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वृंद

1643 - 1735 | जोधपुर, राजस्थान

रीतिकालीन नीतिकवि। सूक्तिकार के रूप में स्मरणीय।

रीतिकालीन नीतिकवि। सूक्तिकार के रूप में स्मरणीय।

वृंद के दोहे

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दुष्ट छांड़ै दुष्टता पोखै राखै ओट।

सरपहि केतौ हित करौ चुपै चलावै चोट॥

भावार्थ: वृन्द कवि कहते हैं कि दुष्ट व्यक्ति अपनी दुष्टता को नहीं छोड़ता है, उसे कितना भी पाला और पोसा जाए लेकिन वह अपने स्वभावगत दुष्टता और अवगुण को किसी भी स्थिति में नहीं छोड़ता है। जिस प्रकार साँप का कितना ही हित क्यों किया जाए लेकिन दब जाने पर वह काटेगा ही, क्योंकि वह स्वभाव के वशीभूत हो जाता है।

कहुँ अवगुन सोइ होत गुन कहुँ गुन अवगुन होत।

कुच कठोर त्यौं हैं भले कोमल बुरे उदोत॥

भावार्थ: कवि कहते हैं कि स्थिति के आधार पर जो कहीं पर अवगुण होता है, वह गुण बन जाता है और कहीं पर जो गुण माना जाता है, वह अवगुण हो जाता है। गुण−अवगुण का निर्धारण रुचि और स्थिति पर ही निर्भर करता है। जिस प्रकार कुचों की कठोरता को अच्छा माना गया है और उनकी कोमलता को बुरा माना गया है। वैसे सामान्य स्थिति में कठोरता को अवगुण और कोमलता को गुण के रूप में अच्छा माना जाता है।

अन−उद्यमही एक कौ यौं हरि करत निबाह।

ज्यौं अजगर भख आनि कै निकसत बाही राह॥

भावार्थ: कवि कहते हैं कि इस संसार के रचनाकार भगवान इस धरती पर काम करने वालों का भी निर्वाह करते हैं, क्योंकि वे संसार के प्राणियों के पालनहार हैं, इसलिए सभी के भोजन की व्यवस्था कर देते हैं। भगवान ने बिना परिश्रम के निर्वाह करने के लिए एक ही प्राणी की रचना की है। जैसे अजगर किसी का भक्षण करता है तो वह भक्षित जीव उसी रास्ते से वापस निकल जाता है। भाव यह है कि बिना परिश्रम के खाने वाला प्राणी सुखी नहीं रह सकता है।

मधुर बचन तैं जात मिट उत्तम जन अभिमान।

तनिक सीत जल सौं मिटै जैसे दूध उफान॥

भावार्थ: कवि कहते हैं कि मधुर वाणी के प्रभाव से बड़े−बड़ों का अभिमान भी मिट जाता है जिस प्रकार थोड़े से ठंडे पानी के छींटे देने से उबलता हुआ दूध भी शांत हो जाता है। अर्थात् दुष्ट व्यक्ति के घमंड को मधुर वाणी से ही मिटाया जा सकता है, उससे लड़ने−झगड़ने से नहीं।

एकहि गुन ऐसौ भलौ जिहिँ अवगुन छिप जात।

नीरद के ज्यौं रंग बद बरसत ही मिट जात॥

भावार्थ: कवि कहता है कि व्यक्ति में एक ही ऐसा गुण होना चाहिए जिससे उसके व्यक्तित्व में समाए अनेक अवगुण छिप जाते हैं, अर्थात् उस विशिष्ट गुण के कारण उसके अन्य अवगुण प्रभावहीन हो जाते हैं। जिस प्रकार बादल के काले−धूमिल धब्बे उसके बरसने के बाद स्वयं ही मिट जाते हैं।

मूरख गुन समझै नहीं तौ गुनी मैं चूक।

कहा भयो दिन को बिभौ देखै जो उलूक॥

भावार्थ: वृंद कवि कहते हैं कि यदि कोई मूर्ख व्यक्ति गुण को नहीं समझता है, अर्थात गुण के महत्त्व को नहीं समझता है तो उसमें गुणी व्यक्ति का क्या दोष होता है? यदि उल्लू को दिन में दिखाई नहीं देता है तो इसमें दिन का क्या दोष होता है? अर्थात् दिन का कोई दोष नहीं होता है, क्योंकि उल्लू रूपी मूर्ख उसके गुणों के महत्त्व को ही नहीं समझता है।

धन संच्यौ किहिं काम कौ खाउ खरच हरि प्रीति।

बँध्यो गँधीलौ कूप जल कढ़ै बढ़ै इहिँ रीति॥

भावार्थ: कवि वृंद कहते हैं कि उस धन का संचय करना नितांत व्यर्थ होता है, जिस धन का उपयोग खाने में, ख़र्च करने में, भगवद्भक्ति करने में और परोपकार करने में किया जाए, तो ऐसे धन को संचय करने से कोई लाभ नहीं होता है। जैसे कुएँ में भरा हुआ जल यदि निकाला जाए तो वह गंदा ही हो जाएगा और यदि वह जल कुएँ से निकलता रहेगा तो बढ़ता ही रहेगा।

अपनी पहुँच बिचारि कैं करतब करियै ठौर।

तेते पाँव पसारियै जैती लांबी सौर॥

भावार्थ: अपनी सामर्थ्य शक्ति के हिसाब से ही व्यक्ति को कोई काम करना चाहिए। यानी जितनी लम्बी सौर है, उतने ही पाँव पसारने चाहिए।

अति परचै तैं होत है अरुचि अनादर भाय।

मलयागिरि की भीलनी चंदन देत जराय॥

भावार्थ: कवि कहता है कि जिनसे अधिक परिचय या जान−पहचान होती है, उसकी स्वभावतः उपेक्षा भी हो जाती है। इस तरह कई बार अधिक परिचय से अरुचि तथा अनादर भी हो जाता है। जैसे मलय पर्वत पर चंदन के वृक्ष होते हैं लेकिन वहाँ पर रहने वाली भील−स्त्रियाँ चंदन को खाना पकाने के लिए ईंधन के रूप में जलाती हैं। अर्थात् वे चंदन का महत्व नहीं आंकती है और उसे साधारण लकड़ी की तरह प्रयुक्त करती हैं। यह चंदन का अनादर ही है।

सबै सहायक सबल के कोउ निबल सहाय।

पवन जगावत आग कौं दीपहि देत बुझाय॥

भावार्थ: कवि कह रहे हैं कि जो व्यक्ति शक्तिशाली होता है, उसी के सहायक अधिकांश लोग बनते हैं। स्पष्ट शब्दों में, शक्तिशाली के साथ सभी आकर के खड़े हो जाते हैं किंतु निर्बल या कमज़ोर व्यक्ति के साथ कोई भी उसकी सहायता के लिए नहीं आता है। उदाहरण के लिए यह सत्य ही है कि पवन शक्तिशाली होता है, इसलिए वह आग को प्रदीप्त कर देता है किंतु दीपक कमज़ोर होता है इसलिए वह उसको बुझा देता है।

सुख मैं होत सरीक जौ दुख सरीक सौ होय।

जाकौ मीठौ खाइयै कटुक खाइयै सोय॥

भावार्थ: कवि वृंद कहते हैं कि जो व्यक्ति जिसके सुख में शामिल होता है, उसी व्यक्ति को उसके दुःख में भी शामिल होना चाहिए, क्योंकि जो व्यक्ति जिस व्यक्ति के सुख रूपी मीठे का उपभोग करता है, उसी व्यक्ति को उसका कडुवा भी खाना चाहिए। अर्थात् सुख−दुःख में समान भाव से पूरित होकर व्यक्ति को एक−दूसरे का सहयोग करना चाहिए। सच्चा मित्र वही होता है।

