मेरा शहर

mera sahar

मोहन सिंह सलाथिया

और अधिकमोहन सिंह सलाथिया

    मंदिरों का शहर

    मेरा मंदिरों का शहर यह

    संदरों से भरा

    शहर संदरों का हो गया।

    संदर अनोखे

    अनगिनत

    आए कहाँ से

    धरती से उपजे या आकाश से गिरे हैं।

    संदर नहीं वे

    जिन संदरों की वजह से

    मानव ने बनाई

    राह जीवन की आसान थी।

    धरती से साफ़ कर

    कठिन कठिनाइयों को

    की थी तलाश

    जीने की सहूलतें

    संदर नहीं वे

    जो चीरकर धरती को

    फ़सलों को, अंकुरों को

    जीवनदान देते हैं।

    वे यदि होते तो मैं

    नाचता और गाता नहीं?

    संदर हैं वे

    जो चीरते मनुष्यता को

    जीवन पर जो काली मौत थोप देते हैं...

    क़लम के स्थान पर

    हाथ थाम सालटें

    छोटे-छोटे बच्चे सारे

    अदृश्य हो गए।

    आते-जाते मात्र वे

    चिह्न छोड़ जाते हैं

    अपने या दूसरों के

    शव पर लिखकर।

    गिरा जाते लहू की

    गर्म धार धरती पर

    जैसे कोई शैतान बालक

    दवात पलट देता है

    फाड़ जाते जीवन का

    एक-एक पन्ना वे

    अपने ही बीज का वे

    नाश कर जाते हैं।

    मानसों का शहर

    भले मानसों का शहर यह

    काफ़िरों से भरा

    शहरी काफ़िरों का हो गया।

    भूले-भटके मानवों को

    राह जो दिखाते थे

    वही आज रास्ते में

    राहियों को लूटते

    अपने ही घर

    घर वाले रहते सहमे हुए

    डरकर दुष्टों से

    किनारे-कोने ढूँढ़ते।

    इज़्ज़त से रहना, जीना

    मान-मर्यादा सब

    समझो कि यह अब

    रहा नहीं पन्ना ही

    लंबी चुप्पी साधकर

    गुज़ारे वाली बात है

    मूँछें चाहे खड़ी हैं

    पर भीतर से खोखले

    जीने की लालसा में

    चाट रहे तलवे...

    धर्मियों का शहर

    मेरा धर्मियों का शहर यह

    कपटियों से भरा

    शहर पापियों का हो गया

    कोठियाँ बनाने को यह

    पक्कियाँ विशाल भव्य,

    खा जाते पंक्ति दर पंक्ति

    कई इमारतें

    झोपड़ियों के समूह के समूह

    ख़त्म कर देते

    जंगल के जंगल

    डकार जाते एकदम

    काग़ज़ों को लिख-लिख

    घायल कर देते हैं

    आदमी तो आदमी

    जो बस पड़े बाल की

    खाल भी यह

    उतारना छोड़ते।

    धर्म मनुष्यता को

    ख़ूब घिस-घिसकर

    रोज़ परमात्मा के लिए छोड़ आते हैं।

    सादे शुभचिंतकों का

    भोले-भोले मक्खनों का

    शहर मेरा शहर यह

    कैसे ऐसा हो गया

    कैसे ऐसा हो गया।

    संदर : औज़ार

    सालट : बंदूक़

    स्रोत :
    • पुस्तक : आधुनिक डोगरी कविता चयनिका (पृष्ठ 94)
    • संपादक : ओम गोस्वामी
    • रचनाकार : मोहन सिंह सलाथिया
    • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
    • संस्करण : 2006

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