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पृथ्वीराज राठौड़

1549 - 1600 | बीकानेर, राजस्थान

बीकानेर नरेश के भाई और अकबर के दरबारी कवि। भक्ति साहित्य के लिए प्रसिद्ध। 'डिंगल' भाषा के प्रधान कवियों में से एक।

बीकानेर नरेश के भाई और अकबर के दरबारी कवि। भक्ति साहित्य के लिए प्रसिद्ध। 'डिंगल' भाषा के प्रधान कवियों में से एक।

पृथ्वीराज राठौड़ का परिचय

जन्म : 06/11/1549 | बीकानेर, राजस्थान

कवि भक्त पृथ्वीराज राठौड़ का जन्म बीकानेर के राजवंश में 1549 ई. में हुआ। ये बीकानेर नरेश रायसिंह के छोटे भाई और कल्याणमल के पुत्र थे। पृथ्वीराज मुग़ल सम्राट अकबर के बड़े कृपापात्र थे और उनकी ओर से उन्होंने अनेक युद्धों में भाग लिया था। 'मुंहणोत नेणसी' की ख्यात में प्राप्त एक उल्लेख के अनुसार अकबर ने इनको गागरोन गढ़ की जागीर प्रदान की थी।

पृथ्वीराज स्वदेशाभिमानी वीर क्षत्रिय थे। कहा जाता है कि निराश होकर महाराणा प्रताप अकबर से संधि करने वाले थे। प्रताप के नाम से पृथ्वीराज के मन में अगाध श्रद्धा थी। कन्हैयालाल सेठिया की कविता ‘पातल और पीथल’ के अनुसार जब आर्थिक कठिनाइयों तथा घोर विपत्तियों का सामना करते-करते राणा प्रताप विचलित हो उठे तो उन्होंने सम्राट के पास संधि का संदेश भेज दिया। इस पर अकबर को बड़ी ख़ुशी हुई और राणा का पत्र पृथ्वीराज को दिखलाया। पृथ्वीराज ने उसकी सचाई में विश्वास करने से इनकार कर दिया। उन्होंने अकबर की स्वीकृति से एक पत्र राणा प्रताप के पास भेजा, जो वीर रस से ओतप्रोत, तथा अत्यंत उत्साहवर्धक कविता से परिपूर्ण था। उसमें उन्होंने लिखा हे राणा प्रताप! तेरे खड़े रहते ऐसा कौन है जो मेवाड़ को घोड़ों के खुरों से रौंद सके? हे हिंदूपति प्रताप! हिंदुओं की लज्जा रखो। अपनी शपथ निबाहने के लिये सब तरह को विपत्ति और कष्ट सहन करो। हे दीवान ! मैं अपनी मूँछ पर हाथ फेरूँ या अपनी देह को तलवार से काट डालूँ; इन दो में से एक बात लिख दीजिए।' यह पत्र पाकर महाराणा प्रताप पुनः अपनी प्रतिज्ञा पर दृढ़ हुए और उन्होंने पृथ्वीराज को लिख भेजा कि 'हे वीर! आप प्रसन्न होकर मूँछों पर ताव दीजिए। जब तक प्रताप जीवित है, मेरी तलवार को तुर्कों के सिर पर ही समझिए।'

1600 ई. में पृथ्वीराज का निधन मथुरा में हुआ। उनकी गणना उच्चकोटि के भक्तों में की जाती थी, इसका सबसे बड़ा प्रमाण नाभादास के 'भक्तमाल’ में प्राप्त छप्पय है, जिसमें उनकी काव्य-प्रतिभा तथा भाषा-निपुणता की प्रशंसा की गयी है। वे बड़े वीर, विष्णु के परम भक्त और ऊँचे दर्जे के कवि थे। उनका साहित्यिक ज्ञान बड़ा गंभीर और सर्वांगीण था। संस्कृत और डिंगल साहित्य के वे विद्वान थे। कर्नल टॉड ने पृथ्वीराज की तुलना मध्ययुगीन पश्चिमी यूरोप के वीर यश गायक (बोवादोरे) से की है। इतिहासकार कर्नल टॉड पृथ्वीराज के बारे में लिखते हैं कि ‘पृथ्वीराज अपने युग के सर्वाधिक पराक्रमी प्रमुखों में से एक थे तथा वह पश्चिम के प्राचीन ट्रोबेडूर राजाओं की भाँति युद्ध-कला के साथ ही कवित्व-कला में भी निपुण थे।’ चारणों की सभा में इस राजपूत अश्वारोही योद्धा को एक मत से प्रशंसा का ताल-पत्र दिया गया था। डिंगल भाषा के सर्वश्रेष्ठ कवियों में पृथ्वीराज की गणना की जाती है।

