एकटा अइपन अपन
लिखि त दितहुँ अहाँ!
गाबिस माटि
त बेस जतन सँ
जोगबैत छथि धरती माइ
अहाँक भीतर
लंकेसरक पीयर फूल मे
रँगि क',
मुदा देखिते-देखिते ओ
चनकी माटि भ' जाइत अछि।
दाड़िमक आभा
जे बहराइत अछि
अहाँक मुँह पर अगधाइत,
से आगूक खुशफैल मे अबितहिँ
उमकैत-उमकैत
ठमकि जाइत अछि।
फागुनक पूर्णिमा
खलस' लगिते अछि
अहाँक दुनू आँखि मे भरि पोख,
कि झामर होइत
अन्हरिया दिस
बढ़' लगैत अछि।
एकटा अइपन
तइयो मुदा अपन
कोहुना क'
लिखि त' दितहुँ अहाँ!
कुसुमक फूल जे करैत अछि गर्द
अहाँक दुनू ठोर मे
सगर जहान सँ आलाप
करबाक लेल,
से देखले दिन मे
शांत भ' जाइत अछि।
तरबाक चाप सँ
जे जगैत अछि गाजरक अमार
धरती मे
निधोख चलैत काल,
डेग छोट होइतहिँ से
गारत भ' जाइत अछि।
आ अहाँक आत्मा मे गहगह करैत
महुक गाछ
कलश छोड़ितहिँ
टगैत चलि जाइत अछि।
एकटा अइपन
तइयो मुदा अपन
कोहुना क'
लिखि त' दितहुँ अहाँ!
जनमैत त अछि अइपन अलेल
अहाँक आत्माक अँगनइ मे,
आसिनक शांत-नील पोखरि-झाँखरि
जखन ओहि मे घरेर
क' लैत अछिः
ठाम-ठाम छतनार सेमारक बीच
कत्थइ-लाल चिक्कन पातक संग
फुलाएल धपधप
फूल जकाँ अइपन!
पुरनिक पातक संगतिया भेल
भीजल लाल फूल जकाँ
अइपन!
जनमैत त अछि अइपन अलेल
अहाँक भीतर,
मुदा झट द' बिला जाइत अछि
अहाँक अतीत मे
प्रायः सभ दिनक लेल।
फेर चढ़ैत अछि सीथी माथ पर,
गरा मे फँसैत अछि ग्रिमहार,
आ अँगनइ अहाँक
काह सँ छारल
डबरा भ' जाइत अछि।
एकटा अइपन तइयो
मुदा अपन
कोनहुना
लिखि त दितहुँ अहाँ!
यदि घोघ तर सँ बाहर अबितहुँ अहाँ
रौद मे चमकैत खंतीक धार नेने
अपन आँखि मे;
कोबरा घर सँ बाहर यदि
आबि सकितहुँ अहाँ
अहिबातक पातिल पर जरैत
दीपक लौ भेल;
ओहार सँ बाहर
जँ निकलि सकितहुँ अहाँ
बहलमान केँ भाइ बनौने अपन;
महफा सँ बाहर फानि जइतहुँ जँ
कहरिया सभक कान्हक भकभकी
अँगेजने अपन प्रान मे;
भनसाघरक औन्ह सँ
बहरा सकितहुँ जँ
आँच फुकबा कालक जोर
नेने अपन कोँढ़ मे;
धाप मारैत टपि जइतहुँ जँ
अपन सिकस्त आँगन सँ
मुंगरी ओ समाठ मे लागल जोर
गहने दुनू बाँहि मे;
अहाँ जकाँ जे केओ जे केओ
उखड़ल छथि खेतक सिराउर सँ,
हुनका सभक संग
आबि जइतहुँ जँ
साबिकक सिमान सँ बाहर
फारक चमक नेने अपन
चालि मे,
त एक पर एक
अपरूप अइपनक सूरसार
होम' लगैत अहाँ सभक शोणित मे
मोनप्राण मे,
होम' लगैत सूरसार माटिपानि
हवाबसात फूलपात मे
एहि धरतीक
एकटा बिलच्छन अइपन
बनि जयबाक।
सरिपहुँ,
जँ चैतक अन्हर-बिहाड़ि जकाँ
झमारि क' अपना केँ,
तोड़ैत नाथ आ गरदामी
पुरुखपातक,
ठाढ़ भ' जइतहुँ अहाँ
अपन बहिना सभक संग
बाहर बड़का संसार मे,
त ओ दिन आबि जाइत जल्दिये,
जखन अनुपान केराक
जनमौटी छिम्मी
लागि जाइत अहाँक
दुनू तरहत्थी मे,
आ लिखि दितहुँ अहाँ
घनेरो अइपन निस्तुकी
अपन प्रान पर
हमर प्रान पर!
अपन गाबिस माटि सँ
गढ़गर क' निपितहुँ अहाँ
अपन प्रान केँ
हमर प्रान केँ
आ लिखैत रहितहुँ ओहि पर
अभिराम अइपन
एक सँ एकः
अपन नेहक आसव मे घोरल
इजोरिया मे बोरिक'
अपन आँगुरक पोर-पोर केँ,
कुसुमक लाली मे सानल
दाड़िमक आभा सँ क'क'
रंगटीप ओहि पर,
लिखैत रहितहुँ बिसेखक
अइपन एक सँ एक!
उनचास बसातक हाहि
बहैत अछि
चैतक दुफरियाक भकोभन
प्रांतर मे;
हाक दैत अछि सर्बजायाक
लाल बुनका बला
पीयर फूलः
एकटा अइपन अपन
लिखि त दितहुँ अहाँ!
- पुस्तक : एना त नहि जे (पृष्ठ 60)
- रचनाकार : हरेकृष्ण झा
- प्रकाशन : रक्तमंजरी प्रकाशन
- संस्करण : 2006
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