मीरा का परिचय
मध्ययगीन भक्ति-आंदोलन की आध्यात्मिक प्रेरणा में मीरा का विशिष्ट स्थान है। इनके पद गुजरात, राजस्थान, पंजाब, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश, बिहार और बंगाल तक प्रचलित हैं और ये हिन्दी तथा गुजराती की सर्वश्रेष्ठ कवयित्री मानी जाती हैं। नाभादास, प्रियादास, ध्रुवदास, मलूकदास, हरीराम व्यास आदि भक्तों और संतों ने इनका गुणगान किया है। सबसे पहले कर्नल टॉड ने मीरा से संबंधित भ्रांत धारणा बनायी कि यह मेवाड़ के राणा कुंभा की पत्नी थीं। टॉड से प्रभावित होकर शिवसिंह सेंगर ने भी मीरा को राणा कुंभा की पत्नी बताया।
मुंशी देवीप्रसाद ने टॉड के मत का खंडन करते हुए स्पष्ट किया कि मीरा मेड़तिया राठौड़ रतनसिंह की बेटी, मेड़ते के राव दूदाजी की पोती और जोधपुर बसाने वाले राव जोधाजी की प्रपौत्री थी। इनका जन्म कुड़की गाँव में हुआ था, जो इनके पिता की जागीर में था। ये सन् 1516 ई. में मेवाड के प्रतापी महाराणा सांगा के कुँवर भोजराज को ब्याही गयी थीं। टॉड की भ्रांति का निराकरण हरविलास शारदा और गौरीशंकर हीराचन्द ओझा ने भी किया। इन विद्वानों ने मीरा का जन्म सन् 1498 ई. के आस-पास निश्चित किया। अब यही मत साहित्य-जगत् में मान्य हो गया है। परशुराम चतुर्वेदी और रामकुमार वर्मा इसी मत के पक्ष में हैं। मिश्रबंधुओं ने भ्रमवश विवाह-काल (1516 ई.) को जन्म-काल मान लिया है और रामचंद्र शुक्ल ने इसी भ्रम को दुहरा दिया है।
बाल्यावस्था में ही मीरा की माता का देहांत हो गया था, इसलिए उनकी देख-रेख वैष्णव पितामह दूदा ने की थी। उनका प्रभाव मीरा पर भी पड़ा। मीरा का विवाह 1516 ई. में सांगा के ज्येष्ठ पुत्र भोजराज से हुआ जिनकी विवाह के कुछ ही समय बाद (संभवतः 1523 ई. में) मृत्यु हो गई। सन् 1527 ई. में उनके पिता रतनसिंह भी खानवा के युद्ध में मारे गए। इसी के आस-पास राणा सांगा का भी देहान्त हुआ। सन् 1531 ई. में भोजराज के छोटे भाई रत्नसिंह की भी मृत्यु हो गयी और मेवाड़ का शासन उनके सौतेले भाई विक्रमादित्य के हाथ में आया। भौतिक जीवन से निराश मीरा की एकांतनिष्ठा गिरधर गोपाल के प्रति बढ़ती गयी। वह संत-संगति में अपने दिन बिताने लगी। राणा को यह सब असह्य हो गया और उसने मीरा को पीड़ित करना आरंभ किया। जनश्रुतियों में मीरा को ज़हर देने, साँप से कटवाने और बंधक बनाने की कई चमत्कारी कहानियाँ प्रचलित हैं। मीरा के अनेक पदों में इन कष्टों के उल्लेख से लगता है कि राणा ने मीरा के प्रति कठोरता बरती थी।
