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मलूकदास

1574 - 1682 | इलाहाबाद, उत्तर प्रदेश

भक्ति परंपरा के संत कवि। ‘अजगर करे ना चाकरी...’ जैसी उक्ति के लिए स्मरणीय।

भक्ति परंपरा के संत कवि। ‘अजगर करे ना चाकरी...’ जैसी उक्ति के लिए स्मरणीय।

मलूकदास का परिचय

मूल नाम : मलूकदास

जन्म :इलाहाबाद, उत्तर प्रदेश

मलूकदास प्रयाग से लगभग 36 मील उत्तर-पश्चिम गंगा के दाहिने किनारे पर बसे हुए कड़ा नामक कस्बे में उत्पन्न हुए थे। उत्तरी-पूर्वी भारत के उन कतिपय स्थानों में से कड़ा एक महत्त्वपूर्ण स्थान है, जिनका मध्ययुग के इतिहास में विशेष राजनीतिक महत्त्व समझा जाता था। सथुरादास लिखित 'परिचई' के अनुसार मलूकदास का जन्म सन् 1574 ई. को हुआ था। संसार से विरक्ति का जो भाव मलूकदास के हृदय में आगे चलकर पल्लवित और पुष्पित हुआ, उसका बीजारोपण उनकी बाल्यावस्था में ही हो गया था। उनकी दमन की प्रवृत्ति देखकर उनके माता-पिता अत्यंत चिंतित होते थे। इनकी इस प्रवृत्ति को रोकने के लिए उन्होंने कुछ उपाय करने का निश्चय किया। उनके यहाँ कंबल बेचने का व्यापार होता था। सुंदरदास ने अपने पुत्र को उस व्यापार में लगाने का प्रयत्न किया किंतु इससे उन्हें दान देने के लिए और भी सरल साधन प्राप्त हो गया। वे कुछ कंबल बेचते और कुछ भिखमंगों को बाँट देते थे। इनकी शिक्षा-दीक्षा के विषय में कोई अंतःसाक्ष्य उपलब्ध नहीं है। 'परिचई’ भी इस विषय में मौन है। जनश्रुति है कि पाँच वर्ष की अवस्था होने पर सुंदरदास ने अपने पुत्र को ग्राम पाठशाला में भेजा था। गुरु ने जब उनकी पाटी पर वर्णमाला लिखकर उसका अभ्यास करने का उन्हें आदेश दिया तो बालक मलूकदास ने वर्णमाला के प्रत्येक अक्षर पर एक साखी लिख डाली। गुरु को बालक की इस ईश्वरप्रदत्त प्रतिभा को देखकर अत्यंत आश्चर्य हुआ।

मलूकदास के गुरु के संबंध में बहुत मतभेद है। आचार्य क्षितिमोहन सेन, अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध' तथा 'संत बानी संग्रह’ के संपादक के अनुसार उनके गुरु द्रविड़ देश के महात्मा विठ्ठलदास थे। इससे भिन्न 'भारतवर्ष का धार्मिक इतिहास' के लेखक शिवशंकर मिश्र का मत है कि वे कील के शिष्य थे। डा. पीतांबरदत्त बड़थ्वाल ने लिखा है कि इन्होंने देवनाथजी से नाम मात्र के लिए शिक्षा ग्रहण की थी, उन्हें आध्यात्मिक जीवन में वस्तुतः दीक्षित करनेवाले गुरु मुरार स्वामी थे। 'संत बानी संग्रह' में उनके गुरु का नाम विठ्ठल द्राविड़ दिया हुआ है परंतु यह अशुद्ध है। ‘परिचई’ के लेखक सथुरादास के अनुसार इन्होंने सर्वप्रथम देवनाथ के पुत्र पुरुषोत्तम से दीक्षा ली थी, विट्ठल द्राविड़ से नहीं। अनुमान है कि इनका विवाह कुल की रीति के अनसार हुआ था, परंतु उनका मन गार्हस्थ्य जीवन में कभी भी अनुरक्त नहीं हुआ। विवाह के कुछ समय बाद एक कन्या का जन्म हुआ परंतु जन्म होते ही माता के सहित उसका देहांत हो गया। परिचई से ज्ञात होता है कि यद्यपि मलूकदास अपने परिवार में रहते हुए उसके साधारण कर्तव्यों का पालन करते रहे परंतु उनका विरक्त मन उसकी माया से सदैव निर्लिप्त रहा। अपने पैतृक व्यवसाय-कंबल के व्यापार में भी उनका मन नहीं लगा। इनके पर्यटन तथा भ्रमण पर कोई अंतःसाक्ष्य उपलब्ध नहीं है परंतु ‘परिचई’ द्वारा इस विषय पर यथेष्ट प्रकाश पड़ता है। उन्होंने सुदूर स्थानों की भी समय-समय पर यात्रा की थी।

