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उनके जाने के बाद

unke jane ke baad

हर्षित मिश्र

अन्य

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हर्षित मिश्र

उनके जाने के बाद

हर्षित मिश्र

और अधिकहर्षित मिश्र

    जब मैं बहुत छोटा था,

    मैंने पहली बार धुएँ को आसमान में उठते देखा—

    तब जाना कि कुछ चीज़ें

    ऊपर जाती हैं,

    और कभी लौटती नहीं।

    मुझे लगा—

    यह कोई उत्सव है,

    जहाँ लकड़ियाँ दीये बन जाती हैं।

    पर जब लोगों की आँखें भीगने लगीं,

    तब समझा—

    हर लौ किसी कहानी का अंत होती है।

    मैं नहीं रोया,

    बस ज़मीन पर लकीरें खींचता रहा—

    जैसे किसी समझ में आने वाली विदाई का नक़्शा बना रहा हूँ।

    फिर यह सिलसिला चलता गया...

    मैंने कई संस्कार देखे,

    लोगों के दुख में शामिल हुआ,

    पर हर बार जलती चिता से दूर बैठकर

    कभी ज़मीन पर लकीरें खींचता,

    कभी सूखे पत्तों को मसलता,

    कभी कंकड़ उठाकर दूर उछाल देता—

    जैसे यह सब मेरे लिए कोई खेल हो।

    आँखें फिर भी सूखी ही रहीं,

    बस यही चिंता थी—

    कि अब तेरह दिन तक

    सात्त्विक खाने की विवशता होगी।

    मैंने लोगों को फूट-फूटकर रोते हुए देखा,

    उनके काँपते कंधों पर रखा हर हाथ

    जैसे किसी टूटे मन को समेटने की कोशिश करता था।

    मैंने उन आँखों में डूबे ग़म को टटोलना चाहा,

    पर हर बार यही सोचता—

    “इतनी रुलाई क्यों आती है?”

    जब मेरे नाना गुज़रे,

    तो मेरी आँखें पहली बार भीग गईं।

    वे आँसू सायास थे या अनायास,

    आज तक समझ नहीं पाया।

    पर जब मेरे दादा गए,

    तब समझ गया—

    इतनी रुलाई क्यों फूटती है।

    फिर यह सिलसिला चलता गया...

    नानी चली गईं, फिर दादी भी...

    उनके साथ मेरा बचपन भी,

    जो मेरे आँसुओं की तरह

    धीरे-धीरे मुझसे बिछड़ गया।

    मैं उन आँसुओं को रोक सका,

    उन अपनों को,

    जिनसे मेरा बचपन जुड़ा था।

    तब से मैं हर छोटी बात पर ठहरने लगा,

    आँखें यूँ ही भीगने लगती हैं...

    जब दादी का खाली पलंग देखता हूँ,

    जिस पर उनकी सिलवटें अब भी वैसी ही पड़ी हैं—

    जैसे वे अभी उठकर मंदिर के दिए में बाती डालने गई हों,

    और लौटकर फिर उसी पलंग पर बैठ जाएँगी।

    दादा की घड़ी अब भी दीवार पर टंगी है,

    उसकी सुइयाँ वहीं अटकी हैं,

    जहाँ दादा की साँसें ठहर गई थीं।

    घर के उस कोने में

    वह लाठी अब भी रखी है,

    जिसका सहारा लेकर

    दादा आँगन में टहलते थे—

    अब भी लगता है,

    वे उसी लाठी के सहारे

    कभी भी दरवाज़े पर आकर खड़े हो जाएँगे।

    फिर नानी का रसोईघर याद आता है...

    वह चूल्हा, जिसके धुएँ में

    उनकी ममता की ख़ुशबू अब भी घुली है।

    वह मसालेदानी,

    जिसके ढक्कन पर उनकी उँगलियों के निशान

    अब भी जैसे मेरे बचपन की भूख को पुकारते हैं।

    वह दरबा आज भी वहीं है,

    जिसमें नानी दूध उबालती थीं।

    मुझे आज भी वे याद आती हैं

    जब सर्दियों की साँझ होती है,

    और किसी घर के आँगन से

    दूध के उफान की आवाज़ कानों में पड़ती है—

    तो लगता है,

    जैसे नानी फिर आवाज़ दे रही हों—

    “हर्षित, आजा... दूध ठँडा हो जाएगा!”