'बेलि क्रिमन रुकमणी री' भक्तिरस-पूर्ण डिंगल में लिखित अत्यंत सुंदर कृति है। डिंगल भाषा के उत्कृष्ट खंडकाव्य 'बेलि क्रिसन रुक्मणी री' की रचना पृथ्वीराज ने 1580 ई. में की थी। इसी रचना में डिंगल के छंद ‘बेलियो गीत’ का प्रयोग हुआ है। संपूर्ण कृति 305 पद्यों में समाप्त हुई है। कृष्ण और रुक्मिणी के विवाह की कथा कृति का विषय है। 'श्रीमद्भागवत' के दशम स्कंध उत्तरार्ध के चार अध्यायों में कृष्ण-रुक्मिणी की परिणय कथा है किंतु पृथ्वीराज ने कथा की रूपरेखा को सामने रखकर मौलिक काव्य-ग्रंथ की रचना की है। नखशिख-वर्णन, षट्-ऋतु, युद्ध-वर्णन जैसे प्रसंगों में कवि की मौलिकता के दर्शन होते हैं। कृति शृंगार और वीर-रस प्रधान है। अलंकारों के प्रयोग की दृष्टि से भी कृति महत्त्वपूर्ण है। शब्दालंकारों में डिंगल के ‘वयण सगाई’ अलंकार का प्रयोग बहुत ही सफल हुआ है। अर्थालंकारों में उपमा, रूपक का प्रयोग विशेष आकर्षक है। ऋतु-वर्णन में राजस्थान की स्वाभाविक स्थानीय प्रकृति का आकर्षक वर्णन मिलता है। कवि ने साहित्यिक डिंगल भाषा का कृति में प्रयोग किया है। काव्य, युद्ध-नीति, ज्योतिष, वैद्यक आदि अनेक विषयों के जैसे संकेत कृति में मिलते है, उनसे पृथ्वीराज की बहुज्ञता का परिचय मिलता है। राजस्थान में ‘बेलि क्रिसन रुकमणी री' अत्यंत प्रिय रही है। उसकी प्रशंसा में अनेक पद्य राजस्थान में प्रचलित हैं। पृथ्वीराज के समकालीन दुरसा आढ़ा ने 'बेलि क्रिसन रुकमणी री' को 'पाँचवाँ वेद' तथा 'उन्नीसवाँ पुराण' कहा था। उस पर ढूंढाड़ी, मारवाड़ी तथा संस्कृत में टीकाएँ भी लिखी गयीं, जो पर्याप्त प्राचीन हैं। इस युग में 'बेलि क्रिसन रुकमणी री' के साहित्यिक सौंदर्य की ओर ध्यान आकर्षित करने के श्रेय इतावली विद्वान एल. पी. तेस्सीतोरी को मिलना चाहिए। तेस्सीतोरी का सुसंपादित संस्करण रॉयल एशियाटिक सोसायटी बंगाल से 1917 ई. में निकला। कृति का दूसरा महत्त्वपूर्ण संस्करण हिन्दुस्तानी अकादमी, प्रयाग से 1931 ई. में निकला। इधर और भी संस्करण निकले हैं, जिनमें कोई नई बात नहीं है। अकादमी का संस्करण पुराना होते हुए भी महत्त्वपूर्ण सामग्री प्रस्तुत करता है।

इसके अतिरिक्त राम की स्तुति से सम्बद्ध लगभग पचास पद्यों में समाप्त 'दसरथरावउत', कृष्ण की स्तुति से सम्बद्ध लगभग 165 पद्यों में समाप्त 'वसुदेवरावउत', 'गंगा लहरी' तथा 'दसम भागवत रा दूहा' अन्य कृतियाँ भी डिंगल भाषा में रचित हैं। ये सभी रचनाएँ भक्तिविषयक हैं। पृथ्वीराज के नाम से अनेक फुटकर पद्य भी राजस्थान में प्रचलित हैं। ब्रजभाषा (पिंगल) में भी पृथ्वीराज ने कुछ रचनाएँ की होंगी, किंतु प्रामाणिक रूप से इस विषय में कुछ भी नहीं कहा जा सकता। पृथ्वीराज को काव्य के अतिरिक्त अन्य अनेक शास्त्रों की जानकारी थी, राजनीति और लोकनीति से तो वे भली-भाँति परिचित थे ही, यह उनकी रचनाओं के आधार पर निश्चित रूप से कहा जा सकता है।

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