कविराजा बाँकीदास की संपूर्ण रचनाएँ
दोहा 11
सूर न पूछे टीपणौ, सुकन न देखै सूर।
मरणां नू मंगळ गिणे, समर चढे मुख नूर॥
शूरवीर ज्योतिषी के पास जाकर युद्ध के लिए मुहूर्त नहीं पूछता, शूर शकुन नहीं देखता। वह मरने में ही मंगल समझता है और युद्ध में उनके मुँह पर तेज चमक
आता है।
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तीहाँ देस विदेस सम, सीहाँ किसा उतन्न।
सीह जिकै वन संचरै, को सीहाँरौ वन्न॥
सिंहों के लिये देश-विदेश बराबर हैं। उनका वतन कैसा? सिंह जिन वनों मे पहुँच जाते हैं वे वन ही उनके अपने स्वदेश हो जाते हैं।
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चमर हुळे नह सीह सिरै, छत्र न धारे सीह।
हांथळ रा बळ सू हुवौ, ओ मृगराज अबीह॥
सिंह के सिर पर चँवर नहीं डुलाये जाते और सिंह कभी मस्तक पर छत्र धारण नहीं करता। वह तो अपने पंजे के बल से ही निर्भय हुआ है।
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बाघ करें नह कोट बन, बाघ करे नह बाड़।
बाघा रा बघवार सूं, झिले अंगजी झाड़॥
सिंह वन के चारों ओर न तो कोट बनाता है और न काँटों की दीवार लगाता है। सिंहों के शरीर की गंध ही से छोटे-छोटे वृक्ष उन्नति के शिखर पर पहुँच जाते हैं।
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सूरातन सूराँ चढ़े, सत सतियाँसम दोय।
आडी धारा ऊतरै, गणे अनळ नू तोय॥
शूरवीरों में वीरत्व चढ़ता है और सतियो में सतीत्व। ये दोनों एक समान है। शूरवीर
तलवार से कटते हैं और सती अग्नि को जल समझती है।
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