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एक आदमी रात्रि की महक

ek adami ratri ki mahak

फणीश्वरनाथ रेणु

फणीश्वरनाथ रेणु

एक आदमी रात्रि की महक

फणीश्वरनाथ रेणु

और अधिकफणीश्वरनाथ रेणु

    ...न ...करमा को नींद नहीं आएगी।

    नए पक्के मकान में उसे कभी नींद नहीं आती। चूना और वार्निश की गंध के मारे उसकी कनपटी के पास हमेशा चौअन्नी-भर दर्द चिनचिनाता रहता है। पुरानी लाइन के पुराने 'इस्टिसन' सब हज़ार पुराने हों, वहाँ नींद तो आती है।...ले, नाक के अंदर फिर सुड़सुड़ी जगी ससुरी...!

    करमा छींकने लगा। नए मकान में उसकी छींक गूँज उठी।

    “करमा, नींद नहीं आती?” 'बाबू' बू ने कैंप-खाट पर करवट लेते हुए पूछा।

    गमछे से नथुने को साफ़ करते हुए करमा ने कहा—“यहाँ नींद कभी नहीं आएगी, मैं जानता था, बाबू!”

    “मुझे भी नींद नहीं आएगी”, बाबू ने सिगरेट सुलगाते हुए कहा—“नई जगह में पहली रात मुझे नींद नहीं आती।”

    करमा पूछना चाहता था कि नए 'पोख़्ता' मकान में बाबू को भी चूने की गंध लगती है क्या? कनपटी के पास दर्द रहता है हमेशा क्या?...बाबू कोई गीत गुनगुनाने लगे। एक कुत्ता गश्त लगाता हुआ सिगनल-केबिन की ओर से आया और बरामदे के पास आकर रुक गया। करमा चुपचाप कुत्ते की नीयत को ताड़ने लगा। कुत्ते ने बाबू की खटिया की ओर थुथना ऊँचा करके हवा में सूँघा। आगे बढ़ा। करमा समझ गया—ज़रूर जूता-ख़ोर कुत्ता है, साला!... नहीं, सिर्फ़ सूँघ रहा था। कुत्ता अब करमा की ओर मुड़ा। हवा सूँघने लगा। फिर मुसाफ़िरख़ाने की ओर दुलकी चाल से चला गया।

    बाबू ने पूछा—“तुम्हारा नाम करमा है या करमचंद या करमू?”

    ...सात दिन तक साथ रहने के बाद, आज आधी रात के पहर में बाबू ने दिल खोल कर एक सवाल के जैसा सवाल किया है।

    “बाबू, नाम तो मेरा करमा ही है। वैसे से लोगों के हज़ार मुँह हैं, हज़ार नाम कहते हैं।...निताय बाबू कोरमा कहते थे, घोस बाबू करीमा कह कर बुलाते थे, सिंघ जी ने सब दिन कामा ही कहा और असग़र बाबू तो हमेशा करम-करम कहते थे। ख़ुश रहने पर दिल्लगी करते थे—हाय मेरे करम!...नाम में क्या है, बाबू? जो मन में आए कहिए। हज़ार नाम...!”

    “तुम्हारा घर संथाल परगना में है, या राँची-हज़ारीबाग़ की ओर?”

    करमा इस सवाल पर अचकचाया, ज़रा! ऐसे सवालों के जवाब देते समय वह रमते जोगी की मुद्रा बना लेता है। ‘घर? जहाँ धड़, वहाँ घर। माँ-बाप-भगवान जी!’...लेकिन, बाबू को ऐसा जवाब तो नहीं दे सकता!

    ...बाबू भी ख़ूब हैं। नाम का 'अर्थ' निकाल कर अनुमान लगा लिया—घर संथाल परगना या राँची-हज़ारीबाग़ की ओर होगा, किसी गाँव में? करमा-पर्व के दिन जन्म हुआ होगा, इसीलिए नाम करमा पड़ा। माथा, कपाल, होंठ और देह की गठन देखकर भी...।

    ...बाबू तो बहुत 'गुनी' मालूम होते हैं। अपने बारे में करमा को कुछ मालूम नहीं। और बाबू नाम और कपाल देखकर सब कुछ बता रहे हैं। इतने दिन के बाद एक बाबू मिले हैं, गोपाल बाबू जैसे!

    करमा ने कहा—“बाबू, गोपाल बाबू भी यही कहते थे! यह 'करमा' नाम तो गोपाल बाबू का ही दिया हुआ है!”

    करमा ने गोपाल बाबू का क़िस्सा शुरू किया—“...गोपाल बाबू कहते थे, आसाम से लौटती हुई कुली-गाड़ी में एक 'डोको' के अंदर तू पड़ा था, बिना 'बिलटी-रसीद' के ही...लावारिस माल।'

    ...चलो, बाबू को नींद गई। नाक बोलने लगी। गोपाल बाबू का क़िस्सा अधूरा ही रह गया।

    ...कुतवा फिर गश्त लगाता हुआ आया। यह कातिक का महीना है न! ससुरा पस्त होकर आया है। हाँफ रहा है।...ले, तू भी यहीं सोएगा? ऊँह! साले की देह की गंध यहाँ तक आती है—धेत! धेत!

    बाबू ने जग कर पूछा, “हूँ-ऊ-ऊ! तब क्या हुआ तुम्तुहारे गोपाल बाबू का?”