रहे समीप बड़ेन के होत बड़ो हित मेल।

सब ही जानत बढ़त है वृक्ष बराबर बेल॥

भावार्थ: कवि कहता है कि यदि कोई व्यक्ति बड़े व्यक्ति का सामीप्य प्राप्त कर लेता है तो उस व्यक्ति को बड़े व्यक्ति के सहारे से बड़ा लाभ भी प्राप्त होता है। यह तो हम सभी जानते हैं कि वृक्ष के साथ रहने से लता भी उसके बराबर बढ़ जाती है। बड़े व्यक्ति से यहाँ तात्पर्य उस व्यक्ति से है जिसमें मानवीय गुण हों।

मूरख कौं पोथी दई बांचन कौं गुन गाथ।

जैसैं निर्मल आरसी दई अंध के हाथ॥

भावार्थ: कवि कहते हैं कि मूर्ख व्यक्ति को सद्गुणों से परिपूर्ण पुस्तक पढ़ने को दी जाए, तो भी वह उन गुणों का बखान नहीं करता है। उसका स्वभाव तो ऐसा होता है कि जैसे अंधे व्यक्ति के हाथ में निर्मल दर्पण दिया जाए तो भी वह उसमें अपना प्रतिबिंब नहीं देख पाता है।

सुख बीते दुख होत है दुख बीते सुख होत।

दिवस गए ज्यौं निसि उदित निसगत दिवस उदोत॥

भावार्थ: कवि कहते हैं कि मनुष्य के जीवन में सुख और दुःख आते और जाते रहते हैं। सुख बीत जाने के बाद दुःख होता है और दुःख जाने के बाद सुख आता है। अर्थात् सुख के बाद दुःख और दुःख के बाद सुख सुख−दुःख का क्रम मनुष्य की जीवन में चलता रहता है। यह क्रम उसी प्रकार चलता रहता है जिस प्रकार दिन के बीत जाने पर रात और रात के बीत जाने पर दिन का उदय होता रहता है।

जो पहिलै कीजै जतन सो पीछै फलदाय।

आग लगे खोदै कुँवा कैसै आग बुझाय॥

भावार्थ: वृन्द कवि कहते हैं कि विपत्ति के आने से पहले ही यदि उसके बचाव का प्रयत्न कर लिया जाए, वह बचाव पीछे फल देने वाला होता है, अर्थात् उससे अच्छे परिणाम प्राप्त होते हैं। जिस प्रकार आग लग जाने पर यदि कुआँ खोदा जाए तो उससे आग कैसे बुझाई जा सकती है? अर्थात् तत्काल आग नहीं बुझाई जा सकती।

पर घर कबहुँ जाइयै गए घटत है जोति।

रबि−मंडल मे जाति ससि छीन कला छबि होति॥

भावार्थ: कवि कहते हैं कि बिना बुलाए व्यक्ति को कभी भी दूसरे के घर नहीं जाना चाहिए। क्योंकि इस प्रकार जाने से उसका सम्मान घट जाता है। जिस प्रकार बिना बुलाए सूर्य के घेरे में चंद्रमा के चले जाने पर, चंद्रमा की कलाओं की छवि क्षीण हो जाती है, अर्थात् धूमिल पड़ जाती है।

कहै रसीली बात सो बिगरी लेत सुधारि।

सरस लौन की दाल मैं ज्यौं नीबू रस डारि॥

भावार्थ: कवि वृंद कहते हैं कि यदि मधुरता के साथ किसी बात को कहा जाए तो बिगड़ी हुई बात भी अपने आप में बन जाती है जिस प्रकार दाल में नमक ज़्यादा पड़ जाने से दाल का स्वाद ख़राब हो जाता है। उस दाल को स्वादमय बनाने के लिए उसमें नीबू का रस मिला दिया जाता है।

भले बुरे सब एक सें जौ लौं बोलत नाहिँ।

जान परतु हैं काक पिक ऋतु बसंत के माहिँ॥

इस संसार में भला कौन है और बुरा कौन है? बाहर से सब एक से ही दिखाई पड़ते हैं लेकिन जब वे बोलते हैं तब इनके भले−बुरे का पता चलता है। जिस प्रकार बसंत ऋतु में कौआ और कोयल बोलते हैं तब ही उनका अंतर पता चलता है, वैसे वे दोनों ही रंग के आधार पर एक-से ही प्रतीत होते हैं।