मलूकदास ने सन 1682 ई. में परमधाम को प्रयाण किया। मलूकदास की प्रामाणिक कृतियों में ‘ज्ञानबोध’, ’रतनखान’, ‘भक्त बच्छावली’, ‘भक्ति-विवेक’, ‘ज्ञानपरोछि’, ‘बारहखड़ी’, ‘रामावतारलीला’, ‘ब्रजलीला’, ‘ध्रुवचरित’, ‘विभयविभूति’ तथा ‘सुखसागर’ हैं। 'ज्ञानबोध' इनका सर्वमान्य प्रामाणिक ग्रंथ है। इस ग्रंथ के प्रथम विश्राम में ब्रह्म की भक्त-वत्सलता का वर्णन उनके अन्य ग्रंथ 'भक्तवच्छावली' से बहुत कुछ मिलता-जुलता है, कहीं-कहीं दोनों में समान पंक्तियाँ प्राप्त होती हैं। 'ज्ञानबोध' में तीर्थ-यात्रा, भेष-धारण, आश्रमत्याग आदि बाह्याचरण को व्यर्थ बताया गया है। मलूकदास ने ब्रह्म के अद्वैत, सर्वव्यापकता और सर्वशक्तिमत्ता का प्रतिपादन करते हुए ज्ञान, भक्ति और वैराग्य के समन्वय का वर्णन किया है। ज्ञानबोध की प्रामाणिक हस्तलिखित प्रति महंत कुटुंब के पुरुषोत्तमदास कक्कड़ के यहाँ प्राप्त हुई है। इस ग्रंथ की एक अन्य प्रति मलूकदास की गद्दी कड़ा में सुरक्षित है और वर्तमान महंत बाबा मथुरादास के अधिकार में है। गद्दी पर इस ग्रंथ की नित्य पूजा की जाती है। 'रतनखान' में इन्होंने अपने दार्शनिक विचारों को प्रकट किया है। 'ज्ञानबोध' की भाँति इस ग्रंथ में भी वैराग्य, संसार की असारता, मोक्ष आदि के भाव व्यक्त किये गये हैं। अपने कथनों को इन्होंने उदाहरणों द्वारा पुष्ट किया है। 'रतनखान' की एक हस्तलिखित प्रति पुरूषोत्तमदास कक्कड़ के पास है। डा. पीतांबरदत्त बड़थ्वाल के शब्दों में इनका सर्वोत्तम ग्रंथ 'भक्त बच्छावली' माना जाता है। इसमें ब्रह्म की भक्तवत्सलता का वर्णन है। यद्यपि इन्होंने अपनी सभी कृतियों में भगवद्भक्ति का गुणगान किया है, परंतु ‘भक्ति-विवेक' में भक्ति का वर्णन एक स्वतंत्र विषय के रूप में हुआ है। 'रतनखान' की भाँति इस ग्रंथ की रचना भी दोहा-चौपाई में हुई है। इसकी भाषा अवधी है और इसमें भी खड़ी बोली का बह प्रारंभिक रूप मिलता है, जो इनकी अन्य प्रामाणिक कृतियों में पाया जाता है। अपने विषय के समर्थन के लिए इन्होंने कथाओं का प्रचुर प्रयोग किया है। 'भक्तिविवेक' की एक हस्तलिखित प्रति बाबा मथुराप्रसाद के पास सुरक्षित है और इसकी भी नित्य पूजा की जाती है। 'ज्ञानपरोछि' में मलूकदास ने वैराग्य, आत्मा की नित्यता, सृष्टि-उत्पत्ति, अष्टांगयोग, प्राणायाम, ब्रहम के अद्वैत आदि विषयों पर विचार प्रकट किये हैं। वैराग्य की परिभाषा तथा उसके आवश्यक तत्व ‘भक्ति-विवेक' से साम्य रखते हैं। कुछ विषयों में ‘ज्ञानबोध' से भी साम्य पाया जाता है। इस ग्रंथ की रचना भी दोहा-चौपाई में हुई है और भाषा भी अवधी है।

