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सूरदास

1483 - 1563

ब्रजभाषा के श्रेष्ठ कृष्णभक्त कवि। पुष्टिमार्गीय अष्टछाप कवि। वात्सल्य रस के सम्राट।

ब्रजभाषा के श्रेष्ठ कृष्णभक्त कवि। पुष्टिमार्गीय अष्टछाप कवि। वात्सल्य रस के सम्राट।

सूरदास के दोहे

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जो पै जिय लज्जा नहीं, कहा कहौं सौ बार।

एकहु अंक हरि भजे, रे सठ ‘सूर’ गँवार॥

सूरदास जी कहते हैं कि हे गँवार दुष्ट, अगर तुझे अपने दिल में शर्म नहीं है, तो मैं तुझे सौ बार क्या कहूँ क्योंकि तूने तो एक बार भी भगवान् का भजन नहीं किया।

सदा सूँघती आपनो, जिय को जीवन प्रान।

सो तू बिसर्यो सहज ही, हरि ईश्वर भगवान्॥

जो ईश्वर सदा अपने साथ रहने वाला है, प्राणों का भी प्राण है, उस प्रभू को तूने अनायास ही बातों ही बातों में भुला दिया है।

कह जानो कहँवा मुवो, ऐसे कुमति कुमीच।

हरि सों हेत बिसारिके, सुख चाहत है नीच॥

यह मनुष्य जाने कैसा दुष्ट बुद्धि वाला है, और जाने कहाँ कैसी बुरी मौत मरेगा जो यह भगवान् से प्रेम या भक्ति को छोड़कर भी सुख चाहता है।

सुनि परमित पिय प्रेम की, चातक चितवति पारि।

घन आशा सब दुख सहै, अंत याँचै वारि॥

प्रिय के प्रेम के या परिणाम की महत्ता को जानकर या सुनकर पपीहा बादल की ओर निरंतर देखता रहता है। उसी मेघ की आशा से सब दु:ख सहता है पर मरते दम तक भी पानी के लिए प्रार्थना नहीं करता। सच्चा प्रेम अपने प्रेमी से कभी कुछ नहीं माँगता या चाहता।

दीपक पीर जानई, पावक परत पतंग।

तनु तो तिहि ज्वाला जरयो, चित भयो रस भंग॥

पतंगा दिये की लौ पर जलकर भस्म हो जाता है पर दीपक इसकी पीड़ा को नहीं जानता। पतंग का शरीर तो दीपक की ज्वाला में जलकर भस्म हो जाता है पर इसका प्रेम नष्ट नहीं होता।

मीन वियोग सहि सकै, नीर पूछै बात।

देखि जु तू ताकी गतिहि, रति घटै तन जात॥

चाहे पानी मछली की बात भी नहीं पूछता फिर भी मछली तो पानी का वियोग नहीं सह सकती। तुम मछली के प्रेम की निराली गति को देखो कि इसका शरीर चला जाता है तो भी उसका पानी के प्रति प्रेम रत्ती-भर भी कम नहीं होता।

प्रभु पूरन पावन सखा, प्राणनहू को नाथ।

परम दयालु कृपालु प्रभु, जीवन जाके हाथ॥

वह प्रभु परिपूर्ण है, पवित्र मित्र है, प्राणों का स्वामी है। अत्यंत दयालु है और सभी प्राणियों का जीवन उसी के हाथ में है।

जिन जड़ ते चेतन कियो, रचि गुण तत्व विधान।

चरन चिकुर कर नख दिए, नयन नासिका कान॥

जिस ईश्वर ने सत्व, रज, तम—इन तीन गुणों तथा पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश—इन पाँच तत्वों के द्वारा जड़ से चेतन बना दिया और हाथ, पाँव, आँख, नाक, बाल और नाखून दिए (बड़े दु:ख की बात है मनुष्य उसके गुणों का स्मरण नहीं करता)।

असन बसन बहु बिधि दये, औसर-औसर आनि।

मात पिता भैया मिले, नई रुचहि पहिचानि॥

उसी ईश्वर ने अनेक प्रकार के भोजन वस्त्रादि समय-समय पर लाकर दिए। और साथ ही नई-नई पहचान वाले माता, पिता, भाई आदि प्रियजन भी लाकर मिलाए।

देखो करनी कमल की, कीनों जल सों हेत।

प्राण तज्यो प्रेम तज्यो, सूख्यो सरहिं समेत॥

कमल के इस महान् कार्य को देखो कि उसने जल से प्रेम किया था तो प्राण दे दिए, पर प्रेम को नहीं छोड़ा। यहाँ तक कि पानी के साथ कमल भी सूख गया।

aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

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