काव्यप्रणयन न करने से न तो अधर्म होता है, न कोई व्याधि या रोग होता है और न ही किसी प्रकार के दंड की प्राप्ति होती है, अर्थात् किसी भी स्थिति में काव्यप्रणयन ऋणात्मक कार्य नहीं है जो सामाजिक को उसे करना विवशता हो, लेकिन असतकाव्य (सदोष कविता) को विद्वान् लोग साक्षात् मृत्यु कहते हैं।