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पीढ़ियाँ बोलती हैं...

piDhiyan bolti hain. . .

जनार्दन

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पीढ़ियाँ बोलती हैं...

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    कल रात ज़ोर से साँकल खड़काई,

    कच्ची नींद से मुझे जगाई,

    मैंने नींद में ही कहा— 'क्या है? सोने दो',

    वह धिक्कारते हुए बोली—

    'सोते ही रहो पूरी उम्र',

    'चाहे कोई रोता रहे इस जीवन के बाद भी।'

    नींद जा चुकी थी, आँखें खुल चुकी थीं,

    कृष्णपक्ष शुक्लपक्ष हो चुका था,

    कटहल,आम और हरसिंगार के फल-फूल बिजली बन गए थे,

    कमरे में ही पूरा आसमान मचल रहा था,

    तीख़ी रौशनी फैलती जा रही थी।

    मैं खुली आखों से सपना देख रहा था,

    रात से नज़र मिली,

    उसमे इशारे से चुप रहने को कहा।

    धीरे-धीरे पूरा कमरा लोगों से भर गया,

    लुटे-पिटे लोग पीढ़ा लेकर बैठ गए,

    उसमें माँ भी थी,

    पिता भी थे,

    बाकी को मैं पहचान नहीं पाया।

    मैने माँ से पूछा—

    'माँ इतनी रात को तुम और पिताजी!'

    'कहो कैसे आना हुआ?'

    'और साथ में इसने सारे लोग!'

    रात पीढ़ा पर बैठे लोगों को गुड़-पानी देने में लगी थी,

    जैसे उनका कोई ख़ास या सगा था।

    माँ ने कहा— 'बेटा ये तुम्हारे अपने हैं'

    'तुम्हारे सगे,तुम्हारे दादा, परदादा'

    'तुम्हारे नाना परनाना।'

    मैं आखें फाड़ उन्हें तकता रहा।

    अबकी पिता बोले—

    'बेटवा हम तोहरे इतिहास के पलटन साथ लेके आए हैं'

    मेरे आगे पूरा इतिहास बिखरा पड़ा था,

    पिता फिर बोले,

    'यह तुम्हारी बहन है'

    'जिसे गाँव के दरिंदों ने अपमानित करके नाले मे मार कर फेंक दिया।'

    'वह जो तुम्हे निहारे जा रही है, तुम्हारी बुआ है'

    'तुम्हारे जनम के पंद्रह बरस पहिले दुनिया से कूच कर गई',

    'वह भी अपमानित करके कुएँ में फेंक दी गई थी।'

    मैंने अचंभित हुआ— 'पिताजी एक घटना दो पीढियों में एक जैसी?'

    इस बार एक बुजुर्ग बोले— 'बेटा एक ही घटना तो सदियों से घट रही है,

    बस नदी, नाले खेत और खलिहान का फ़र्क है।'

    मां ने बताया—

    'ये तुम्हारे प्रपितामह हैं, जिन्हें गाँव के दबंगों ने कत्ल कर दिया था'

    मैं चीखा- 'क़त्ल! पर क्यों?'

    प्रपितामह ने बताया—

    'क्योंकि हमने अक्षर जानने की कोशिश की थी।'

    'अब तुम अक्षर बाच लेते हो तो,

    उस समाज की सुध लो'

    जिसने हमें अक्षर बाँचने की सजा दी थी।

    'तभी हमारा मरना सकारथ होगा'

    प्रपितामह ने हाथ जोड़ दिया,

    उनकी आखें डबडबा गईं।

    मैने देखा सब रो रहे थे,

    उठकर उनके पास जाना चाहा,

    उन्हें ढाढस बधाना चाहा,

    तो अचानक सब ग़ायब हो गए।

    पीढ़े वही पड़े थे,

    पीढियों की संचित आत्माएँ मुझमें डोलने लगीं,

    कमरा अब भी उनके तेज से दपदपा रहा था,

    सामने खड़ी काली रात मुझे निहार रही थी,

    मैंने पूछा— 'तुम्हारा मेरे पूर्वजों से कैसा रिश्ता है?'

    रात का ज़वाब था—'मैं उन पर हुए जुल्मों की चश्मदीद गवाह हूँ।'

    स्रोत :
    • रचनाकार : जनार्दन
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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