ज़रूर जाऊँगा कलकत्ता
रोचक तथ्य
इस कविता के लिए कवि को भारतभूषण अग्रवाल पुरस्कार प्राप्त हुआ।
अभी और कितनी दूर है कलकत्ता
यही कलकत्ता
जहाँ पहुँचे थे कभी अपने मिर्ज़ा ग़ालिब
और लौटे थे
ज़ेहन में आधुनिकता लेकर
मैंने कितनी-कितनी बार दुहराया है
वह शे'र
किसी सबक़ की तरह
जिसमें दुविधा के बीच
जीवन की राह तलाशता है शाइर
वहाँ सवाल ईमान और कुफ़्र का नहीं
वहाँ सवाल धर्मी और विधर्मी का नहीं
वहाँ सवाल एक नई रोशनी का है
ग़ालिब की यात्रा के सैकड़ों साल बाद
मैं हिंदी का एक अदना-सा कवि
जा रहा हूँ कलकत्ता
मन में गहरी बेचैनी है
इधर बदल गए हैं हमारे शहर
वहाँ अदृश्य हो रहे हैं आत्मा के वृक्ष
अब कोई आँधी नहीं आती
जो उड़ा दे भ्रम की चादर
यह जादुई विज्ञापनों का समय है
यह विस्मरण का समय है
इस समय रिश्तों पर बात करना
प्रागैतिहासिक काल पर बात करने जैसा हो गया है
हमारे शहर बदल गए हैं
कलकत्ता भी बदल गया होगा
पर अभी कितनी दूर है वह
बैठे-बैठे पिरा रही है कमर
बढ़ती जा रही है हसरत
कितना समय लगा होगा ग़ालिब को
वहाँ पहुँचने में
महज़ देह नहीं
आत्मा भी दुखी होगी उनकी
उनके लिए कलकत्ता महज़ एक शहर नहीं था
उनकी यात्रा किसी सैलानी की यात्रा न थी
जब हम देखते हैं किसी शहर को
वह शहर भी देखता है हमको
कलकत्ते ने देखा होगा हमारे महाकवि को
उसके आँसुओं को
उसकी उदासी को
उसके दुख को
क्या कलकत्ते ने देखा होगा
हमारे महाकवि की आत्मा को
उसके भीतर बहती अजस्र कविता को?
मैं कलकत्ते में
कैसे पहचानूँगा उस पत्थर को
जिस पर समय से दो हाथ करता
कुछ पल सुस्ताने के लिए बैठा होगा
हमारी कविता का मस्तक
रेख़्ते का वह उस्ताद
मैं जी भर देखना चाहता हूँ कलकत्ता
इसलिए चाहे जितना पिराए कमर
चाहे जितनी सताए थकान
मैं लौटूँगा नहीं दिल्ली
ज़रूर जाऊँगा कलकत्ता।
- पुस्तक : उर्वर प्रदेश (पृष्ठ 315)
- संपादक : अन्विता अब्बी
- रचनाकार : जितेंद्र श्रीवास्तव
- प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन
- संस्करण : 2010
Additional information available
Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.
About this sher
Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.
rare Unpublished content
This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.