    कुत्ता बरामदे के नीचे चला गया। उलट कर देखने लगा। गुर्राया। फिर, दो-तीन बार दबी हुई आवाज़ में 'बुफ-बुफ' कर ज़नाने मुसाफ़िरख़ाने के अंदर चला गया, जहाँ पैटमान जी सोता है।

    “बाबू, सो गए क्या?”

    …चलो, बाबू को फिर नींद गई! बाबू की नाक ठीक 'बबुआनी आवाज़' में ही 'डाकती' है!...पैटमान जी तो, लगता है, लकड़ी चीर रहे हैं!—गोपाल बाबू की नाक बीन-जैसी बजती थी—सुर में!!...असग़र बाबू का ख़र्राटा...सिंघ जी फुफकारते थे और साहू बाबू नींद में बोलते थे—'ए, डाउन दो, गाड़ी छोड़ा...!'

    ...तार की घंटी! स्टेशन का घंटा! गार्ड साहब की सीटी! इंजिन का बिगुल! जहाज़ का भोंपो!—सैकड़ों सीटियाँ...बिगुल...भोंपा...भों-ओं-ओं...!

    …हज़ार बार, लाख बार कोशिश करके भी अपने को रेल की पटरी से अलग नहीं कर सका, करमा। वह छटपटाया। चिल्लाया, मगर ज़रा भी टस-से-मस नहीं हुई उसकी देह। वह चिपका रहा। धड़धड़ाता हुआ इंजिन गरदन और पैरों को काटता हुआ चला गया। ...लाइन के एक ओर उसका सिर लुढ़का हुआ पड़ा था, दूसरी ओर दोनों पैर छिटके हुए! उसने जल्दी से अपने कटे हुए पैरों को बटोरा—अरे, यह तो एंटोनी 'गाट' साहब के बरसाती जूतेजू ते का जोड़ा है! गम-बूट!...उस बू का सिर क्या हुआ?..धेत, धेत! ससुरा नाक-कान बचा रहा...!

    “करमा!”

    —धेत-धेत!...

    “उठ करमा, चाय बना!”

    करमा धड़फड़ा कर उठ बैठा।...ले, बिहान हो गया। मालगाड़ी को 'थूरु-पास' करके, पैटमान जी हाथ में बेंत की कमानी घुमाता हुआ रहा है। ...साला! ऐसा भी सपना होता है, भला? बारह साल में, पहली बार ऐसा अजूबा सपना देखा करमा ने।

    बारह साल में एक दिन के लिए भी रेलवे-लाइन से दूर नहीं गया, करमा। इस तरह 'एकसिडंटवाला सपना' कभी नहीं देखा उसने!

    करमा रेल-कंपनी का नौकर नहीं। वह चाहता तो पोटर, ख़लासी पैटमान या पानी पाँड़े की नौकरी मिल सकती थी। ख़ूब आसानी से रेलवे-नौकरी में 'घुस' सकता था। मगर मन को कौन समझाए! मन माना नहीं। रेल-कंपनी का नीला कुर्ता और इंजिन-छाप बटन का शौक़ उसे कभी नहीं हुआ!

    रेल-कंपनी क्या, किसी की नौकरी करमा ने कभी नहीं की। नामधाम पूछने के बाद लोग पेशे के बारे में पूछते हैं। करमा जवाब देता है—'बाबू के 'साथ' रहते हैं।'...एक पैसा भी मुसहरा लेनेवालों को 'नौकर' तो नहीं कह सकते!

    ...गोपाल बाबू के साथ, लगातार पाँच वर्ष! इसके बाद कितने बाबुओं के साथ रहा, यह गिनकर कर बतलाना होगा! लेकिन, एक बात है—'रिलिफिया बाबू' को छोड़कर किसी 'सालटन बाबू' के साथ वह कभी नहीं रहा। ...सालटन बाबू माने किसी 'टिसन' में 'परमानंटी' नौकरी करनेवाला—फ़ैमिली के साथ रहनेवाला!

    ...जा रे गोपाल बाबू! वैसा बाबू अब कहाँ मिले? करमा का माय-बाप, भाय-बहिन, कुल-परिवार, जो बूझिए—सब एक गोपाल बाबू!...बिना 'बिलटी-रसीद' का लावारिस माल था, करमा। रेलवे अस्पताल से छुड़ाकर अपने साथ रखा गोपाल बाबू ने। जहाँ जाते, करमा साथ जाता। जो खाते, करमा भी खाता। ...लेकिन आदमी की मति को क्या कहिए! रिलिफिया काम छोड़कर सालटानी काम में गए। फिर, एक दिन शादी कर बैठे।...बौमा...गोपाल बाबू की 'फ़ैमली'—राम-हो-राम! वह औरत थी? साच्छात चुड़ैल! ...दिन-भर गोपाल बाबू ठीक रहते। ते साँझ पड़ते ही उनकी जान चिड़िया की तरह 'लुकाती' फिरती।...आधी रात को कभी-कभी 'इसपेसल' पास करने के लिए बाबू निकलते। लगता, अमरीकन रेलवे-इंजिन के 'बायलर' में कोयला झोंक कर निकले हैं। ...करमा 'क्वाटर' के बरामदे पर सोता था। तीन महीने तक रात में नींद नहीं आई, कभी। ...बौमा 'फों-फों' करती—बाबू मिनमिना कुछ बोलते। फिर शुरू होता रोना-कराहना, गाली-गलौज, मारपीट। बाबू भाग कर बाहर निकलते और वह औरत झपट कर माथे का केश पकड़ लेती। ...तब करमा ने एक उपाय निकाला। ऐसे समय में वह उठकर दरवाज़ा खटखटा कर कहता—“बाबू, 'इसपेशल' का 'कल' बोलता है...।” बाबू की जान कितने दिनों तक बचाता करमा? ...बौमा एक दिन चिल्लाई,“ए छोकरा हरामज़दा के दूर कोरो। यह चोर है, चो-ओ-ओ-र!”

    ...इसके बाद से ही किसी 'टिसन' के फ़ैमिली क्वाटर को देखते ही करमा के मन में एक पतली आवाज़ गूँजने लगती है—चो-ओ-ओ-र! हरामज़दा! फ़ैमिली क्वाटर ही क्यों—ज़नाना मुसाफ़िरख़ाना, ज़नाना दर्जा, ज़नाना...ज़नाना नाम से ही करमा को उबकाई आने लगती है।

    ...एक ही साल में गोपाल बाबू को 'हाड़-गोड़' सहित चबाकर खा गई, वह ज़नाना! फूल-जैसे से सुकुमार गोपाल बाबू! ज़िंदगी में पहली बार फूट-फूट कर रोया था, करमा।

    ...रमता-जोगी, बहता-पानी और रिलिफिया बाबू! हेड-क्वाटर में चौबीस घंटे हुए कि 'परवाना' कटा—फलाने टिशन का मास्टर बीमार है, सिक-रिपोट आया है। तुरंत 'जोआयेन' करो।...रिलिफिया बाबू का बोरिया-बिस्तर हमेशा 'रेडी' रहना चाहिए। कम-से-कम एक सप्ताह, ज़्यादा से ज़्यादा तीन महीने से ज़्यादा किसी एक जगह जमकर नहीं रह सकता, कोई रिलिफिया बाबू। ...लकड़ी के एक बक्से में सारी गृहस्थी बंद करके—आज यहाँ, कल वहाँ। ...पानीपाड़ा से भातगाँव, कुरैठा से रौताड़ा। फिर, हेड-क्वाटर, कटिहार!

    ...गोपाल बाबू ने ही घोस बाबू के साथ लगा दिया था—ख़ूब भालो बाबू। अच्छी तरह रखेगा। लेकिन, घोस बाबू के साथ एक महीना से ज़्यादा नहीं रह सका, करमा। घोस बाबू की बेवजह गाली देने की आदत! गाली भी बहुत ख़राब-ख़राब! माँ-बहन की गाली।...इसके अलावा घोस बाबू में कोई ऐब नहीं था। अपने 'सवांग' की तरह रखते थे।...घोस बाबू आज भी मिलते हैं तो गाली से ही बात शुरू करते हैं—“की रे...करमा? किसका साथ में हैं आजकल मादर्च...?”

    …घोस बाबू को माँ-बहन की गाली देनेवाला कोई नहीं। नहीं तो समझते कि माँ-बहन की गाली सुनकर आदमी का ख़ून किस तरह खौलने लगता है। किसी भले आदमी को ऐसी ख़राब गाली बकते नहीं सुना है करमा ने, आज तक।

    ...राम बाबू की सब आदत ठीक थी। लेकिन—भा-आ-री 'इश्की आदमी।' जिस टिसन में जाते, पैटमान-पोटर-सूपर को एकांत में बुलाकर घुसर-फुसर बतियाते। फिर रात में कभी मालगोदाम की ओर तो कभी ज़नाना मुसाफ़िरख़ाना में, तो कभी ज़नाना-पैख़ाना में...छिः-छिः...जहाँ जाते छुछुआते रहते—क्या जी, असल-माल-वाल का कोई जोगाड़ जंतर नहीं लगेगा?...आख़िर वही हुआ जो करमा ने कहा था—'माल' ही उनका 'काल' हुआ। पिछले साल, जोगबनी-लाइन में एक नेपाली ने खुकरी से दो टुकड़ा काटकर रख दिया। और उड़ाओ माल! ...जैसी अपनी इज़्ज़त, वैसी पराई!

    ...सिंघ जी भारी 'पुजेगरी'! सिया सहित राम-लछमन की मूर्ति हमेशा उनकी झोली में रहती थी। रोज़ चार बजे भोर से ही नहाकर पूजा की घंटी हिलाते रहते। इधर 'कल' की घंटी बजती। ...जिस घर में ठाकुर जी की झोली रहती, उसमें बिना नहाए कोई पैर भी नहीं दे सकता था। ...कोई अपनी देह को उस तरह बाँधकर हमेशा कैसे रह सकता है? कौन दिन में दस बार नहाए और हज़ार बार पैर धोए! सो भी, जाड़े के मौसम में! ...जहाँ कुछ छुओ कि हूँहूँहूँ-हाँहाँहाँ-अरेरेरे-छू दिया न? ...ऐसे छुतहा आदमी को रेल-कंपनी में आने की क्या ज़रुरत? ...सिंघ जी का साथ नहीं निभ सका।

    ...साहू बाबू दरियादिल आदमी थे। मगर मदक्की ऐसे कि दिन-दुपहर को पचास-दारू एक बोतल पीकर मालगाड़ी को 'थूरूपास' दे दिया और गाड़ी लड़ गई। करमा को याद है, 'एकसिडंट' की ख़बर सुनकर साहू बाबू ने फिर एक बोतल चढ़ा लिया। ...आख़िर डॉक्टर ने दिमाग़ ख़राब होने का 'साटिकफिटिक' दे दिया।

    ...लेकिन, उस 'एकसिडंट' के समय भी किसी रात को करमा ने ऐसा सपना नहीं देखा!

