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आलोकधन्वा

1948 | मुंगेर, बिहार

समादृत कवि। ‘गोली दाग़ो पोस्टर’, ‘भागी हुई लड़कियाँ’ और ‘सफ़ेद रात’ सरीखी कविताओं के लिए लोकप्रिय।

समादृत कवि। ‘गोली दाग़ो पोस्टर’, ‘भागी हुई लड़कियाँ’ और ‘सफ़ेद रात’ सरीखी कविताओं के लिए लोकप्रिय।

आलोकधन्वा का परिचय

मूल नाम : आलोकधन्वा

जन्म : 02/07/1948 | मुंगेर, बिहार

आलोकधन्वा का जन्म 1948 में मुँगेर, बिहार में हुआ था। उनकी पहली कविता ‘जनता का आदमी’ 1972 में ‘वाम पत्रिका’ में प्रकाशित हुई थी और उसी वर्ष फिर उनकी दूसरी कविता ‘गोली दाग़ो पोस्टर’ ‘फ़िलहाल’ पत्रिका में छपी। इन दोनों कविताओं ने एक मज़बूत प्रतिरोधी धमक दर्ज की और देश के वामपंथी सांस्कृतिक आंदोलन में इनकी गहरी पैठ हुई। आगे फिर ‘कपड़े के जूते’, ‘पतंग’, ‘भागी हुई लड़कियाँ’, ‘ब्रूनो की बेटियाँ’ जैसी लंबी कविताओं से उनकी कविता उपस्थिति और गहन हुई और वह प्रतिरोधी चेतना के अनिवार्य कवि के रूप में स्थापित हुए।    

सातवें दशक के उत्तरार्द्ध में बदलते सामाजिक परिदृश्यों और सत्ता के क्रूर स्वरूप के विरुद्ध उभरती जन भागीदारियों ने एक नए तरह की कविता की आवश्यकता को जन्म दिया था। कविता की यह धारा, जिसे हम ‘तीसरी धारा’ के रूप में जानते हैं, नक्सलबाड़ी आंदोलन और किसान  विद्रोहों के गर्भ से उत्पन्न हुई थी। इस धारा में प्रतिबद्धता को रचनाकर्म के एक नए प्रतिमान के रूप में स्वीकार किया गया। प्रतिबद्धता के इस प्रतिमान ने रचनाकारों को मार्क्सवादी राजनीति की ओर तो मोड़ा ही, कविता एवं राजनीति के बीच एक अनिवार्य संबंध और उनके परस्पर संघर्षों को भी स्वीकार किया जाने लगा। इस युगीन आवश्यकता में रचनाकारों के लिए आवश्यक हो गया कि वह न केवल मज़दूर, किसान, स्त्री, युवाओं के जीवन संघर्ष के भागी बनें बल्कि उन्हें रचनात्मक और वैचारिक नेतृत्व भी प्रदान करें।  

इसी परिदृश्य में आलोकधन्वा का उदय किसी ‘फ़िनोमेनन’ की तरह हुआ था। उनकी कविता का स्वर मध्यमवर्गीय प्रतिबद्ध चेतना के प्रतिरोध का स्वर है जिस पर समकालीन कृषक संघर्षों का स्पष्ट प्रभाव है। वह शोषण और शोषक के सभी रूपों की परख में सक्षम हैं और अपनी कविताओं में बार-बार इसे उजागर करते हैं। उनकी कविताओं में शोषण की पहचान भर नहीं है, जनता का प्रशिक्षण भी है और किसी समाधान के लिए सशस्त्र संघर्ष की आवश्यकता से भी मुँह नहीं मोड़ा गया है।   

आलोकधन्वा की कविताओं का संवाद किसी ‘रोमांटिसिज़्म’ का अवसर नहीं छोड़ता। उनकी कविताओं में जहाँ सत्ता-व्यवस्था के शोषण के चित्र हैं, वहीं जनता द्वारा इसके प्रतिरोध और संघर्ष के भी चित्र हैं। वह प्रतिरोध की संस्कृति के कवि हैं। उनकी कविताओं में आती स्त्रियाँ तक आत्मीयता के रंग तो छोड़ती हैं लेकिन वृहत स्त्रीवर्गीय संवाद का भागीदार बनने से भी नहीं चूकतीं। 

कविताओं के अतिरिक्त आलोकधन्वा की सांस्कृतिक-वैचारिक सक्रियता भी रही है जहाँ वह विविध लेखक संगठनों और सांस्कृतिक मंचों से संबद्ध रहे।  

आलोकधन्वा की रचना-यात्रा के लगभग पाँच दशक हो गए हैं, लेकिन लेखन व प्रकाशन के मामले में वह अत्यंत संकोची, आत्म-संशयी और संयमी रहे हैं। ‘दुनिया रोज़ बनती है’ (1998) उनका एकमात्र कविता-संग्रह है, जो 50 वर्ष की उम्र में उन्होंने दोस्तों/प्रशंसकों के बहुत इसरार पर, उनकी ही मदद से प्रकाशित करवाया। उनकी कविताओं की दूसरी किताब अब तक प्रतीक्षा की राह में है। उनकी कविताओं का अँग्रेज़ी एवं अन्य भारतीय भाषाओं में अनुवाद हुआ है। साहित्य अकादेमी द्वारा प्रकाशित हिंदी कविताओं के अँग्रेज़ी अनुवाद संकलन ‘सरवाइवल’ में उनकी कविताएँ शामिल हैं। प्रसिद्ध अमेरिकी साहित्यिक पत्रिका ‘क्रिटिकल इनक्वायरी’ ने उनकी कविताओं के अनुवाद प्रकाशित किए हैं।  

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