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कुछ समझ में नहीं आता है

kuch samajh mein nahin aata hai

ऋत्विक्

ऋत्विक्

कुछ समझ में नहीं आता है

ऋत्विक्

और अधिकऋत्विक्

    कुछ समझ में नहीं आता है

    नींद के लिए

    आँख मूँदता हूँ

    हल्का पीला धुआँ

    बंद आँखों के आगे छा जाता है!

    उलझनों के तार-तार में

    उलझा मस्तिष्क

    एक दृश्य दिखाता है

    हृदय की गहराइयों का

    जिसमें घर जिजीविषा का

    उफ़्फ़! अंतिम समय!

    जूझ रही है

    छूट रही है

    जिजीविषा!

    मृत्यु! अहा! फिर अंतिम संस्कार!

    चिता से उठता

    हल्का पीला धुआँ

    आँखों के आगे छा जाता है।

    कुछ समझ में नहीं आता है!

    समय के रथ से

    भूत-भविष्य-वर्तमान के घोड़े

    छूट भागते है

    अलग-अलग दिशाओं में

    दिशाएँ भी आगे-आगे और आगे बढ़ती जाती हैं

    क्षितिज का मायाजाल फैलता जाता है!

    कुछ समझ में नहीं आता है!

    सिर के ऊपर

    कमरे की छत पर

    लटकते दिखते

    भूत-पिशाच के कपाल

    एक बाबरिया भी है जो

    हँसता जाता है

    कहता जाता है

    कुछ समझ में नहीं आता है।

    एक तरफ़ कोमल स्पर्श से

    कंपित होती है शिराएँ

    दूसरी ओर देखो!

    हृदय चीरने को

    नाख़ून बढ़ आए

    पलक के किवाड़ के पीछे

    कल्पना तरु महान्

    नयन खोलो तो

    यथार्थ का रेगिस्तान!

    सावधान!

    भयानक वास्तविकता का तूफ़ान उठता है

    बढ़ता है बढ़ता जाता है और बढ़ता है

    स्वप्न के सुंदर प्रदेश से टकराता है

    कुछ समझ में नहीं आता है।

    दुनिया क्या है?

    भूलभुलैया है

    एक पथ का

    दूसरे पथ से

    क्या नाता है?

    विसंगतियाँ हैं!

    विसंगतियाँ हैं!

    कौन क्या खोजता है

    किस राह पर जाता है

    कुछ समझ में नहीं आता है।

    अर्धचेतन

    सुनता हूँ मैं

    सुनता हूँ!

    कौन है जो यह गाता है

    विरह गीत!

    मधुर संगीत!

    ‘आषाढस्य प्रथम दिवसे...’

    क्या तुम हो ऑर्फ़ियस?

    गाओ! गाओ!

    जड़-पाषाण-हृदय पिघलाओ।

    एक और मद्धम आवाज़

    उठती है कहीं से

    शायद मस्तिष्क-भीतर ही से

    कौन यह जो घोषणा करता है

    ‘विचरितमृगयूथान्याश्रयिष्ये वनानि।

    क्या तुम हो? चंद्र-नरेश पुरु?

    जाओ! जाओ!

    भविष्य पुत्र को सौंप

    वन की ओर!

    जाओ तुम!

    अब भला कौन है?

    ‘दुरापना वात इवाहमस्मि।’

    कहता हुआ

    क्या तुम हो प्रेम?

    प्रेम...! तुम...? कैसे...?

    क्या कह रहे हो?

    ‘दुरापना वात इवाहमस्मि।’

    नहीं! नहीं! प्रेम नहीं हो सकता

    फिर कौन मुझसे यह कहता जाता है

    कुछ समझ में नहीं आता है।

    देखो! देखो! सड़क बाहर

    काम पर जा रहे उस आदमी को

    पृथु ज्यों हज़ार कान लेकर

    सहस्रार्जुन की सहस्र भुजाएँ

    सहस्त्राक्ष इंद्र के सहस्र दृग्

    वह गुडाकेश काम पर जाता है

    देखो! देखो!

    वह जीवन के स्वर्ग से

    ययाति सा

    नैत्य-नरक में गिरता जाता है

    कुछ समझ में नहीं आता है।

    घूमती है आकाशगंगाएँ

    घूमते है ग्रह-नक्षत्र

    घूमती है पृथ्वी

    कुछ समझ में नहीं आता है

    मेरा सिर घूमता जाता है

    कुछ समझ में नहीं आता है।

    क्या यह तुम

    या मैं तो नहीं?

    जो

    बिठा कर चिंता का बेताल पीठ पे

    जीवन के तपते हुए रेगिस्तान में

    मृत्य की प्यास लिए

    अनवरत चलता जाता है, जिसे

    कुछ समझ में नहीं आता है।

    अंत में कुछ नहीं होना है

    जैसे शुरुआत में कुछ नहीं हुआ था

    जैसे मध्य में कुछ नहीं हुआ था

    बस यह जीवन-पथ यूँ ही बढ़ता जाता है

    कुछ समझ में नहीं आता है।

    अब

    हमेशा नहीं कभी-कभी

    रक्तबीज ज्यों लौटता है काम

    भस्म सिर में लगाए बैठा है

    शिव एक जो मदन-मर्दन करता जाता है

    कुछ समझ में नहीं आता है

    हल्का पीला धुआँ

    बंद आँखों के आगे छा जाता है!

    कुछ समझ में नहीं आता है।

    स्रोत :
    • रचनाकार : ऋत्विक्
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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