    ...न ...भोर-भार ऐसी कुलच्छन-भरी बात बाबू को सुनाकर करमा ने अच्छा नहीं किया। रेलवे की नौकरी में अभी तुरंत 'घुसवै' किए हैं।

    ...न...बाबू के मिज़ाज का टेर-पता अब तक करमा को नहीं मिला है। क़रीब एक सप्ताह तक साथ में रहने के बाद, कल रात में पहली बार दिल खोलकर दो सवाल-जवाब किया बाबू ने। इसीलिए, सुबह को करमा ने दिल खोलकर अपने सपने की बात शुरू की थी। चाय की प्याली सामने रखने के बाद उसने हँस कर कहा—“हँह बाबू, बू रात में हम एक अ-जू-ऊजू -ऊ-बा सपना देखा। धड़धड़ाता इंजन... लाइन पर चिपकी हमारी देह टस-से-मस- नहीं... सिर इधर और पैर लाइन के उधर... एंटोनी गाट साहेब के बरसाती जूते का जोड़ा... गम्बोट...!”

    “धेत्त! क्या बेसिर-पैर की बात करते हो, सुबह-सुबह? गाँजा-वाँजा पीता है क्या?”

    ...करमा ने बाबू को सपने की बात सुनाकर अच्छा नहीं किया।

    करमा उठकर ताखे पर रखे हुए आईने में अपना मुँह देखने लगा। उसने अ-जू-ऊ-ऊ-बा' कहकर देखा। छिः, उसके होंठ तीतर की चोच की तरह...

    “का करमचन? का बन रहा है?”

    ...पानी पाँड़े? यह पानी पाँड़े भला आदमी है। पुरानी जान-पहचान है इससे, करमा की। कई टिसन में संगत हुआ है। लेकिन, यह पैटमान 'लटपटिया' आदमी मालूम होता है। हर बात में पुच-पुचकर हँसनेवाला।

    “करमचन, बाबू कौन जाती के हैं?”

    “क्यों? बंगाली हैं।”

    “भैया, बंगाली में भी साढ़े-बारह बरन के लोग होते हैं।”

    “पानी पाँड़ेजी, सो तो मैं नहीं जानता। मगर बहुत गुनी-आदमी है। आपका नाम का मतलब निकालकर—चेहरा देखकर सब-कुछ पता देंगे...लीजिए घंटी पड़ गई दुवज्जी गाड़ी की, और मेरी तरकारी अभी तक चढ़ी हुई है।”

    पानी पाँड़े जाते-जाते कह गया, “थोड़ी तरकारी बचाकर रखना, करमचन!”

    ...घर कहाँ? कौन जाति? मनिहारी घाट के मस्ताना बाबा का सिखाया हुआ जवाब, सभी जगह नहीं चलता...हरि के भजे सो हरी के होई! मगर, हरि की भी जाति थी! ...ले, यह घटही-गाड़ी का इंजन कैसे भेज दिया इस लाइन में आज? संथाली-बाँसी जैसी पतली सीटी-सी-ई-ई!!

    ...ले, फक्का! एक भी पसिंजर नहीं उतरा, इस गाड़ी से भी। काहे को इतना ख़र्चा करके रेल-कंपनी ने यहाँ टिसन बनाया, करमा के बुद्धि में नहीं आता। फ़ायदा? बस, नाम ही आदमपुरा है—आमदनी नदारद। सात दिन में दो टिकट कटे हैं और सिर्फ़ पाँच पासिंजर उतरे हैं, तिसमें दो बिना टिकट के। ...इतने दिन के बाद पंद्रह बोरा बैंगन उस दिन बुक हुआ। पंद्रह बैंगन देकर ही काम बना लिया, उस बूढ़े ने।...उस बैंगनवाले की बोली-बानी अजीब थी। करमा से घुलकर गप करना चाहता था बूढ़ा। घर कहाँ है? कौन जाति? घर में कौन-कौन हैं?...करमा ने सभी सवालों का एक ही जवाब दिया था—ऊपर की ओर हाथ दिखला कर! बूढ़ा हँस पड़ा था। ...अजीब हँसी!

    ...घटही-गाड़ी! सी-ई-ई-ई!!

    करमा मनिहारीघाट टिसन में भी रहा है, तीन महीने तक एक बार, एक महीना दूसरी बार। ...मनिहारीघाट टिसन की बात निराली है। कहाँ मनिहारीघाट और कहाँ आदमपुरा का यह पिद्दी टिसन!

    ...नई जगह में, नए टिसन में पहुँचकर आसपास के गाँवों में एकाध चक्कर घूमे-फिरे बिना करमा को जाने 'कैसा-कैसा'—लगता है। लगता है, अंध-कूप में पड़ा हुआ है। ...वह 'डिसटन-सिंगल' के उस पार दूर-दू दूर तक खेत फैले हैं। ...वह काला जंगल ...ताड़ का वह अकेला पेड़ ...आज बाबू को खिला-पिला कर करमा निकलेगा। इस तरह बैठे रहने से उसके पेट का भात नहीं पचेगा। ...यदि गाँव-घर और खेत मैदान में नहीं घूमता-फिरता, तो वह पेड़ पर चढ़ना कैसे सीखता? तैरना कहाँ सीखता?

