धन्ना भगत के दोहे
धन्नो कहै ते धिग नरां, धन देख्यां गरबाहिं।
धन तरवर का पानड़ा, लागै अर उड़ि जाहिं॥
धरणीधर व्यापक सबै, धरणि ब्यौम पाताल।
धन्नो कहै धनि साध ते, बिसरै नहिं कहूँ काल॥
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धन्ना धन ते संत जन, जे पैठे पर भीड़।
संधि कटावै आपणी, रती न आवै पीड़॥
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धन्ना धिन्न ते मानवी, धरणीधर सूं प्रीति।
राति दिवस बिसरै नहीं, रसना उर मन चीति॥
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धन्ना कहै हरि धरम बिन, पंडित रहे अजाण।
अणबाह्यौ ही नीपजै, बूझौ जाइ किसाण॥
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धन्ना धन नहिं राचिये, न रचिये संसार।
पग बेड़ी गल रासड़ी, यूं ही गये असार॥
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                                    संबंधित विषय : नीति
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धन्ना कहै धन बांटिए, ज्यूं कूवा का नीर।
खाटी सापुरसां तणी, सब काहू का सीर॥
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