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विद्यापति

1380 - 1460 | मधुबनी, बिहार

‘मैथिल कोकिल’ के नाम से लोकप्रिय। राधा-कृष्ण की शृंगार-प्रधान लीलाओं के ग्रंथ ‘पदावली’ के लिए स्मरणीय।

‘मैथिल कोकिल’ के नाम से लोकप्रिय। राधा-कृष्ण की शृंगार-प्रधान लीलाओं के ग्रंथ ‘पदावली’ के लिए स्मरणीय।

विद्यापति का परिचय

जन्म :मधुबनी, बिहार

निधन : नेपाल

‘मैथिल कोकिल’ विद्यापति चौदहवीं शती के कवि थे और निर्विवाद रूप से उनका यश सोलहवीं शती के अंत तक समस्त पूर्वी भारत में व्याप्त हो चुका था। उनके पदों के अनुकरण पर गीत लिखने वाले अनेकानेक कवि उत्पन्न हुए और उन्होंने रचनाओं में यदा-कदा विद्यापति का अतीव आदर के साथ स्मरण भी किया, पर आश्चर्य यह है कि बीसवीं शताब्दी के पूर्व कवि के समस्त पदों को एकत्र उपस्थित करने वाला कोई संग्रह या संकलन-ग्रंथ प्राप्त नहीं होता।

विद्यापति का निवास स्थान बिहार प्रान्त के दरभंगा जिले का विपसी नामक गाँव था। इनके गुरु का नाम पंडित हरि मिश्र था। भाषा की दृष्टि से इन्होंने संस्कृत, अवहट्ठ और मैथिली में काव्य-रचना की। इनमें ‘शैव सर्वस्व सार’, ‘गंगा वाक्यावली’, ‘दुर्गाभक्त तरंगिणी’, ‘भू परिक्रमा’, ‘दान-वाक्यावली’, ‘पुरुष परीक्षा’, ‘विभाग सार’, ‘लिखनावली’ और ‘गया पत्तलक-वर्ण कृत्य’ संस्कृत में है; जबकि ‘कीर्तिलता’ (भृंग-भृंगी संवाद के रूप में कीर्तिसिंह की वीरता का वर्णन) और ‘कीर्तिपताका’ (शिवसिंह की वीरता और उदारता का वर्णन) अवहट्ठ भाषा में है। ‘गोरक्ष विजय’ गद्य-पद्य युक्त ग्रन्थ है जिसका गद्य भाग संस्कृत में और पद्य भाग मैथिल में है। मैथिल भाषा में रची गई ‘पदावली’ इनकी कीर्ति का आधार ग्रन्थ है।

विद्यापति तिरहुत के राजा शिवसिंह और कीर्तिसिंह के आश्रित कवि थे। विभिन्न विद्वानों ने इनकी ‘पदावली’ को आधार मानते हुए शृंगारी, भक्त और रहस्यवादी जैसी श्रेणियों में श्रेणीबद्ध करने का प्रयास किया है। बाबू ब्रजनंदन सहाय, श्यामसुन्दर दास और हजारीप्रसाद द्विवेदी ने इन्हें भक्त माना है जबकि जार्ज ग्रियर्सन, नागेन्द्रनाथ गुप्त और जनार्दन मिश्र इनको रहस्यवादी कवि मानते हैं। जबकि हर प्रसाद शास्त्री, आचार्य शुक्ल, रामकुमार वर्मा, सुभद्रा झा और रामवृक्ष बेनीपुरी इन्हें शृंगार के कवि मानते आए हैं।

बंगाल की श्रुति परंपरा में विद्यापति के पद बहुत लोकप्रिय रहे हैं। गौड़ीय वैष्णव भक्तों ने इन पदों को बड़ी सावधानी से सुरक्षित रखा। सबसे प्राचीन पोथियों में विश्वनाथ चक्रवर्ती की 'क्षणदागीत चिंतामणि' (1705 ई.) और राधामोहन अंकुर द्वारा संकलित ‘पदामृत समुद्र’ (अठारहवीं शताब्दी) हैं। विद्यापति के पदों के संकलन का ठोस कार्य सबसे पहले शारदाचरण मित्र ने किया। 1881 ई. में जार्ज अब्राहम ग्रियर्सन ने गायकों के मुख से सुनकर 82 पद एकत्र किये। बाद में बंगाल के नगेंद्र नाथ गुप्त ने ‘विद्यापति पदावली' का संपादन किया। 'विद्यापति पदावली' नाम से एक संग्रह अमूल्य विद्याभूषण और खगेंद्रनाथ मित्र ने किया। बंगाली संस्करणों में नगेंद्रनाथ गुप्त का संकलन अधिक महत्त्वपूर्ण है क्योंकि इन्होंने काफी संतुलित और परीक्षणात्मक ढंग से काम लिया। रामवृक्ष बेनीपुरी के संपादन में ‘विद्यापति पदावली’ प्रकाशित हुई। यह संकलन मुख्यतः नगेंद्र नाथ गुप्त की ‘विद्यापति पदावली' पर आधारित है। इन सभी प्रकाशित और अप्रकाशित सामग्रियों के आधार पर खगेंद्रनाथ मित्र और विमानबिहारी मजूमदार ने 'विद्यापति' नाम से एक वृहत् संकलन और तैयार किया। इसमें मजूमदार ने एक विद्वत्तापूर्ण भूमिका भी लिखी है। 1954 ई. में सुभद्र झा ने काशी से 'द सांग्स ऑव विद्यापति' नाम से एक नया संकलन छपवाया।