मीरा के चाचा वीरमदेव और चचेरे भाई जयमल इन्हें आदर की दृष्टि से देखते थे। सन् 1533 ई. के आस-पास मेवाड़ से वे मेड़ता आ गयीं। 1538 ई. में जोधपुर के राव मालदेव ने वीरमदेव से मेड़ता छीन लिया। इसी समय मीरा के हृदय में वैराग्य-भाव चरम सीमा पर रहा होगा और वे सब कुछ त्यागकर वृंदावन चली गयी होंगी। सन् 1543 ई. के आस-पास वे द्वारका चली गई और जीवन के अंत तक वहीं रणछोड़जी के मंदिर में रहीं।
मीरा के दीक्षा-गुरु के संबंध में कई मत प्रचलित हैं। रैदास-पंथी संत रैदास को इनका गुरु बताते हैं। वल्लभ संप्रदाय के लोग उनका गोसाईं विट्ठलनाथ से दीक्षित होना सिद्ध करते हैं। बाबा वेणीमाधव दास पत्र-व्यवहार द्वारा तुलसीदास से उनके दीक्षा ग्रहण करने की बात कहते हैं। वियोगीहरि उन्हें जीव गोस्वामी की शिष्या मानते हैं। मीरां के पदों में रैदास को गुरु प्रमाणित करने वाले पद अधिक हैं किन्तु रैदास और मीरा के समय में पर्याप्त अंतर है। विट्ठलनाथ की शिष्या होने की बात 'चौरासी वैष्णवन की वार्ता’ से ही कट जाती है। वेणीमाधव दास का 'गोसाईं चरित' अप्रामाणिक सिद्ध हो चुका है। जीव गोस्वामी से मिलने की बात का उल्लेख भी प्रियादास की टीका में ही हुआ है किंतु उससे शिष्या होना प्रमाणित नहीं होता। गौड़ीय वैष्णवों में मीरा के रूप गोस्वामी से मिलने की बात प्रचलित है, अतः जीव गोस्वामी से तो मीरा का मिलना ही संदिग्ध है। मीरा की भक्ति-भावना आत्मोद्भूत है। उन्होंने मुक्त-भाव से सभी भक्ति-संप्रदायों से प्रभाव ग्रहण किया था। किसी व्यक्ति विशेष से उनका गुरु-शिष्य संबंध नहीं था।
मीराबाई के नाम से कुल सात-आठ कृतियों का उल्लेख मिलता है—'नरसीजी रो माहेरो', 'गीत गोविंद की टीका', 'राग गोविंद', 'सोरठ के पद', 'मीराँबाई का मलार', 'गर्वागीत', 'राग विहाग', और 'फुटकर पद'। प्रथम तीन कृतियों का उल्लेख मुंशी देवी प्रसाद ने किया है किंतु उनके देखने में केवल 'नरसीजी रो माहेरो' ही आया था। इसका विशेष साहित्यिक महत्व नहीं है। 'मीराँबाई का मलार' का उल्लेख गौरीशंकर हीराचंद ओझा ने किया है। 'सोरठ के पद' का उल्लेख नागरी प्रचारिणी सभा, काशी की खोज रिपोर्ट (1902 ई.) में किया गया है। 'गर्वागीत' का उल्लेख कृष्णलाल मोहनलाल झावेरी ने और 'राग विहाग' का उल्लेख स्वामी आनंदस्वरूप ने किया है। लगता है कि इनमें कोई भी स्वतंत्र कृति नहीं है। मीरा के फुटकर पदों में उपर्युक्त सभी रागों के पद मिलते हैं। मीरा के भक्तों ने अपनी-अपनी रुचि से विभिन्न रागों के पद चुने होंगे, जिन्हें कालांतर में स्वतंत्र रचना मान लिया गया होगा। मीराबाई की एकमात्र प्रामाणिक और महत्वपूर्ण कृति उनकी 'पदावली' है। उनके प्रामाणिक पदों की संख्या आज भी निश्चित नहीं है। इन पदों का महत्त्व इनकी संगीतात्मकता, भावमयता, मधुरता, सहजता और रचयिता की एकांत तन्मयता के कारण हैं। मीरा के पदों का वर्ण्य-विषय