फीकी पै नीकी लगै कहिए समय बिचारि।

सब को मन हरषित करै ज्यौं विवाह मैं गारि॥

भावार्थ: गाली अर्थात् अपशब्द प्रायः फीके तथा नीरस लगते हैं और गाली कभी−कभी आपस में भीषण कलह को जन्म देती है। किंतु समय का ध्यान रखकर यदि किसी को गाली दी जाए तो वह बहुत ही सरस ओर मन को अच्छी लगती है। विवाह के अवसर पर कन्या−पक्ष की स्त्रियों द्वारा गाई जाने वाली गालियाँ वर−पक्ष के लोगों को प्रफुल्लित करती हैं और वे उन गालियों को सुनकर बुरा भी नहीं मानते हैं। उस अवसर पर दी गई गालियों से वातावरण सरस बन जाता है।

जो जाकौं, प्यारौ लगै सो तिहिँ करत बखान।

जैसैं विष को विष−भखी मानत अमृत समान॥

भावार्थ: वृंद कवि कह रहे हैं कि यह इस संसार की रीति है कि जिसको जो भी प्यारा लगता है वह उसी की प्रशंसा करता है, चाहे दूसरों की निगाह में उसमें कितने अवगुण ही क्यों भरे पड़े हों, लेकिन प्रियजन को उसमें अच्छाई ही अच्छाई पड़ने के कारण उसे वह उसी प्रकार प्रिय लगता है जिस प्रकार विष खाने वाले को विष अमृत के समान लगता है, क्योंकि स्वभावानुसार विष ही उसके लिए अमृत तुल्य बन जाता है।

अति ही सरल हूजियै देखौ ज्यों बनराय।

सीधे सीधे छेदियै बांकौ तरु बच जाय।।

भावार्थ: कवि वृंद अनुभव की बात करते हुए कहते हैं कि मनुष्य को सज्जन तो होना चाहिए, लेकिन स्वभाव से अत्यंत सरल नहीं होना चाहिए। क्योंकि जिस प्रकार जंगल में सीधे खड़े हुए वृक्षों को काट लिया जाता है और टेढ़े खड़े वृक्षों को छोड़ दिया जाता है, उसी प्रकार इस संसार में सज्जनों का सहज ही शोषण हो सकता है, टेढ़े अर्थात दुर्जन का नहीं।

कोऊ है हित की कहै ह्वै ताही सों हेत।

सबै उड़ावत काक कौं पै बिरहनि बलि देत॥

भावार्थ: वृंद कवि कहते हैं कि अपने हित की बात कहने वाला चाहे कोई भी हो, उसके साथ प्रेम हो जाता है। क्योंकि उससे स्वार्थ सिद्ध होने का भाव जुड़ा हुआ होता है। जिस प्रकार लोग कौए को उड़ा देते हैं, क्योंकि उससे उनका कोई हित नहीं सधता है लेकिन वियोगिन स्त्री उसे भोजन बुला−बुलाकर देती है, क्योंकि उसका कौए से हित जुड़ा हुआ होता है।

बिन स्वारथ कैसैं सहै कोऊ करुए बैन।

लात खाय पुचकारियै होय दुधारू धैन॥

भावार्थ: वृंद कवि कहते हैं कि इस संसार की यह रीति है कि बिना स्वार्थ के कोई भी किसी के कड़ुवे वचनों को सहन नहीं करता है, अर्थात् अपने स्वार्थ को पूरा करने के कारण ही वह उसके विपरीत व्यवहार को भी सहन कर लेता है। जिस प्रकार यदि गाय दूध देने वाली होती है तो हम उसकी लात खाकर भी, उसे प्यार करते हैं, पुचकारते हैं, क्योंकि उससे हमारे स्वार्थ की सिद्धि होती है।

भले बुरे जहँ एक से तहाँ बसिए जाय।

ज्यौं अन्यायीपुर बिकै खर गुर एकै भाय॥

भावार्थ: वृंद कवि कहते हैं कि जहाँ भले और बुरे स्वभाव को एक ही स्वभाव के अनुसार माना जाए, उस स्थान पर निवास नहीं करना चाहिए। जिस प्रकार अन्यायपुर में खली (पशु के लिए तैयार भूसी) और गुड़ एक ही भाव में बिका करते हैं, क्योंकि वहाँ पर गुण और अवगुण में कोई भी अंतर नहीं समझा जाता है।

