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बादल होकर रह जाता हूँ

badal hokar rah jata hoon

कर्मदेव पाठक

कर्मदेव पाठक

बादल होकर रह जाता हूँ

कर्मदेव पाठक

और अधिककर्मदेव पाठक

    नदियों-सा मैं बह जाता हूँ

    बहते बहते रह जाता हूँ

    कभी तीव्र सी धारा होकर

    कभी मौन की माला होकर

    बूंद-बूंद हल्का होकर फिर

    बादल होकर रह जाता हूँ।

    रह जाता हूँ बादल बन कर

    कभी बरस जाऊँगा उस पर

    वह जो सूखा हुआ किनारे

    पड़ा हुआ है घाट सहारे

    आहें भरता, कविता कहता

    रुक-रुक सिसकी भरता रहता

    उसकी कविता बन जाता हूँ

    बादल होकर रह जाता हूँ।

    रह जाता हूँ उसके मन में

    मन के घने अँधेरे वन में

    उसके काव्य सृजित जीवन में

    उसको जागृत कर जाता हूँ

    बादल होकर रह जाता हूँ।

    मैं उड़ता हुआ मनस पट पर

    उसके इसके सबके तट पर

    स्थिर होकर छप जाता हूँ

    उसकी क़लम की स्याही में

    रंगों-सा बन बह जाता हूँ

    बादल होकर रह जाता हूँ।

    मैं हूँ रेतों में धंसा हुआ

    अपने शब्दों में फंसा हुआ

    भीड़ों से बहुधा डरा-डरा

    चुपचाप खड़ा बस कसा हुआ

    फिर एक किरण दिखती है जो

    सुंदर है, संजीली है वो।

    उन चमकीली किरणों संग ही

    मैं हल्का होता जाता हूँ

    दामन नदी का मैं छोड़ वहीं

    किरणों का होता जाता हूँ

    और बूंद-बूंद हल्का होकर

    बादल होकर रह जाता हूँ।

    स्रोत :
    • रचनाकार : कर्मदेव पाठक
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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