    ...लखपतिया टिसन का नाम कितना 'जब्बड़' है! मगर टिसन पर एक सत्तू-फरही की भी दुकान नहीं। आसपास में, पाँच कोस तक कोई गाँव नहीं। मगर, टिसन से पूरब जो दो पोखरे हैं, उन्हें कैसे भूल सकता है करमा? आईना की तरह झिलमिलाता हुआ पानी। ...बैसाख महीने की दुपहरी में, घंटो गले-भर पानी में नहाने का सुख! मुँह से कह कर बताया नहीं जा सकता!

    ...मुदा, कदमपुरा—सचमुच कदमपुरा है। टिसन से शुरू करके गाँव तक हज़ारों कदम के पेड़ हैं। ...कदम की चटनी खाए एक युग हो गया!

    ...वारिसगंज-टिसन, बीच क़स्बा में है। बड़े-बड़े मालगोदाम, हज़ारों गाँठ-पाट, धान-चावल के बोरे, कोयला-सीमेंट-चूना की ढेरी! हमेशा हज़ारों लोगों की भीड़! करमा को किसी का चेहरा याद नहीं। ...लेकिन टिसन से सटे उत्तर की ओर मैदान में तंबू डाल कर रहनेवाले गदहावाले मगहिया डोमों की याद हमेशा आती है। ...घाँघरीवाली औरतें, हाथ में बड़े-बड़े कड़े, कान में झुमके ...नंगे बच्चे, कान में गोल-गोल कुंडलवाले मर्द! ...उनके मुर्ग़े! उनके कुत्ते!

    ...बथनाह टिसन के चारों ओर हज़ार घर बन गए हैं। कोई परतीत करेगा कि पाँच साल पहले बथनाह-टिसन पर दिन-दुपहर को टिटही बोलती थी!

    ...कितनी जगहों, कितने लोगों की याद आती है! ...सोनबरसा के आम...कालूचक की मछलियाँ...भटोतर की दही...कुसियारगाँव का ऊख!

    ...मगर सबसे ज़्यादा आती है मनिहारीघाट टिसन की याद। एक तरफ़ धरती, दूसरी ओर पानी। इधर रेलगाड़ी, उधर जहाज़। इस पार खेत गाँव-मैदान, उस पार साहेबगंज-कजरोटिया का नीला पहाड़। नीला पानी—सादा बालू! ...तीन एक, चार-चार महीने तक तीसों दिन गंगा में नहाया है, करमा। चार 'जनम तक' पाप का कोई असर तो नहीं होना चाहिए! इतना बढ़िया नाम शायद ही किसी टिसन का होगा—मनीहार। ...बलिहारी! मछुवे जब नाव से मछलियाँ उतारते तो चमक के मारे करमा की आँखें चौंधिया जातीं।

    ...रात में, उधर जहाज़ चला जाता—धू-धू करता हुआ। इधर गाड़ी छकछकाती हुई कटिहार की ओर भागती। अजू साह की दुकान की 'झाँपी' बंद हो जाती। तब घाट पर मस्तानबाबा की मंडली जुटती।

    ...मस्तानबाबा कुली-कुल के थे। मनिहारीघाट पर ही कुली का काम करते थे। एक बार मन ऐसा उदास हो गया कि दाढ़ी और जटा बढ़ाकर बाबा जी हो गए। खंजड़ी बजाकर निरगुन गाने लगे। बाबा कहते—“घाट-घाट का पानी पी कर देखा—सब फीका। एक गंगाजल मीठा...।” बाबा एक चिलम गाँजा पीकर पाँच क़िस्सा सुना देते। सब वेद-पुरान का क़िस्सा! करमा ने ज्ञान की दो-चार बोली मनिहारीघाट पर ही सीखीं। मस्तानबाबा के सत्संग में। लेकिन, गाँजा में उसने कभी दम नहीं लगाया।...आज बाबू ने झुँझलाकर जब कहा, गाँजा-वाँजा पीते हो क्या—तो करमा को मस्तानबाबा की याद आई। बाबा कहते—हर जगह की अपनी ख़ुश्बू-बदबू होती है! ...इस आदमपुरा की गंध के मारे करमा को खाना-पीना नहीं रुचता।

    ...मस्तानबाबा को बाद देकर मनिहारीघाट की याद कभी नहीं आती।

    करमा ने ताखे पर रखे आईने में फिर अपना मुखड़ा देखा। उसने आँखें अधमुँदी करके दाँत निकालकर हँसते हुए मस्तानबाबा के चेहरे की नक़ल उतारने की चेष्टा की—“मस्त रहो! ...सदा आँख-कान खोलकर रहो। ...धरती बोलती है। गाछ-बिरिच्छ भी अपने लोगों को पहचानते हैं। ...फसल को नाचते-गाते देखा है, कभी? रोते सुना है कभी अमावस्या की रात को? है...है...है—मस्त रहो...।”

    ...करमा को क्या पता कि बाबू पीछे खड़े होकर सब तमाशा देख रहे हैं। बाबू ने अचरज से पूछा, “तुम जगे-जगे खड़े होकर भी सपना देखता है? ...कहता है कि गाँजा नहीं पीता?”

    सचमुच वह खड़ा-खड़ा सपना देखने लगा था। मस्तानबाबा का चेहरा बरगद के पेड़ की तरह बड़ा होता गया। उसकी मस्त हँसी आकाश में गूँजने लगी! गाँजे का धुआँ उड़ने लगा। गंगा की लहरें आईं। दूर, जहाज़ का भोंपा सुनाई पड़ा—भों-ओं-ओं!

    बाबू ने कहा, “खाना परोसो। देखूँ, क्या बनाया है? तुम को लेकर भारी मुश्किमु है...।”

    मुँह का पहला कौर निगलकर बाबू करमा का मुँह ताकने लगे, “लेकिन, खाना तो बहुत बढ़िया बनाया है!”