उपकारी उपकार जग सबसे करत प्रकास।

क्यों कटु मधुरे तरु मलय मलयज करत सुबास॥

भावार्थ: कवि कहते हैं कि उपकारी व्यक्ति अपने उपकारों के माध्यम से सबके मन को प्रसन्न करता रहता है। किसी के भी मन में उसके कार्यों के कारण खिन्नता का भाव नहीं जागता है। उसकी उपकारिता उसी प्रकार सबके मन को अह्वादित करती है जिस प्रकार मलय पर्वत के निकट रहने वाले बुरे और अच्छे सभी पेड़ मलयाचल की वायु से सुवासित रहते हैं, अर्थात् मलयाचल की वायु सभी को सुवासित करती है।

रागी अवगुन ना गनै यहै जगत की चाल।

देखौ सब ही श्याम कों कहत बाल सब लाल॥

भावार्थ: कवि वृंद कहते हैं कि इस संसार की रीति यही है कि प्रेमीजन बुराइयों पर ध्यान नहीं देते हैं, क्योंकि प्रेमीजन को अपना प्रिय पात्र अर्थात् जिसके प्रति उसके मन में अनुराग जाग जाता है वह उसे सबसे अधिक प्रिय एवं मनभावन लगता है। उसके आगे उसे कोई भी सुंदर प्रतीत नहीं होता है। जैसे स्याम (काले) को अर्थात् कृष्ण को ग्वाल लोग ‘लाल’ कहकर पुकारते हैं।

दोष−भरी उचारियै जदपि यथारथ बात।

कहै अंध कौ आंधरौ मान बुरौ सतरात॥

भावार्थ: कवि कहते हैं कि हमें दोषयुक्त बात नहीं बोलनी चाहिए। चाहे वह उचित ही क्यों हो, पर जिसमें दोष भरा हुआ हो, उसे नहीं कहना चाहिए। क्योंकि यदि अंधे व्यक्ति को अंधा कह दिया जाए तो वह बुरा मानने के साथ−साथ ग़ुस्सा भी करने लगता है।

खल जन सों कहियै नही गूढ़ कबहुँ करि मेल।

यौं फैले जग माहिँ ज्यौ जल पर बूंद कि तेल॥

भावार्थ: कवि वृंद कहते हैं कि किसी भी दुष्ट व्यक्ति से कभी भी अपने मन की गूढ़ बात को किसी भी स्थिति में नहीं कहना चाहिए, भले ही वह चाहे जितने मित्रता के भाव को ही क्यों प्रकट करे, क्योंकि पानी पर यदि तेल की बूँद गिर जाती है, तो वह अपने स्वभाव के अनुसार सारे में फैल जाती है।

कन कन जोरै मन जुरै खाते निवरै सोय।

बूंद बूंद ज्यौं घट भरै टपकत बोतै तोय॥

भावार्थ: कवि कहते हैं कि एक−एक कण जोड़ने से मण इकट्ठा हो जाता है और ख़र्च करने से एक कण भी नहीं रह पाता है। जिस प्रकार घड़ा एक−एक बूँद करके भर जाता है और बूँद−बूँछ टपकने से वह ख़ाली हो जाता है।

ओछे नर की प्रीति की दीनी रीति बताय।

जैसे छीलर ताल जल घटत घटत घट जाय॥

भावार्थ: कवि वृंद कहते हैं कि ओछे व्यक्ति की प्रीति अर्थात् मित्रता नीच रीति के समान अर्थात् निकृष्ट रूप में ही होती है। वह उसी प्रकार से घटती जाती है, अर्थात् अव्यावहारिक होती जाती है जिस प्रकार छिछले तालाब का जल घटते−घटते पूरा घट जाता है।