विषय की दृष्टि से विद्यापति के पद कई श्रेणियों में विभाजित किये जा सकते हैं। अधिकांश पद राधा और कृष्ण के प्रेम के विभिन्न पक्षों का उद्घाटन करते हैं। कुछ पद प्रकृति संबंधी हैं। कुछ पद विभिन्न देवताओं की स्तुति में लिखे गये हैं। ये शैव संप्रदाय से संबंधित थे, इसलिए स्तुति-पदों में सबसे अधिक पद शिव और उमा के संबंध में है। उमा-शिव विवाह वाले पदों में शिव में ईश्वरत्वबुद्धि और तज्जन्य श्रद्धा का समावेश है, किंतु इनमें सामान्य-जीवन, हास-परिहास तथा व्यंग्य-विनोद का भी पुट कम नहीं है। ‘हम नहिं आज रहब यहि आँगन गे माई’, ‘नाहिं करब वर हर निरमोहिया’, और ‘एत जप तप हम किय लगि कैलह’ जैसे पदों में सुंदरी गोरी और भूतभावन शंकर के बेमेल विवाह पर व्यंग्य और अंत में कन्या के अक्षय सौभाग्य की सदिच्छा व्यक्त की गयी है। प्रार्थना या नचारी वर्ग के पदों में दुर्गा, जानकी, गंगा आदि की भी स्तुति की गयी है। कुछ पदों में कवि अपने दैन्य की अतिशयता का कारुणिक चित्रण करके स्तुत्य देवता से कृपा की याचना करता है। यह भक्तिकाल के कवियों की एक रूढ़ परिपाटी है। करुणोद्रेक के लिए अपनी हीनता का वर्णन भक्ति का आवश्यक अंग माना जाता था। ऐसे पदों को देखकर यह कहना कि शुरू में विद्यापति शृंगारिक थे, बाद में भक्त हो गए, अनुचित है। इस संबंध में आचार्य रामचंद्र शुक्ल का कहना है कि “विद्यापति के पद अधिकतर शृंगार के ही हैं, जिनमें नायिका और नायक राधा-कृष्ण हैं। इन पदों की रचना जयदेव के गीतकाव्य के अनुकरण पर ही शायद की गई हो। इनका माधुर्य अद्भुत है। विद्यापति शैव थे। उन्होंने इन पदों की रचना शृंगार-काव्य की दृष्टि से की है, भक्त के रूप में नहीं। विद्यापति को कृष्णभक्तों की परंपरा में न समझना चाहिए। आध्यात्मिक रंग के चश्मे आजकल बहुत सस्ते हो गए हैं। उन्हें चढ़ाकर जैसे कुछ लोगों ने 'गीत-गोविंद' के पदों को आध्यात्मिक संकेत बताया है, वैसे ही विद्यापति के इन पदों को भी।”

पदावली के जिस वर्ग के पदों के लिए विद्यापति की प्रसिद्धि है, वह है राधा-कृष्ण प्रेम। इस वर्ग के कुछ पदों में राधा का नख-शिख वर्णन, रूपमाधुरी का चित्रण, आकर्षण और नायक या कृष्ण के हृदय में प्रेम-वैचित्र्य का उदय दिखाया गया है। राधा के ऐंद्रजालिक कुसुमशायक सदृश रूप से घायल कृष्ण यमुना तट पर बैठकर बार-बार उसे याद करते हैं। राधा कृष्ण के रूप को 'अपरूप' कहती हैं, जिसका वर्णन सुनकर लोगों को सहसा विश्वास न होगा। दूतियाँ राधा और कृष्ण, दोनों की अवस्था का वर्णन एक दूसरे को सुनाती हैं। इस प्रकार प्रणय, स्नेह, मान, राग, अनुराग, भाव और महाभाव की क्रमिक अवस्थाओं का चित्रण किया गया है। सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ ने इन्हीं विशेषताओं के आधार पर विद्यापति के पदों की मादकता को ‘नागिन की लहर’ कहा है।

विद्यापति की सबसे बड़ी विशेषता है, नख-शिख, प्रेम-प्रसंग, दूती, मान, सखी-शिक्षा, मिलन, अभिसार, छलना, मान, विदग्ध विलास आदि रूढ़ियों का निर्वाह करते हुए भी उनके भीतर से राधा और कृष्ण के प्रेम का ऐसा चित्रण करना, जो अपनी तमाम परिस्थितियों, सुख-दुःख की भावनाओं, उल्लासपूर्ण मिलन और अश्रुसिक्त विरह की अवस्थाओं में पल कर एक जीवंत वस्तु प्रतीत हो। राधा और कृष्ण के इस प्रेम के परिपार्श्व में उनकी सारी दिनचर्या, समाज, परिवार, अनुशासन, लज्जा, संकोच आदि यथार्थ जीवन का अंग बनकर उपस्थित होते हैं।