मलूकदास द्वारा लिखित 'बारहखड़ी' मलूकदासी संप्रदाय के बालकों को अक्षर ज्ञान कराने के पहले कंठस्थ करा दी जाती है। इस प्रकार मलूकदास की इस कृति का विशेष महत्व हो गया है। इसमें भी ब्रह्म की सर्वव्यापकता, सत्य, अहिंसा, , क्षमा, दया, वैराग्य आदि विषयों का वर्णन हुआ है। इसकी भाषा अवधी तथा इसका छंद दोहा है। 'रामावतारलीला', 'ब्रजलीला' तथा 'ध्रुवचरित्र' इत्यादि रचनाओं में क्रमशः राम, कृष्ण तथा धुव के चरित्र का वर्णन है। इन रचनाओं से सूचना मिलती है कि मलूकदास अपने प्रारंभिक जीवन में अवतारवाद में विश्वास करते थे। मलूकदास की इन कृतियों की शैली अपरिपक्व है, इससे यह सिद्ध होता है कि इनकी रचना उन्होंने जीवन के प्रारंभिक काल में की होगी। 'रामावतारलीला' तथा 'ध्रुवचरित' की रचना भी अवधी भाषा और दोहा-चौपाई छंदों में हुई है। 'विभयविभूति' से मलूकदास के दार्शनिक विचारों का परिचय मिलता है। ब्रह्म की महत्ता, उसको प्राप्त करने के विविध उपाय, प्राणायाम और उसके साधन की विधि, अष्टांग योग तथा-साधन के फल और प्रभाव आदि अनेक विषयों पर इसमें विचार प्रकट किये गये हैं। इसमें भी अवधी भाषा और दोहा-चौपाई छंदों का प्रयोग हुआ है।

'सुखसागर' में मूलकदास ने ब्रह्म के विभिन्न अवतारों का वर्णन किया है। यह भी उनकी प्रारंभिक कृति जान पड़ती है। इसकी भाषा भी अवधी तथा दोहा-चौपाई है। उनकी रचनाओं से तत्कालीन धार्मिक विचारों तथा आदर्शों का परिचय अवश्य मिलता है। निर्गुण विचारधारा के आधार पर मलूकदास ने धार्मिक समन्वय के सिद्धांत का प्रतिपादन किया था, जिससे उनके विचारों की उदारता प्रकट होती है। इन्होंने अधिकतर अवधी भाषा का प्रयोग किया है, यद्यपि उसमें खड़ीबोली का प्रभाव परिलक्षित होता है। भाषा के अध्ययन की दृष्टि से उनकी रचनाओं का महत्त्व है। उनके द्वारा प्रयुक्त दोहा-चौपाई छंद 'रामचरितमानस' की लोकप्रियता का संकेत देते हैं। हिंदी अकादमिक जगत में उनके एक दोहे को बार-बार उद्धृत किया जाता रहा है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने जिसे ‘आलसियों का मूल मंत्र’ कहा है :

'अजगर करे न चाकरी, पंछी करे न काम।
दास मलूका कहि गए, सबके दाता राम।'

विडंबना यह है कि मलूकदास के एक दोहे के साथ उनके चरित्र को जोड़कर उनके दार्शनिक पक्ष को अनदेखा किया जाता रहा है जबकि उन्होंने भक्ति और वैराग्य से संबंधित सुव्यवस्थित और सुंदर बानियाँ लिखी हैं। आचार्य शुक्ल ने इनके विषय में लिखा है कि “आत्मबोध, वैराग्य और प्रेम पर इनकी बानी बड़ी मनोहर है।” एक पदांश द्रष्टव्य है :

सबहिन के हम सबै हमारे।
जीव जंतु मोहि लगैं पियारे॥
तीनों लोक हमारी माया।
अंत कतहुँ से कोइ नहिं पाया॥
छत्तिस पवन हमारी जाति।
हमहीं दिन औ हमहीं राति॥
हमहीं तरवर कीट पतंगा।
हमहीं दुर्गा हमहीं गंगा॥
हमहीं मुल्ला हमहीं क़ाज़ी।
तीरथ बरत हमारी बाजी॥
हमहीं दसरथ हमहीं राम।
हमरै क्रोध औ हमरै काम॥
हमहीं रावन हमहीं कंस।
हमहीं मारा अपना बंस॥

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