खल बंचत नर सुजन कौं नहि बिसास करेइ।

डहक्यो उड़ प्रतिबिंब तैं मुकुता हंस लेइ॥

भावार्थ: वृंद कवि कहते हैं कि जिस प्रकार जल में बिखरे हुए तारों के प्रतिबिंब को हँस मोती समझकर ग्रहण नहीं कर लेता है, उसी प्रकार दुष्ट लोगों की बात का सज्जन व्यक्ति विश्वास नहीं करता है।

हलन चलन की सकति है तौ लौं उद्यम ठानि।

अजगर ज्यौं मृगपति बदन मृगन परतु है आनि॥

भावार्थ: कवि कहते हैं कि मनुष्य के शरीर में जब तक हिलने−डुलने की शक्ति रहे, तब तक उसे कार्यरत रहना चाहिए अर्थात् उसे परिश्रम करते रहना चाहिए। परिश्रम करने से ही जीवन की सार्थकता है, बिना परिश्रम के जीवन का कोई भी अस्तित्व नहीं है। अजगर की तरह शेर भी जब परिश्रमहीन हो जाता है तब उस शेर के मुख में हिरण अपने आप आकर नहीं गिर जाया करता है, अर्थात् व्यक्ति के लिए परिश्रम करना ही उपयुक्त है।

नीकी पै फीकी लगै बिनु अवसर की बात।

जैसे बरनत युद्ध में रस सिंगार सुहात॥

भावार्थ: कवि वृंद कहते हैं कि बात अच्छी होने पर भी यदि वह बात बिना मौक़े के कही जाए तो वह बात सुनने वाले को फीकी ही मालूम होती है, अर्थात् अच्छी नहीं लगती है। जिस प्रकार युद्ध हो रहा हो और उस वातावरण में यदि शृंगार रस की बात की जाए तो वह बात किसी को भी अच्छी नहीं लगती है।

ऊंचे बैठे ना लहै गुन बिन बड़पन कोइ।

बैठो देवल सिखर पर बायस गरुड़ होइ॥

भावार्थ: वृन्द कवि कहते हैं कि गुणों के बिना ऊँचे बैठने से कोई व्यक्ति बड़ा नहीं बन जाता है। जिस प्रकार मंदिर के शिखर पर बैठने से कौआ गरुड़ नहीं बन जाया करता है। अर्थात् मूल्य गुणों का ही होता है। उनके आधार पर ही व्यक्ति श्रेष्ठ बनता है।

जो जाकौ गुन जानही सो तिहिँ आदर देत।

कोकिल अंबहि लेत है काग निबौरी लेत॥

भावार्थ: कवि वृंद कह रहे हैं कि जो व्यक्ति जिस वस्तु का गुण जानता है वह उसी वस्तु को आदर प्रदान करता है। उदाहरण के लिए, कोयल आम को पसंद करती है और कौआ निबौरी को प्रिय मानता है। यह अपने−अपने स्वभाव का ही परिणाम है।

उद्यम कबहुँ छांड़ियै पर आसा के मोद।

गागरि कैसैं फोरियै उनयौ देखि पयोद॥

भावार्थ: कवि वर्णन करते हुए कहता है कि दूसरे की आशा पर उद्योग अर्थात् काम करना कभी भी नहीं छोड़ना चाहिए, क्योंकि बादलों की उमड़ी हुई घटा को देखकर पानी भरा हुआ घड़ा फोड़ नहीं दिया जाता है।

सुधरी बिगरै बेग ही बिगरी फिर सुधरै न।

दूध फटै कांजी परै सो फिर दूध बनै न॥

भावार्थ: वृन्द कहते हैं कि अच्छी चीज़ जल्दी बिगड़ जाती है लेकिन वह एक बार बिगड़ जाने पर पहले जैसे स्वरूप को प्राप्त नहीं कर पाती है। जिस प्रकार दूध में खटाई पड़ जाने से दूध फट जाता है, फिर चाहे जितना प्रयत्न किया जाए वह अपने पूर्वरूप को प्राप्त नहीं कर पाता है।