विद्यापति साहित्य के प्रकांड पंडित थे, उन्होंने काव्य-कौशल को सारी संपदा के साथ अपने अध्यवसाय और अभ्यास से अर्जित किया था किंतु वे लौकिक जीवन से भी इस तरह संपृक्त थे कि उनकी रचनाओं में लोकतत्त्व, लोकोक्ति, मुहावरे, अंधविश्वास, रीति-रिवाज, प्रथाएँ आदि का भी बड़ा सुंदर समावेश हो गया है। उनके कृष्ण नंदराजा के पुत्र नहीं, सामान्य ग्वाल हैं। सूरदास की गोपियों की इस बात के लिए प्रशंसा की गयी है कि उन्होंने उद्धव के तर्कों का उत्तर अपने-अपने आसपास की वस्तुओं के उदाहरण के माध्यम से देती हैं किंतु इसके लिए प्रशंसा करनी ही है तो विद्यापति की होनी चाहिए क्योंकि 'कान्ह गंवार’ से बातचीत करने में इस शैली का प्रयोग विद्यापति की गोपियाँ कम नहीं करतीं।

प्रकृति का चित्रण विद्यापति ने अधिकांशतः अलंकरण के रूपों में ही किया है। राधा और कृष्ण के प्रेम-प्रसंगों की लीला-भूमि के रूप में प्रकृति नाना रूप रंग में उपस्थित हुई है। नवलकिशोर और नवल किशोरी की सहचरी के रूप में प्रकृति ने भी नवल आभा को धारण किया है। ‘नव वृंदावन नव नव तरुगन नव नव विकसित फूल’ भी इसी क्षण-क्षण नूतन प्रतीत होने वाली प्रकृति के सूचक हैं। वसंत तो जैसे कवि का प्रिय सहचर है। उसकी सुंदरता, मोहकता और मादकता कवि को अनेक परिस्थितियों में आकृष्ट करती है। माघ मास की श्रीपंचमी को प्रकृति के गर्भ से जन्म धारण करने वाले वसंत-शिशु के स्वागत में नागकेशर के पुष्पों की शंखध्वनि करता है और उसके युवक होने तक के हर अवसर पर अपनी स्नेहिल श्रद्धा का दान करता है। विद्यापति रूढ़ि परिपालन के लिए बारहमासा का भी प्रयोग करते हैं। षड्ऋतु का वर्णन प्राचीन साहित्य में प्रायः संयोग-शृंगार में और बारहमासा का वर्णन विरह में किया जाता था। विद्यापति ने ‘बारहमासा’ का प्रयोग विरह मे ही किया है और परिपाटी के अनुसार आषाढ़ मास से आरंभ भी किया है।

विद्यापति के गीत अपनी रागात्मकता और मार्मिकता के लिए काफी प्रसिद्ध हैं। विद्यापति के पहले परवर्ती संस्कृत साहित्य में क्षेमेंद्र और जयदेव ने मात्रिक गीत लिखने का प्रयत्न किया था किंतु वे गीत पूर्णतया लोक-चेतना से प्रभावित न थे। विद्यापति ने गीतों को लोक-जीवन के अत्यंत निकट ला खड़ा किया। बहुत बार तो उन्होंने लोकधुन और रागों तक को सीधे अपना लिया है। इसीलिए डॉ. बच्चनसिंह ने इन्हें ‘जातीय कवि’ कहा है। इन गीतों में गेयता है, इसका पता तो इनके आरंभ में दिये हुए राग-रागनियों के उल्लेख से ही चल जाता है। कवि स्वयं इन्हें गाते प्रतीत होते हैं। इसी से बार-बार कवि भणिता में ‘विद्यापति कवि गाओल’ की पुनरावृत्ति होती है। विद्यापति के गीतों की दूसरी विशेषता है, सहजता और स्वाभाविकता। इस दृष्टि से वे गीतों की आत्मा के पारखी थे। पदावली की भाषा प्राचीन मैथिली है, जिसमें ब्रजभाषा का भी प्रभाव है। इसे हम चाहें तो शिथिल अर्थ में ब्रजबुलि का प्राचीन रूप कह सकते हैं।

विद्यापति की उपर्युक्त काव्य-विशेषताओं को आधार मानते हुए कालान्तर में पाठक समाज द्वारा उन्हें कई उपाधियों से विभूषित किया गया जिनमें ‘अभिनव जयदेव’, ‘कवि शेखर’, ‘कवि कंठहार’, ‘खेलन कवि’, ‘पंचानन’, और ‘मैथिल कोकिल’ प्रमुख हैं। हिंदी कविता की यात्रा में विद्यापति पद, गीत, और शृंगार परंपरा की आरंभिक कड़ी है जिनके विकास से हिंदी कविता समृद्ध हुई।

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