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पिता

pita

ज्योत्स्ना चन्द्रम्

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और अधिकज्योत्स्ना चन्द्रम्

    भौतिकवादक आवरण मे लेपटाऐल

    अपन मौलिकताक संग

    हम इच्छा बनल रही कहियो

    अपन आँगुर बढ़ौने रही कहियो

    अपन दुनू पएरपर ठाढ़ि होएबाक

    मनोरथ कएने रही कहियो...

    मुदा अहाँ

    अनचिन्हार भऽ गेल रही, हम

    जेना एकाएक चेहा उठलि रही...!

    एना किए भेल पिता?

    पिता माने डर तऽ नहि होइत छै!

    पिता मानें आतंक तऽ नहि होइत छै!

    पिता माने छद्म तऽ नहि होइत छै!

    अहाँ तऽ सागर रही

    सागर कथमपि

    दुखी-दुष्ट-दुब्बर नहि होइत अछि

    अपन दौर्बल्य कें

    आवरण देबाक लेल सागर

    अपन पाल्य के दुर्बल तऽ नहि करैत अछि!

    पिता तऽ खाम्ह होइत छथि

    नाम होइत छथि पिता

    पिता तऽ हिमालय होइत छथि

    संस्कृति होइत छथि पिता

    हम तऽ परम्परा छी

    एहि सभटा मान्यताक, तें

    बिसारितो नहि बिसरि पबैत छी

    अहाँक उत्सवी व्यक्तित्व कें

    हमर आँखि मे जे फूल अछि—

    अहाँक देल अछि

    हमर हृदय मे जे कविता अछि—

    अहाँक देल अछि

    हम बढ़लहुँ विकाररहित—

    अहाँक कारणें

    हम पढ़लहुँ जीवन

    हम लिखलहुँ जीवन—

    अहाँक कारणें

    हम सिङ्गरहार नहि, अड़हुल भेलहुँ—

    अहाँक आशीष सँ

    हम ध्वजा नहि, चिड़ै भेलहुँ—

    अहाँक प्रयास सँ

    हम देखलहुँ कहाँ

    अहाँक ललाटपर विभाजक-रेखा

    हम पौलहुँ कहाँ

    अहाँक भाषापर ईर्ष्या-भाव!

    अहाँ तऽ एहन नहि रही पिता!

    निभेर रातिमे मधुर खएबाक मोन करए,

    अहाँ विदा भऽ जाइत रही दोकान

    कनी छीक नहि होअए,

    अहाँ चलि पड़ी अस्पताल

    अहाँ हँसी,

    पूरा परिवार हँसए

    अहाँ गाबी,

    पूरा परिवेश गाबए

    मछाइन-मसुआइन गमकए पूरा घर

    मधुराइन लागए पूरा घर

    वाणीक मुदित झंकार रहए पूरा घर

    लक्ष्मीक भरल बखाड़ रहए पूरा घर

    हम ताही परिवेश सँ

    सिखलहुँ छल मदर टेरेसाक कामना

    हमर सृजन मे प्रतिकूल किछु नहि रहए

    अहाँ रही, अहाँक संघर्ष रहए

    अहाँक संग, संघ-शक्ति रहए

    फाहा सन कोमल करेज रहए अहाँक

    मखान सन फूटल उत्साह रहए अहाँक

    वर्गविहीन/विवेकयुक्त उद्देश्य रहए अहाँक

    पूजीवादी आवरण तर

    समाजवादी आचरण रहए अहाँक

    आइ एना

    तामस किए ठाढ़ अछि आँखि मे

    आइ एना

    खौंझ किए बजैत अछि कण्ठ मे

    हम ककरा सत्य मानू अक्षर-पुरुष!

    अहाँ तऽ एहन नहि रही

    अहाँ ककरापर एते तामस करैत छी

    अहाँक तनाव कोन संस्कृति सँ पीड़ित अछि

    अहाँक मानस मे तऽ अगस्त्य छथि

    एतदर्थ,

    अहाँक कविता तऽ बजैत रहल अछि

    अहाँ तऽ एहन नहि रही आदर्श-पुरुष!

    एना कोना

    बड़ सँ राहरि भऽ गेलहुँ बीजी पुरुष!

    हम दुहिता भेलहुँ तें की,

    छी तऽ अहींक अंश

    हमर रक्त मे

    प्रवाहित अछि अहींक धमनीक रक्त

    हमर यात्रा मे

    गतिशील अछि ताही यात्राक उत्स

    एना विभाजक नहि होउ

    हमर नारीत्व कें देखि

    नहि खौंझाउ एना

    ठीके, अहाँ बिसरऽ लागल छी बहुत किछु

    अपन संगीत...

    अपन सोच...

    अपन शुचिता ...

    अहाँक जीबाक शिल्प

    बड़ मरखाह लागि रहल अछि...

    किछु करू,

    मुदा अपन परिचिति नहि हेराउ

    हम चकित छी,

    हे हमर आत्मलीन पिता!

    स्रोत :
    • पुस्तक : समग्र ज्योत्स्ना
    • संपादक : विभूति आनन्द
    • रचनाकार : ज्योत्स्ना चन्द्रम्
    • प्रकाशन : नवारम्भ
    • संस्करण : 2017

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