    खाते-खाते बाबू का मन-मिज़ाज एकदम बदल गया। फिर रात की तरह दिल खोलकर गप करने लगे, “खाना बनाना किसने सिखलाया तुमको? गोपाल बाबू की घरवाली ने?”

    ...गोपाल बाबू की घरवाली? माने बौमा? वह बोला, “बौमा का मिज़ाज तो इतना खट्टा था कि बोली सुनकर कड़ाही का ताज़ा दूध फट जाए। वह किसी को क्या सिखावेगी? फूहड़ औरत!”

    “और यह बात बनाना किसने सिखलाया तुमको?”

    करमा को मस्तानबाबा की 'बानी' याद आई, “बाबू, सिखलाएगा कौन? ...शहर सिखाए कोतवाली!”

    “तुम्तुहारी बीबी को ख़ूब आराम होगा!”

    बाबू का मन-मिज़ाज इसी तरह ठीक रहा तो एक दिन करमा मस्तानबाबा का पूरा क़िस्सा सुनाएगा।

    “बाबू, आज हमको ज़रा छुट्टी चाहिए।”

    “छुट्टी! क्यों? कहाँ जाएगा?”

    करमा ने एक ओर हाथ उठाते हुए कहा, “ज़रा उधर घूमने-फिरने...।”

    पैटमान जी ने पुकार कर कहा, “करमा! बाबू को बोलो, 'कल' बोलता है।”

    ...तुम्हारी बीबी को ख़ूब आराम होगा! ...करमा की बीबी! वारीसगंज टिसन ...मगहिया डोमो के तंबू...उठती उमेरवाली छौंड़ी...नाक में नथिया...नाक और नथिया में जमे हुए काले मैले...पीले दाँतों में मिस्सी!!

    करमा अपने हाथ का बना हुआ हलवा-पूरी उस छौंड़ी को नहीं खिला सका। एक दिन काग़ज़ की पुड़िया में ले गया। लेकिन वह पसीने से भीग गया। उसकी हिम्मत ही नहीं हुई।...यदि यह छौंड़िया चिल्लाने लगे कि तुम हमको चुरा-छिपाकर हलवा काहे खिलाता है? ...ओ, मइयो-यो-यो-यो-यो!!...

    ...बाबू हज़ार कहें, करमा का मन नहीं मानता कि उसका घर संथाल-परगना या राँची की ओर कहीं होगा। मनिहारीघाट में दो-दो बार रह आया है, वह। उस पार के साहेबगंज-कजरौटिया के पहाड़ ने उसको अपनी ओर नहीं खींचा कभी! और वारिसगंज, क़दमपुरा, कालूचक, लखपतिया का नाम सुनते ही उसके अंदर कुछ झनझना उठता है। जाने-पहचाने, अचीन्हे, कितने लोगों के चेहरों की भीड़ लग जाती है! कितनी—बातें सुख-दुख की! खेत-खलिहान, पेड़-पौधे, नदी-पोखरे, चिरई-चुरमुन सभी एक साथ टानते हैं, करमा को!

    ...सात दिन से वह काला जंगल और ताड़ का पेड़ उसको इशारे से बुला रहे है। जंगल के ऊपर आसमान में तैरती हुई चील आकर करमा को क्यों पुकार जाती है? क्यों?

    रेलवे-हाता पार करने के बाद भी जब कुत्ता नहीं लौटा तो करमा ने झिड़की दी, “तू कहाँ जाएगा ससुर? जहाँ जाएगा झाँव-झाँव करके कुत्ते दौड़ेंगे।...जा! भाग! भाग!!”

    कुत्ता रुककर करमा को देखने लगा। धनखेतों से गुज़रनेवाली पगडंडी पकड़कर करमा चल रहा है। धान की बालियाँ अभी फूटकर निकली नहीं हैं। ...करमा को हेडक्वाटर के चौधरी बाबू की गर्भवती घरवाली की याद आई। सुना है, डॉक्टरनी ने अंदर का फ़ोटो लेकर देखा है—जुड़वाँ बच्चा है पेट में!

    ...इधर 'हथिया-नच्छत्तर अच्छा झरा' था। खेतों में अभी भी पानी लगा हुआ है।...मछली?

    ...पानी में माँगुर मछलियों को देखकर करमा की देह अपने आप बँध गई। वह साँस रोककर चुपचुचाप खड़ा रहा। फिर धीरे-धीरे खेत की मेंड़ पर चला गया। मछलियाँ छलमलाईं। आईने की तरह थिर पानी अचानक नाचने लगा।...करमा क्या करे?...उधर की मेंड़ से सटाकर एक ‘छेंका’ देकर पानी को उलीच दिया जाए तो...?

    ...है है—हैहै! साले! बन का गीदड़, जाएगा किधर? और छ्लमलाओ!...अरे, काँटा करमा को क्या मारता है? करमा नया शिकारी नहीं।

    आठ माँगुर और एक गहरी मछली! सभी काली मछलियाँ! कटिहार हाट में इसी का दाम बेखटके तीन रुपयो ले लेता।...करमा ने गमछे में मछलियों को बाँध लिया। ऐसा ‘संतोख’ उसको कभी नहीं हुआ, इसके पहले। बहुत-बहुत मछली का शिकार किया उसने!

    एक बूढ़ा भैंसवार मिला जो अपनी भैंस को खोज रहा था, “ए भाय! उधर किसी भैंस पर नज़र पड़ी है?”