    मैं उस आवाज़ को सुनने के लिए ठहर जाता हूँ...

    पर वह आवाज़ अब सिर्फ़ मेरी यादों में है।

    घर के हर कोने में

    उनके हाथों की छाप है—

    जिसे वे गढ़ती रहीं,

    सँवारती रहीं,

    और अपनी साँसों के साथ

    इस घर में बसा गईं।

    और नाना...

    गाँव के चौराहे पर उनकी आवाज़ अब भी गूँजती है—

    कभी आक्रोश में,

    कभी स्नेह में,

    कभी गाँव के हर आँगन को अपना आँगन मानने वाले

    उस विशाल दिल की गर्मजोशी में।

    वह कुर्सी अब भी वहीं है,

    जिस पर बैठकर उन्होंने जाने कितने फैसले किए...

    अब वह ख़ामोश है—

    जैसे बस उनकी पुकार की राह देख रही हो।

    ऐसी हर चीज़ में उनकी परछाई दिखती है—

    और मैं ठहर जाता हूँ।

    अजीब-सी घुटन होती है...

    जैसे हर बिखरी चीज़

    मुझे उनके होने का अहसास दिला रही हो—

    या शायद, उनके होने का।

    जब उनकी याद आती है,

    तो ऐसा लगता है—

    जैसे मैं भी उसी कुर्सी पर बैठा हूँ,

    जहाँ नाना बैठे थे...

    या शायद,

    जैसे मैं उस पलंग पर लेटा हूँ,

    जहाँ दादी की सिलवटें अब भी ठहरी हैं।

    मैं ठहर जाता हूँ—

    आँखें नम होती हैं,

    पर आवाज़... आवाज़ कहीं खो गई है।

    आँखें कई बार भर आती हैं,

    पर हर बार बस उन्हीं के लिए।

    जब उनकी याद का साया मुझ पर पड़ता है,

    तो लगता है—

    जैसे कोई पुराना दरवाज़ा चरमराता हुआ खुला हो—

    और उसके पीछे वही चेहरे खड़े हों,

    जिनकी आँखों में अब भी

    ममता का वही उजास टिमटिमा रहा हो—

    जैसे बुझती हुई बाती,

    जिसकी लौ हवा के थपेड़ों के बीच

    अब भी ख़ुद को बचाने की कोशिश कर रही हो।

    मैं उन्हें पुकारना चाहता हूँ,

    पर आवाज़ मेरे गले में अटक जाती है—

    ठीक वैसे ही,

    जैसे रुंधी हुई सिसकी

    कभी फूटने को होती है,

    तो कभी गले में ही दम तोड़ देती है।

    मुझे नहीं पता यह सिलसिला कब शुरू हुआ...

    पर जब भी मन भारी होता है,

    तो वही चेहरे,

    वही आवाज़ें,

    वही स्मृतियाँ

    मुझे इस तरह घेर लेती हैं—

    जैसे शाम ढलते ही

    दीवार पर परछाइयाँ धीरे-धीरे लंबी होती जाती हैं,

    और कमरे के कोने अँधेरे में खो जाते हैं।

    उनकी यादें कभी फूटकर आती हैं—

    तेज़ बारिश की तरह,

    तो कभी दबे पाँव—

    जैसे कोई पीपल के पत्तों के बीच

    हवा की हल्की सरसराहट हो।

    बस इतना जानता हूँ—

    आँसू कई बार बहने को होते हैं,

    पर हर बार उन्हीं की याद में बह निकलते हैं—

    जैसे ठहरे हुए पानी में

    किसी ने कंकड़ फेंक दिया हो,

    और उसकी लहरें देर तक

    दिल को भिगोती रहें।

    स्रोत :
    • रचनाकार : हर्षित मिश्र
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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