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रवींद्रनाथ टैगोर के उद्धरण

साहित्य या कला-रचना में मनुष्य की जिस चेष्टा की अभिव्यक्ति होती है, उसे कुछ लोग मनुष्य की खेल करने की प्रवृत्ति जैसा मानते हैं।

अनुवाद : चंद्रकिरण राठी