    भैंसवार ने करमा से एक बीड़ी माँगी। उसको अचरज हुआ—कैसा आदमी है, बीड़ी पीता है, तंबाकू खाता है। उसने नाराज़ होकर जिरह शुरू किया, “इधर कहाँ जाना है? गाँव में तुम्हारा कौन है? मछली कहाँ ले जा रहे हो?”

    ...ताड़ का पेड़ तो पीछे की ओर घसकता जाता है! करमा ने देखा, गाँव गया। गाँव में कोई तमाशावाला आया है। बच्चे दौड़ रहे हैं। हाँ, भालू वाला ही है। डमरु की बोली सुनकर करमा ने समझ लिया था।

    ...गाँव की पहली गंध! गंध का पहला झोंका!

    ...गाँव का पहला आदमी। यह बूढ़ा गोबी को पानी से पटा रहा है। बाल सादा हो गए हैं, मगर पानी भरते समय बाँह में जवानी ऐंठती है! ...अरे, यह तो वही बूढ़ा है जो उस दिन बैंगन बुक कराने गया था और करमा से घुल-मिलकर गप करना चाहता था। करमा से खोद-खोदकर पूछता था—माय-बाप है नहीं या माय-बाप को छोड़ भाग आए हो? ...ले, उसने भी करमा को पहचान लिया!

    “क्या है, भाई! इधर किधर?”

    “ऐसे ही। घूमने-फिरने!...आपका घर इसी गाँव में है?”

    बूढ़ा हँसा। घनी मूँछे खिल गई। ...बूढ़ा ठीक सत्तोबाबू टीटी के बाप की तरह हँसता है।

    एक लाल साड़ीवाली लड़की हुक्के पर चिलम चढ़ाकर फूँकती हुई आई। चिलम को फूँकते समय उसके दोनों गाल गोल हो गए थे। करमा को देखकर वह ठिठकी। फिर गोभी के खेत के बाड़े को पार करने लगी। बूढ़े ने कहा, “चल बेटी, दरवाज़े पर ही हम लोग रहे हैं।”

    बूढ़ा हाथ-पैर धोकर खेत से बाहर आया, “चलो!”

    लड़की ने पूछा, “बाबा, यह कौन आदमी है?”

    “भालू नचानेवाला आदमी।”

    “धेत्त!”

    करमा लजाया। ...क्या उसका चेहरा-मोहरा भालू नचानेवाले जैसा है? बूढ़े ने पूछा, “तुम रिलिफिया-बाबू के नौकर हो न?”

    “नहीं, नौकर नहीं।...ऐसे ही साथ में रहता हूँ।”

    “ऐसे ही? साथ में? तलब कितना मिलता है?”

    “साथ में रहने पर तलब कितना मिलेगा?”

    ...बूढ़ा हुक्का पीना भूल गया। बोला, “बस? बेतलब का ताबेदार?”

    बूढ़े ने आँगन की ओर मुँह कर के कहा, “सरसतिया! ज़रा माय को भेज दो, यहाँ। एक कमाल का आदमी...।”

    बूढ़ी टट्टी की आड़ में खड़ी थी। तुरंत आई। बूढ़े ने कहा, “ज़रा देखो, इस ‘किल्लाठोंक-जवान’ को। पेट भात पर खटता है। ...क्यों जी, कपड़ा भी मिलता है?...इसी को कहते हैं—पेट-माधोराम मर्द!”

    ...आँगन में एक पतली खिलखिलाहट! ...भालू नचानेवाला कहीं पड़ोस में ही तमाशा दिखा रहा है। डमरु ने इस ताल पर भालू हाथ हिला-हिलाकर ‘थब्बड़-थब्बड़’ नाच रहा होगा—थुथना ऊँचा करके! ...अच्छा जी भोलेराम, नाच तो ख़ूब बनाया, तैंने। अब एक बार दिखला दे कि फूहड़ औरत गोद में बक्चा को सुलाकर किस तरह ऊँघती है।...वाहजी भोलेराम!

    ...सैकड़ों खिलखिलाहट!!

    “तुम्हारा नाम क्या है जी? ...करमचन? वाह, नाम तो ख़ूब सगुनिया है। लेकिन काम? काम चूल्हचन?”

    करमा ने लजाते हुए बात को मोड़ दिया, “आपके खेत का बैंगन बहोत बढ़िया है। एकदम घी-जैसा...।” बूढ़ा मुस्कुराने लगा।

    और बूढ़ी की हँसी करमा की देह में जान डाल देती है। वह बोली, “बेचारे को दम तो लेने दो। तभी से रगेट रहे हो।”

    “मछली है? बाबू के लिए ले जाओगे?”

    “नहीं। ऐसे ही...रास्ते में शिकार...।”

    “सरसतिया की माय! मेहमान को चूड़ा भूनकर मछली की भाजी के साथ खिलाओ!...एक दिन दूसरे के हाथ की बनाई मछली खा लो जी!”

    जलपान करते समय करमा ने सुना—कोई पूछ रही थी, “ए, सरसतिया की माय! कहाँ का मेहमान है?”

    “कटिहार का।”

    “कौन है?”

    “कुटुम ही है।”

    “कटिहार में तुम्हारा कुटुम कब से रहने लगा?”

