गंगा-तरंगिणी
गिरिजा वामहि अंग, अहाँ शशिकलहुँ उपर चढ़
की न बनलि छी प्रिया जगत्पति पतिक अधिक बढ़ि?
अहींक नीरबल नारायण-पद-नीरज पावन
करथि अहिंक सञ्चय हित विधिहु कमण्डलु धारण
अहँ त्रिदेव-सहचारिणी त्रिपथ-वाहिनी त्रिदश-धुनि
त्रिविध ताप संहार हित होउ सदय जन पर जननि॥1॥
अहँ हिम-नगपति महाकविक उर-द्रवित निरन्तर
नित नव-नव हिम-भाव-सजल कविता चिर-सुन्दर
ध्वनि-रस-गतिमय एक-एक पद-कणसँ सुरसरि
युग-युगसँ छी दैत अमृत सन्देश विश्व भरि
छाया-पथक विहारिणी गति रहस्य निधि गामिनी
करब भाव उर्वर हमर, उर-मरु शीतल वाहिनी॥2॥
शिव की सकितथि विष पचाय यदि लितथि न माथे
जैतथि सिन्धु सुखाय वाडवानलहिक हाथे
की न ठिठुरि हिमवान मरण-शय्यागत रहितथि
यदि न अमर-धुनि! अहँक अमृत-रस भाग्ये पबितथि
शत शत ज्वालामुखी-मुख जरि जैतथि भू दग्ध भय
जँ न जुड़बितनि सुधामयि! अहँक सुधाधिक विमल पय॥3॥
जन्म-जन्म सञ्चित हिमवन्तक पुण्यक लेखा
भारत-भूमिक भाल बीच भाग्यक शुभ रेखा
कयल जलधिके रत्नाकर दय जीवन-धारा
भूतलके कयलहुँ स्वर्गहुसँ बढ़ि शुचि सारा
तीर्थराज-लक्ष्मी अही, काशी शीतल-कारिणी।
जनकभूमि-रज-कणक हित जय मिथिला-सहचारिणी॥4॥
सगर सगर-सुत सुतल महानिद्रा–मुद्रित गुनि
जननि! जगाओल मुक्ति-प्रभातक अरुण किरण बनि
पाप-कुमुद-कुल भगीरथक दलनि, पुण्य-पंकज-विकासिका
भगीरथी तप-गगन-भानु-रश्मिक प्रकाशिका
हमर हृदय-कुहकर निबिड़ अछि अभेद्य मोहक अमा।
करुणा-किरणक एक कण दय, प्रकाशमय करब मा॥5॥
पाप-रात्रि निःशेष-कारिणी अही प्रभाती
कलिक कलुषमय गुफा-तिमिर प्रति दीपक बाती
जन्म-निधन-नक्षत्र अस्त हित दिनमणि दीपित
यमभय-करिदल-दलन हेतु मृगपति उद्दीपित
जनिक जलक कणसँ अघक शत-शत सेतुक भञ्जना।
कत सम्भव मूकक मुखे तनिक शक्ति-अभिवन्दना॥6॥
यदि न हमर हो भाग्य जीव जे जल-सञ्चारी
अथवा तट तरु पत्र खसय टुटि अन्तहु वारी
यदि नहि सम्भव होय तृणक तनु सलिल-विलासी
अथवा स्नातक केश लुलित भय स्रोतक वासी
ओहि पथक हम रेणु-कण बनी, जाहि पथ पथिक जन
जाथि, तनिक पद लागि कहुँ, जाय मिली तट बालु-कन॥7॥
नहि कस्तूरी-तिलक भाल गंगौट लभ्य जत
स्वर्णक कण अछि तुच्छ बालु-कण हो यदि उपगत
अमृत-कलश ओंघड़ाय देब गंगाम्बु चुलुक भरि
पंक अंग यदि संग, न चन्दन लेपब उपकरि
गंगा-स्रोतक छाड़निक यदि हो सम्प्रति बिन्दु भरि।
चित न चढ़त कथमपि हमर क्षीरक सम्भृत सिन्धु धरि॥8॥
कण्टकमय तट-बास हेतु प्रासादहु तेजब
छोड़ि अरगजा-लेपन गंगा-पाँक अङेजब
नहि व्यवसायी पोत सागरक वक्ष-विहारी
काठ बनब अछि इष्ट जाह्नवी-जल-सञ्चारी
नहि कुंकुम कश्मीरजा युवति-कपोल-पराग रुचि।
अंग-बंग-मगधक पशुक खुर-रज बनि लहि स्रोत शुचि॥9॥
स्वर्ग-अर्गला तोड़ि गिरिक रोधन नहि मानल
शिव-शिर वासक लोभ-लेश मनमे नहि आनल
शत-शत प्रान्तर पार, सहस कोशक कय धावन
अन्त क्लान्त मिलि, क्षार-वारि कयलहुँ भव पावन
शतमुख विनिपातक कथा कहौ, न खेदक लेश अछि।
जगत-जीव-हित-साधना एक मात्र उद्देश्य अछि॥10॥
द्विज-अन्त्यजके एक घाट जल अहाँ पिऔलहुँ
दलित-दलहुँके पानि परसि, हरि-पद पहुँचौलहुँ
स्वर्ग-मन्दिरक रुद्ध अर्गला खोलि सहज मति
अघी, अन्त्यजक सुलभ कयल जननी दर्शन-गति
अहँ सुधारिका धरणिमे प्रथम-प्रथम अयलहुँ जखन।
यम-समाजमे गेल मचि रिक्त-रक्त हलचल तखन॥11॥
गिरिक शिखरसँ सागर धरि एकहि प्रवाहसँ
मुक्तिसाम्य सन्देश देल स्वच्छन्द नादसँ
स्वर्ग-राज्यमे, भेद न राखल नृपति-रंकमे,
भक्तिक श्रममे, ज्ञानक पूजी-पतिक अंकमे
मुक्ति-तन्त्र जन-सुगम कय, दण्डधरक बल लय निखिल।
कान्तिकारिणी! कयल अहँ भव-वन्दी-बन्धन शिथिल॥12॥
परम पुरातन, भगीरथक श्रमसँ सञ्चालित
विश्व-अविद्या हरण हेतु हरि-पद उद्घाटित
जत निर्वाध प्रवेश जलक कण-कण अध्यापक
नर नारी शिशु युवा जीर्ण पल भरिमे स्नातक
युग-युगसँ जत आर्यजन तत्व चयन कयलनि परम।
करथु अविद्या दूर से विश्वक विद्यालय चरम॥13॥
आदिकविक नहि छन्द, कालिदासक ध्वनि-बन्ध न,
द्रविड़-शिशुक नहि कण्ठ, जगन्नाथक न निबन्धन,
विद्यापतिक न स्वर, न लभ्य पद्माकर सौरभ
जननि! सुनाओत कोना मुग्धं सुत विनय हतप्रभ?
किन्तु विदित विश्वास ई जननी हृदयाऽऽवर्जना।
जड़सुत-क्रन्दन सुनि यथा, तथा न चतुरक कल्पना॥14॥
- पुस्तक : रचना संचयन (पृष्ठ 26)
- संपादक : चन्द्रनाथ मिश्र ‘अमर’/ शंकरदेव झा
- रचनाकार : सुरेन्द्र झा ‘सुमन’
- प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
- संस्करण : 2012
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