करै बुराई सुख चहै कैसै पावै कोइ।

रोपै बिरवा आक को आम कहां ते होइ॥

भावार्थ: वृन्द कवि कहते हैं कि कोई व्यक्ति दूसरे की बुराई करके सुख पाना चाहे तो यह कैसे संभव हो सकता है, अर्थात् उसे दूसरे की बुराई करके सुख की प्राप्ति नहीं हो सकती है। जिस प्रकार आक (आकड़ा) का वृक्ष लगाने पर यदि हम आम खाने की इच्छा व्यक्त करें तो यह कैसे संभव हो सकता है, क्योंकि आकड़े के वृक्ष से आम तो प्राप्त नहीं हो सकते हैं।

गुनी तऊ अवसर बिना आग्रह करै कोइ।

हिय ते हार उतारियै सयन समय जब होइ॥

भावार्थ: कवि वृंद कहते हैं कि गुणवान होते हुए उचित अवसर के बिना कोई आदर नहीं करता है, अर्थात् समय पर ही गुणवान का आदर होता है। जैसे सोने से बने हुए हार को गले में धारण करने पर वह अच्छा लगता है, अर्थात् समय पर उपयोग कने पर वह सौंदर्य वृद्धि करता हुआ अच्छा लगता है। लेकिन सीते समय जब उसे उतार कर अलग रख दिया जाता है, तब उसे कोई भी नहीं देखता है।

कीजै समझ कीजियै बिन बिचारि बिवहार।

आय रहत जानत नहीं सिर कौ पायन भार॥

भावार्थ: कवि वृंद कहते हैं कि मनुष्य को बिना सोचे−समझे किसी से भी व्यवहार नहीं करना चाहिए। बिना सोचे−समझे व्यवहार करने पर अर्थात् अपनी आमदनी के अनुसार कार्य करने पर उसके सिर पर पराया भार बना ही रहता है।

उत्तम जन की होड़ करि नीच होत रसाल।

कौवा कैसे चल सकै राजहंस की चाल॥

भावार्थ: कवि कहता है कि उत्तम जनों से प्रतिस्पर्धा रखने पर नीच व्यक्ति उनकी तरह सहृदय नहीं बन सकता। जैसे जिस तरह राजहंस चलता है, वैसी चाल लाख कोशिश करने पर भी कौवा नहीं चल सकता। भाव यह है कि नीच व्यक्ति श्रेष्ठ जन बनने की होड़ तो करता है, परंतु उसका स्वभाव सदैव नीच ही रहता है। इस कारण वह लाख कोशिश करने पर भी रसाल (आम) की तरह सरस−मधुर अर्थात् सरल−व्यवहारशील नहीं बन पाता है।

जाके सँग दूषन दुरै करिए तिहिँ पहिचानि।

जैसैं समझैं दूध सब सुरा अहीरी पानि॥

भारत: वृंद कवि कहते हैं कि जिस व्यक्ति के साथ दोष जुड़े होते हैं, अर्थात् जो व्यक्ति किसी भी बुराई विशेष से जुड़ा हुआ होता है, लोग उसकी पहचान उसी रूप में करने लगते हैं। जैसे ग्वालिन के हाथ में सुरा हो, फिर भी लोग यही समझते हैं कि इसके हाथ में दूध ही है।

बिरह तपन पिय बात तैं, उठत चौगनी जागि।

जल के सींचे बढ़त है, ज्यों सनेह की आगि॥

कवि वृंद कहते हैं कि प्रिय की बात को स्मरण करने से विरह अधिकाधिक बढ़ता जाता है। यह वैसे ही है जैसे प्रेम रूपी जल से सींचने पर प्रेम की चाह बढ़ती ही जाती है।

बिद्या धन उद्यम बिना कहौ जु पावै कौन।

बिना डुलाए ना मिले ज्यों पंखा की पौन॥

भावार्थ: वृंद कवि कहते हैं कि विद्या और धन बिना मेहनत के कोई भी प्राप्त नहीं कर सकता है। अर्थात् विद्या और धन परिश्रम से ही प्राप्त किया जाता है। बिना परिश्रम किए कोई प्राप्त नहीं कर पाता है, जिस प्रकार पंखा को हिलाए अर्थात् डुलाए बिना उससे हवा का सुख प्राप्त नहीं किया जा सकता है।