सीमित ही कहा जाएगा। यदि मीरा के व्यक्तिगत जीवन की ओर संकेत करने वाले पदों को—जिनमें उनके नाम, जन्मस्थान, कुल, पति, स्वजनों से मतभेद आदि का उल्लेख है—अलग कर दिया जाए तो शेष पदों में आराध्य की स्तुति और विनय, सौंदर्य-कल्पना, प्रणयानुभूति, विरहोद्गार, लीलागान, आत्म-समर्पण, अव्यक्त की अनुभूति और रागात्मक भाव का ही प्राधान्य है। वस्तुतः उनके काव्य का केंद्रीय भाव प्रेम है। भौतिक प्रेम असफल होकर अध्यात्मोन्मुख हुआ है और क्रमशः रूपमय आराध्य से अरूप के प्रति अग्रसर होता हुआ विरहगर्भित होकर शांति के वातावरण में विलीन हो गया है। मीरा के पद गेयत्व की दृष्टि से हिन्दी साहित्य की अन्यतम कलाकृति है। कलाविहीनता ही उसकी कलात्मकता है, सहजता ही उसका सौन्दर्य है। वह भक्तों, संगीतज्ञों और काव्य-रसिकों में समान रूप से आदृत है।
मीरा बाई की भक्ति दैन्य और माधुर्यभाव की है। इन पर योगियों, संतों और वैष्णव भक्तों का सम्मिलित प्रभाव पड़ा है। इनके आराध्य कहीं निर्गुण निराकार ब्रह्म, कहीं सगुण साकार गोपीवल्लभ श्रीकृष्ण और कहीं निर्मोही परदेशी जोगी के रूप में कल्पित किए गए हैं। मीरा के विरहाकुलतापूर्ण माधुर्य-भाव के पदों में विशेष तन्मयता है। इनका काव्य इनके जीवन की सहज अभिव्यक्ति है। भौतिक सुख-स्वप्नों के टूटने पर मीरा की भावनाएँ अध्यात्मोन्मुख हुईं। वे गिरधर गोपाल के अनन्य और एकनिष्ठ प्रेम से अभिभूत हो उठीं। तन्मयता के चरम क्षणों में उन्होंने निर्गुण निराकर के रहस्यमय सौंदर्य का साक्षात् किया और अंततः संसार की असारता का संकेत करती हुई परम शांति का आलिंगन कर सकीं।
मीरा के पदों की भाषा में राजस्थानी, ब्रजी और गुजराती का मिश्रण पाया जाता है। कहीं पंजाबी, खड़ीबोली और पूरबी के प्रयोग भी मिल जाते हैं। इनकी भाषा का मूल रूप राजस्थानी रहा होगा। ब्रजी और गुजराती का मिश्रण अस्वाभाविक नहीं है किंतु अन्य भाषाओं का सम्मिश्रण उनके पदों के व्यापक प्रचार और दीर्घकालीन मौखिक परंपरा के कारण हुआ है। मीरा के पद गेय हैं। वे विभिन्न रागों में विभाजित हैं। परशुराम चतुर्वेदी ने इनमें सार, सरानी, विष्णुपद, दोहा, उपमान, सवैया, शोभन, ताटक, कुंडल और चांद्रायन छंदों को ढूंढ़ निकाला है। किंतु इस आधार पर मीरा को काव्यरीति की पंडिता नहीं कहा जा सकता है। उनकी भावाकुलता और तन्मयता ने उन्हें कवयित्री बना दिया।
मीरा को चाहे फ़ारसी के 'मीर' से संबद्ध किया जाय, चाहे संस्कृत के 'मिहिर' से, सत्य तो यह है कि उनका व्यक्तित्व आत्म-गरिमा से मंडित है। मीरा को आरोपित महत्व की आवश्यकता नहीं है। वह सच्ची प्रेम-पुजारिन थी। मध्ययुगीन राजस्थानी और हिंदी-साहित्य में उनका काव्य अनुपम है।