जिसे सच्चा प्रेम कह सकते हैं, केवल एक बंधन में बंध जाने के बाद ही पैदा हो सकता है। इसके पहले जो प्रेम होता है, वह तो रूप की आसक्ति मात्र है—जिसका कोई टिकाव नहीं; मगर इसके पहले यह निश्चय तो कर लेना ही था कि जो पत्थर साहचर्य के ख़रीद पर चढ़ेगा, उसमें ख़रीदे जाने की क्षमता है भी या नहीं। सभी पत्थर ख़रीद पर चढ़कर सुंदर मूर्तियाँ नहीं बन जाते।