जसवंत सिंह के दोहे
कुंभ उच्च कुच सिव बने, मुक्तमाल सिर गंग।
नखछत ससि सोहै खरो, भस्म खौरि भरि अंग॥
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मुग्धा तन त्रिबली बनी, रोमावलि के संग।
डोरी गहि बैरी मनौ, अब ही चढ़यो अनंग॥
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मुक्तमाल हिय स्याम कैं, देखी भावत नेन।
छबि ऐसी लागत मनौ, कालिंदी में फेन॥
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पिक कुहुकै चातक रटै, प्रगटै दामिनि जोत।
पिय बिन यह कारी घटा, प्यारी कैसे होत॥
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सुधा भरयो ससि सब कहैं, नई रीति यह आहि।
चंद लगै जु चकोर ह्वै, बिस मारत क्यों ताहि॥
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जल सूकै पुहमी जरै, निसि यामें कृस होत।
ग्रीषम कूँ ढूँढत फिरै, घन लै बिजुरी जोत॥
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पुहमि बियोगिनि मेह की, धौरी पीरी जोत।
जरि-जरि कारी पीय बिन, मिलैं हरीरी होत॥
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रबि दरसै पंकज खुलै, उड़ै भौंर इकबार।
हिय तें मनौ बियोग के, निकसैं बुझे अँगार॥
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आसव की यह रीति है, पीयत देत छकाइ।
यह अचिरज तियरूपमद, सुध आए चढ़ि जाइ॥
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aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere