सीता आज भी धरती के गर्भ में समा जाती है

sita aaj bhi dharti ke garbh mein sama jati hai

देवयानी भारद्वाज

देवयानी भारद्वाज

सीता आज भी धरती के गर्भ में समा जाती है

देवयानी भारद्वाज

और अधिकदेवयानी भारद्वाज

    सड़क पर खड़े निरीह पुतले रावण के

    कहते हैं पुकार-पुकार

    देखो,

    बुराई का प्रतिमान नहीं हूँ मैं

    सिर्फ़ क़द बहुत बड़ा है मेरा

    हम आर्यावर्त के लोग

    सह नहीं पाते

    जिन्हें हमने असुर माना

    उनकी तरक़्क़ी और शिक्षा

    उनके ऊँचे क़द से डर जाते हैं

    डर जाते हैं स्त्रियों के

    अपनी कामनाओं को खुल कर कह देने से

    स्त्री मुक्ति की बातें

    हमें घर को तोड़ने वाली ही बातें लगती हैं

    हम लक्ष्मण-रेखाओं के दायरे में ही रखना चाहते हैं सीता को

    और डरी-सहमी सीता जब करती है पार लक्ष्मण-रेखा

    तो फँस ही जाती है किसी रावण के जाल में

    लेकिन क्या रावण ने जाल में फँसाया था

    या ले गया था उसे लक्ष्मण-रेखा की क़ैद से निकाल

    और कहा हो उसने :

    ''प्रणय-निवेदन मेरा तुम करो या करो स्वीकार

    यह सिर्फ़ तुम्हारा है अधिकार

    तुम यहाँ रहो प्रेयसी

    अशोक वाटिका में

    जहाँ तक पहुँच नहीं सकेगा

    कोई भी सामंती संस्कार!

    जो ज़ेवर सीता ने राह में फेंके थे उतार-उतार

    क्या वह राम को राह दिखा रही थी

    या फेंक रही थी उतार-उतार

    बरसों की घुटन और वे सारे प्रतिमान

    जो क़ैद करते थे उसे

    लक्ष्मण-रेखा के दायरों में

    जबकि राम कर रहे हों स्वर्ण-मृग का शिकार

    यह मुक्ति का जश्न था

    या थी मदद की पुकार

    इतिहास रचता ही रहा है

    सत्ता के पक्ष का आख्यान

    कौन जाने क्यों चली गई थी तारा

    छोड़ सुग्रीव को बाली के साथ

    और किसने दिया मर्यादा पुरुषोत्तम को यह अधिकार

    कि भाइयों के झगड़े में

    छिप कर करें वार

    कब तक यूँ ही ढोते रहेंगे हम

    मिथकों के इकहरे पाठ

    और दोहराते रहेंगे

    बुराई पर अच्छाई की जीत का नाम

    जबकि तथ्यों के बीच मची है कैसी चीख़-पुकार

    'घर का भेदी लंका ढाए'

    कैकेयी ने तो सिर्फ़ याद दिलाई थी रघुकुल की रीत

    पर यह कैसी जकड़न थी

    कि पादुका सिंहासन पर विराजती रहीं

    जिसे सिखाया गया था सिर्फ़ चरणों को पूजना

    और पितृसत्ता का अनुचर होना

    उसने इस तरह जाया किया

    एक स्त्री का संघर्ष

    जीवन भर पटरानी कौशल्या के हुकुम बजाती कैकेयी ने

    बेटे के लिए राज सिंहासन माँग कर पाला था एक ख़्वाब

    भूली नहीं होगी कैकई

    बरसों के अनुभव ने छीन लिया होगा

    अपने ही सुलगते सपनों को जीने का आत्मविश्वास

    कुछ पुत्रमोह भी बाँध रहा होगा पाँव

    आख़िर दमित रानी की

    और भी दमित दासी ने चला दाँव

    और रघुकुल की रीत निभाई राम ने

    जैसे आज भी निभाते हैं रघुकुल की रीत को कलयुगी राम

    औरतें और दलित सब ही बनते हैं पंच और सरपंच

    सिंहासन पर अब भी पादुकाएँ विराजती हैं

    जिस नवयौवना सीता को पाने चले गए थे राम

    अपार जलधि के भी पार

    वह प्रेम था या अहम पर खाई चोट की ललकार

    आख्यान कहाँ बताते हैं पूरी बात

    या रचते हैं रूपकों का ऐसा महाजाल

    सीता स्वेच्छा से देती है अग्नि-परीक्षा

    और गर्भावस्था में कर दिया जाता है उसका परित्याग

    राम के पास था नैतिक साहस

    और लक्ष्मण का भी था मुँह बंद

    सत्ता की राजनीति में सीता

    बार-बार होती रही निर्वासित

    और वाल्मीकि के आश्रम में पाती रही शरण

    राम के अश्वमेघ यज्ञ के घोड़े स्वतंत्र घूमते रहे

    लव-कुश लौट-लौट कर जाते हैं

    अयोध्या के राजमहल

    सीता आज भी धरती के गर्भ में समा जाती है!

    स्रोत :
    • रचनाकार : देवयानी भारद्वाज
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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