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ओकर जहिया जन्म भेलै

okar jahiya janm bhelai

ज्योत्स्ना चन्द्रम्

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ज्योत्स्ना चन्द्रम्

ओकर जहिया जन्म भेलै

ज्योत्स्ना चन्द्रम्

और अधिकज्योत्स्ना चन्द्रम्

    ओकर जहिया जन्म भेलै,

    चमैन-प्रथा समाप्त रहै

    जहिया बढ़लि,

    क्यो ने खिस्सा-पिहानी सुनबै

    ने क्यो करै अदखोइ-बदखोइ

    ढील नहि हेरै क्यो

    उक्खरि

    आकि, ढेकी

    आकि,जाँत

    आकि, लगनी

    नहि रहै आँगन-दुआरिमे...

    ने

    ड्योढ़ीपर पाड़ल रहै

    नारी-जीवनक लक्ष्मण-रेखा

    परिवर्तनक क्रम रहै

    नारी पुरुष-पार्थक्यक

    अंतक क्रम रहै

    टी.वी.क क्रम रहै

    कम्प्यूटरक क्रम रहै

    बाप भायक

    गाम समाजक

    चौल करबाक, सुनबाक प्रथा

    हैपेटाइटिस-बी रोगी सन

    हुक-हुकऽ रहल रहै

    विवाह नामक संस्थाक

    औचित्य अनौचित्यपर

    सोचबा लेल समय नहि रहै

    इच्छा सेहो नहि करै

    एकटा 'गॉसिप' सन लगैत संस्था

    घुरघुराइत रहै,

    कि नहि घुरघुराइत रहै—

    क्यो एहि दिस नजरि नहि मोड़ै

    जेना, प्रकृतिक संरचना कें तोड़ै

    फूल देखै—

    नागफनीक

    गति देखै—

    प्रक्षेपास्त्रक

    ओकर हाथमे खेलौना होइ—

    रोबोट...रिमोट...

    खेलाए—

    इन्टरनेट

    नहाए—

    सावइर कैफे

    सोचए—

    जे एखन धरि नहि सोचल गेल रहै...

    मने,

    तिरोहित भऽ गेल रहै

    ओकर मोनसँ जेना

    नवयौवनक कोमलता

    माधुर्य

    उछाह

    आ...आ तें नहि अबै

    ओकर स्वप्नमे कोनो राजकुमार

    वयसक एक समय-सीमा धरि अबैत

    एहि तरहक भावना

    कामनाक निरर्थकता कें

    रेखांकित करैत

    स्वप्न देखै कोनो राजकुमारक नहि,

    स्वप्न देखै

    अपन अंदरसँ अँकुराइत

    कोंढ़िआइत

    भकरार भऽ फुलाइत

    आर्थिक रूपसँ सम्पन्न एक नारी कें

    ओकर जहिया जन्म भेलै,

    मुहानीपर थरथराइत रहै

    ध्वस्त होइत परम्पराक पीपर-पात

    आ, लक्ष्मण-रेखा नँघबाक क्रम

    एकटा जुलूसक रूप धऽ लेने रहै

    'एकटा 'रिनासाँ'क युग रहै

    स्रोत :
    • पुस्तक : समग्र ज्योत्स्ना (पृष्ठ 19)
    • संपादक : विभूति आनन्द
    • रचनाकार : ज्योत्स्ना चन्द्रम्
    • प्रकाशन : नवारम्भ
    • संस्करण : 2017

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