं। ऐसे सपूतों की जिन्होंने कला, विज्ञान, इतिहास, कविता आदि में कमाल दिखलाए थे—दाँते की, माइकेल ऐंजेलो की, गैलेलियो को, मेकियावेली की, आदि-आदि। आँगन से निकल कर हम आरनो नदी के किनारे पहुँचे। यह छोटी-सी नदी है। किंतु फलौरेंस निवासियों के लिए बड़ी ही प्यारी और पवित्र भी। गर्मी का जम़ाना है, पानी सूख गया है। रेत के बीच में पतली-सी धारा। इस नदी पर पहले छः पुल थे, किंतु उनमें से पाँच पुलों को जर्मनों ने पिछले महायुद्ध में उड़ा दिया था। उन पुलों में एक पुल ऐसा था, जो संसार का सबसे सुंदर पुल समझा जाता था। जो एक बच गया है वह फ्लौरेंस का सबसे पुराना पुल समझा जाता है। यों बीच-बीच में उसकी मरम्मत होती रही है और पुराना रूप बहुत कुछ बदल गया है। इस पुल पर से उस युवक ने उस सर्वसुंदर पुल के भग्नावशेष को दिखलाया! इसी पुल पर सीज़र की वह मूर्ति थी जिसकी नक़ल कई जगहों पर की गई है।

    पुलों को ही नहीं, शहर के नदी किनारे के बहुत बड़े भाग को भी जर्मनों ने सत्यानाश में मिलाया। जहाँ-तहाँ खंडहर ही खंडहर। एक बड़ी इमारत अमेरिकन ढंग की देखी। बड़ी ही शानदार किंतु जब उसकी चर्चा चली, युवक का चेहरा तमतमा गया। उसने कहा—यह इमारत हमारे शहर के लिए कलंक है क्योंकि इसका स्थापत्य से मेल नहीं खाता। यह तो न हमारे शहरों के वातावरण के अनुकूल है, न शहर की इमारतों में खपती ही है। हम लोगों ने इस पर एतराज किया था और आश्वासन दिया गया है कि जो नई इमारतें बनेंगी उनमें हमारे नगर की परंपरा से चली आती हुई स्थापत्य कला पर ध्यान दिया जाएगा। युवक की यह बात सुनकर अपने देश की याद आई, जहाँ विदेशों की नक़ल पर ही प्रायः हमारी सारी इमारतें बनती हैं।

    यहाँ भी होटल के सामने सिर्फ़ सोने की व्यवस्था है। यों वहाँ आप खा भी सकते हैं, किंतु होटलों का भोजन महँगा पड़ता है। हमने युवक से किसी सस्ते रेस्तराँ की बात पूछी। उसने एक रेस्तराँ का नाम बताया और हमको वहाँ तक पहुँचा भी दिया। हमारे बार-बार के आग्रह पर भी उसने भोजन नहीं किया। कहा, मेरे घर लोग इंतज़ार करते होंगे। उसकी भद्रता हमें मुग्ध किए जा रही थी। रेस्तराँ वालों ने बड़ा ही नेक व्यवहार किया। हमारे कहने पर तुरंत भात बनाया और सामान भी बड़े ही सुस्वादु थे और उनकी क़ीमत तो पेरिस से आधी से भी कम! फ्लौरेंस वालों को अच्छी रसोई बनाने पर भी नाज है और अपनी शराब के बारे में तो बड़े फ़ख्र से कहते हैं कितनी भी पीजिए, जीभ सूख नहीं सकती और उसकी सुगंध आपके दिमाग़ को बहुत देर तक मुअत्तर बनाए रहेगी। उनके यहाँ एक कहावत है रोटी एक दिन की और शराब एक वर्ष की। उसकी शराबों में शियांती बहुत ही मशहूर है। सचमुच शियांती शांतिदायनी है। सोने के पहले एक बार फिर स्टेशन देख आए। रोशनी की रंगीनी में स्टेशन और भी ख़ूबसूरत मालूम होता था और उनकी बग़ल के रेस्तराओं का क्या कहना? मस्ती और रंगीनी छलकी पड़ती थी। स्टेशन से लौट कर सो गया—फ्लौरेंस की गरिमा और रंगीनियों का स्वप्न देखता हुआ।

    स्रोत :
    • पुस्तक : उड़ते चलो उड़ते चलो (पृष्ठ 246)
    • रचनाकार : रामवृक्ष बेनीपुरी
    • प्रकाशन : प्रभात प्रेस लिमिटेड, पटना
    • संस्करण : 1954

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