    “हाल से ही।”

    ...फिर एक खिलखिलाहट! कई खिलखिलाहट!! ...चिलम फूँकते समय सरसतिया के गाल मोसम्बी की तरह गोल हो जाते हैं। बूढ़ी ने दुलार भरे स्वर में पूछा, “अच्छा बबुआ! तार के अंदर से आदमी की बोली कैसे जाती है? हमको ज़रा खुलासा करके समझा दो।”

    चलते समय बूढ़ी ने धीरे-से कहा, “बूढ़े की बात का बुरा मानना। जब से जवान बेटा गया, तब से इसी तरह उखड़ी-उखड़ी बात करता है। ...कलेजे का घाव...।”

    “एक दिन फिर आना।”

    “अपना ही घर समझना!”

    लौटते समय करमा को लगा, तीन जोड़ी आँखें उसकी पीठ पर लगी हुई हैं। आँखें नहीं—डिसटन-सिंगल, होम-सिंगल और पैट सिंगल की लाल गोल-गोल रौशनी!!

    जिस खेत में करमा ने मछली का शिकार किया था उसकी मेंड़ पर एक ढोंढ़ा-साँप बैठा हुआ था। फों-फों करता हुआ भागा। ...हद है! कुत्ता अभी तक बैठा उसकी राह देख रहा था! ख़ुशी के मारे नाचने लगा करमा को देखकर!

    रेलवे-हाता में कर करमा को लगा, बूढ़े ने उसको बनाकर ठग लिया। तीन रुपए की मोटी-मोटी माँगुर मछलियाँ एक चुटकी चूड़ा खिलाकर, चार खट्टी-मीठी बात सुनाकर...

    ...करमा ने मछली की बात अपने पेट में रख ली। लेकिन बाबू तो पहले से ही सब कुछ जान लेनेवाला—‘अगर जानी’ है। दो हाथ दूर से ही बोले, “करमा, तुम्हारी देह से कच्ची मछली की बास आती है। मछली ले आए हो?”

    ...करमा क्या जवाब दे अब? ज़िंदगी में पहली बार किसी बाबू के साथ उसने विश्वासघात किया है।...मछली देख कर बाबू ज़रुर नाचने लगते!

    पंद्रह दिन देखते देखते ही बीत गया।

    अभी, रात की गाड़ी से टिसन के सालटन-मास्टर बाबू आए हैं—बाल बच्चों के साथ। पंद्रह दिन से चुप फ़ैमिली-क्वाटर में कुहराम मचा है। भोर की गाड़ी से ही करमा अपने बाबू के साथ हेड-क्वाटर लौट जाएगा।...इसके बाद मनिहारीघाट?

    ...न...आज रात भी करमा को नींद नहीं आएगी। नहीं, अब वार्निश-चुने की गंध नहीं लगती। ...बाबू तो मज़े से सो रहे हैं। बाबू, सच-मुच में गोपाल बाबू जैसे हैं। किसी की जगह से तिल-भर मोह, रत्ती-भर माया।...करमा क्या करे? ऐसा तो कभी नहीं हुआ।...एक दिन फिर आना। अपना ही घर समझना।...कुटुम है...पेट-माधोराम मर्द!

    ...अचानक करमा को एक अजीब-सी गंध लगी। वह उठा। किधर से यह गंध रही है? उसने धीरे-से प्लेटफ़ार्म पार किया। चुपचुचाप सूँघता हुआ आगे बढ़ता गया। ...रेलवे-लाइन पर पैर पड़ते ही सभी सिंगल—होम, डिसडंड और पैट- ज़ोर-ज़ोर से बिगुल फूँकने लगे।... फैमिली-क्वाटर से एक औरत चिल्लाने लगी—‘चो-ओ-ओ-र!’ वह भागा। एक इंजिन उसके पीछे-पीछे दौड़ा रहा है। ...मगहिया डोम की छौंड़ी?...तंबू में वह छिप गया।...सरसतिया खिलखिलाकर हँसती है। उसके झबरे केश, बेनहाई हुई देह की गंध, करमा के प्राण में समा गई। ...वह डर कर सरसतिया की गोद में...नहीं, उसकी बूढ़ी माँ की गोद में अपना मुँह छिपाता है।...रेल और जहाज़ के भोंपे एक साथ बजते हैं। सिंगल की लाल लाल रौशनी...।

    “करमा, उठ! करमा, सामान बाहर निकालो!”

    ...करमा एक गंध के समुद्र में डूबा हुआ है। उसने उठकर कुरता पहना। बाबू का बक्सा बाहर निकाला। पानी-पाँड़े ने ‘कहा-सुना माफ़ करना’ कहा। करमा डूब रहा!

    ...गाड़ी आई। बाबू गाड़ी में बैठे। करमा ने बक्सा चढ़ा दिया। ...वह ‘सरवेंट-दर्जा’ में बैठेगा। बाबू ने पूछा, “सब-कुछ चढ़ा दिया तो? कुछ छूट तो नहीं गया?”...नहीं, कुछ छूटा नहीं है।…गाड़ी ने सीटी दी। करमा ने देखा, प्लेटफ़ार्म पर बैठा हुआ कुत्ता उसकी ओर देख कर कूँ-कूँ कर रहा है।...बेचैन हो गया कुत्ता!

    “बाबू?”

    “क्या है?”

    “मैं नहीं जाऊँगा।” करमा चलती गाड़ी से उतर गया। धरती पर पैर रखते ही ठोकर लगी। लेकिन सँभल गया।

    स्रोत :
    • पुस्तक : प्रतिनिधि कहानियाँ (पृष्ठ 117)
    • रचनाकार : फणीश्वरनाथ रेणु
    • प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन

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