सज्जन तजत सजनता कीन्हेहु दोष अपार।

ज्यौं चंदन छेदे तऊ सुरभित करहि कुठार॥

भावार्थ: कवि कहता है कि व्यक्ति का जो अपना स्वभाव बन जाता है, वह उसे किसी भी स्थिति के जाने पर भी नहीं त्यागता है। सज्जन व्यक्ति के प्रति चाहे कितने अपकार क्यों किए जाएँ लेकिन वह अपनी सज्जनता को उसी प्रकार नहीं त्यागता है जिस प्रकार चंदन के वृक्ष को कुल्हाड़ा चाहे कितना भी काटे लेकिन सज्जन रूपी चंदन वृक्ष उसे भी अपनी सज्जनता रूपी सुवास से सुवासित कर देता है।

श्रीगुरुनाथ प्रभाव तैं होत मनोरथ सिद्ध।

घन सैं ज्यौं तरु बेलि दल फूल फलन की वृद्धि॥

भावार्थ: कविवर वृंद कहते हैं कि जब मनुष्य को गुरु और ईश्वर की कृपा प्राप्त हो जाती है तब उसके मन में स्थित सभी इच्छाएँ पूरी हो जाती हैं। अर्थात् उसके सभी मनोरथ उसी प्रकार सफल हो जाते हैं जिस प्रकार बादल का आश्रय पाकर वृक्ष और लताओं का समूह फूल और फलों से लद जाता है।

असुभ करत सोइ होत सुभ सज्जन बचन अनूप।

स्रवन पिता दिय दसरथहि स्राप भयो वर रूप॥

भावार्थ: कवि कहते हैं कि सज्जन व्यक्ति के वचन ऐसे अनोखे होते हैं कि यदि वे किसी के लिए अशुभ भी कहते हैं या करते हैं तो उनका वह कथन उसके लिए शुभ हो जाता है। जिस प्रकार श्रवण के पिता ने राजा दशरथ के द्वारा शब्दभेदी बाण श्रवण के मारे जाने पर उन्हें भी पुत्र वियोग में अपनी भाँति ही तड़प−तड़प कर मरने का शाप दिया था, लेकिन उनका वह शाप राजा दशरथ के लिए वरदान बन गया था। क्योंकि शाप के योग से ही ऐसा सुअवसर आया कि निःसंतान राजा दशरथ के चार पुत्र हुए थे।

जो समझे जा बात कौं सो तिहिँ कहै बिचार।

रोग जानै ज्योतिषी वैद्य ग्रहन कौ चार॥

कवि वृंद कहते है॥ कि जो व्यक्ति जिस बात को समझता है, वह उसी बात को सोच−समझ कर कहता है। रोग के बारे में ज्योतिषी नहीं जानता है और ग्रहों के बारे में चिकित्सक नहीं जानता है। इसलिए ज्रोतिषी ग्रहों के बारे में और चिकित्सक रोग के बारे में ही सोच−विचार कर सकता है।

दुष्ट छांड़ै दुष्टता कैसैं हू सुख देत।

धोएहू सौ बेर के काजर होय सेत॥

भावार्थ: कवि कहते हैं कि दुष्ट व्यक्ति अपने दुष्ट (नीच) स्वभाव को किसी भी तरह से नहीं छोड़ता है, चाहे उसको कितना भी सुख क्यों नहीं दिया जाए। वह अपने स्वभाव की प्रतिकूलता के आधार पर ही आचरण करता रहता है जैसे काजल को चाहे सौ बार क्यों धो लिया जाए, लेकिन वह अपना अवगुण अर्थात् कालापन छोड़कर सफेद नहीं होता है।

रस अनरस समझै कछु पढ़ै प्रेम की गाथ।

बीछू मंत्र जानई सांप−पिटारे हाथ॥

भावार्थ: प्रेम के आनन्द और कष्टों को समझने वाले लोग भी प्रेम की बड़ी-बड़ी गाथाएँ पढ़ने का दावा करते हैं। यह ठीक वैसा ही है कि कोई बिच्छू के काटने का मन्त्र जाने और सांप के पिटारे में हाथ डालने का दुस्साहस करे।

aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

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